रावलपिंडी में दिसंबर 2007 में एक रैली के बाद हुए हमले में बेनज़ीर भुट्टो की मौत हो गई थी |
इतिहास शायद ही शहीदों या मारे गए नेताओं का सही मूल्यांकन कर पाता है. बेनज़ीर भुट्टो भी यादों के झरोखों में चली गई है.
लंदन में बसे और उनके साथ ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय में पढ़े पत्रकार श्याम भाटिया की एक किताब प्रकाशित हुई है - "गुडबाई शहज़ादी". इसमें श्याम भाटिया ने ये बताने की कोशिश की है कि बेनज़ीर भुट्टो कितनी अलग क़िस्म की महिला थीं.
श्याम भाटिया ने इस पुस्तक में बेनज़ीर भुट्टो से जुड़े कई विवादों को भी छुआ है जिन पर अभी तक सार्वजनिक रूप से चर्चा नहीं हुई है.
किसी भी इस्लामी देश में लोगों द्वारा चुनी गई पहली महिला प्रधानमंत्री की हैसियत से बेनज़ीर भुट्टो का इतिहास में अपना एक अलग स्थान है.
ज़िंदादिल दोस्त
ऑक्सफ़ोर्ड में उनसे दो साल सीनियर श्याम भाटिया ने बेनज़ीर की उठापटक भरी ज़िंदगी को बहुत नज़दीक से देखा है. श्याम भाटिया 'ऑब्ज़र्वर' अख़बार के विदेश मामलों के पूर्व संवाददाता और भारत के जानेमाने पत्रकार प्रेम भाटिया के पुत्र हैं.
बेनज़ीर की पढ़ाई के दिनों से उनके परिचित रहे श्याम भाटिया ने यह किताब लिखी है |
श्याम कहते हैं, "बेनज़ीर ज़िंदादिल थीं. उनके कई दोस्त थे. कभी-कभी वे अपनी स्पोर्ट्स कार से ऑक्सफ़ोर्ड से लंदन चली जाती थीं. दोस्तों को ले जाती थीं कि चलो लंदन देखेंगे, फ़िल्म देखेंगे."
श्या बताते हैं, "अगर वो टेलीफ़ोन पर नहीं मिलती थीं तो हमलोग संदेश लिखकर उनकी कार की शीशे पर चिपका देते थे कि हमारा नंबर ये है, हमें बात करनी है, हमें फ़ोन कीजिए. बहुत दिलचस्प औरत थीं वो. दोस्तों की दोस्त. दुश्मन तो उनके कोई थे ही नहीं."
जुल्फ़ेकार अली भुट्टो शुरू से ही बेनज़ीर को राजनीति में लाना चाहते थे. जब वो शिमला समझौता करने 1972 में भारत आए तो अपने साथ हॉवर्ड से पढ़कर लौटीं 18 वर्षीय बेनज़ीर को भी लाए थे.
बे-नज़ीर बेनज़ीर
श्याम लिखते हैं कि भारत में बेनज़ीर को इस हद तक सर आँखों पर लिया गया कि एक अख़बार ने सुर्खी लगाई 'बेनज़ीर इज़ बेनज़ीर' यानी बेनज़ीर अतुलनीय है.
दोस्तों की दोस्त...
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मैंने जुल्फ़ेकार अली भुट्टो के प्रेस सचिव रहे और इस समय वाशिंगटन में रह रहे ख़ालिद हसन से बात की जो 1972 में शिमला आए पाकिस्तानी प्रतिनिधिमंडल के सदस्य थे.
ख़ालिद बताते हैं, "मुझे बीबी (बेनज़ीर भुट्टो) की देखभाल के लिए कहा गया था. ये देखना था कि कोई अख़बार वाला उनसे बात न करे. भुट्टो साहब नहीं जाना चाहते थे तो बेनज़ीर को 'पाकीज़ा' फ़िल्म दिखाने के लिए मुझे ले जाने को कहा."
ख़ालिद हसन बताते हैं, "हमने माल रोड पर सैर की, कुछ किताबें ख़रीदीं. इतिहास में भुट्टो साहब की बड़ी रुचि थी. बाइस किताबें ख़रीदीं जिसमें एक-दो किताब पंडित जवाहरलाल नेहरू की भी थी."
ऑक्सफ़ोर्ड के बाद भी श्याम भाटिया बेनज़ीर से लगातार संपर्क में रहे और बेनज़ीर ने उनको कई बातें बताई लेकिन उनसे यह वादा भी लिया कि वो ये चीज़ें बेनज़ीर के जीते जी नहीं छापेंगे.
कैसे मिली मिसाइल
सबसे सनसनीखेज़ बात श्याम भाटिया ने अपनी पुस्तक में जो उठाई है वो ये कि वो उत्तर कोरिया के मिसाइल कार्यक्रम के बदले पाकिस्तानी परमाणु कार्यक्रम की सीडी ख़ुद लेकर प्योंगयौंग गई थीं.
बेनज़ीर ने भी हत्या से कुछ दिन पहले अपनी ज़िदगी पर एक किताब लिखी थी |
श्याम बताते हैं, "बेनज़ीर ने मुझसे कहा कि मैं तुम्हें एक बात बताना चाहती हूँ जो बहुत गुप्त है. जब तक मैं ज़िंदा हूँ, इसे किसी को बताना नहीं. मैं हैरान कि पता नहीं वो क्या बताना चाहती हैं.
बकौल श्याम भाटिया बेनज़ीर ने उनसे कहा कि उनके पिता पाकिस्तान के परमाणु कार्यक्रम के पिता हैं लेकिन मिसाइल कार्यक्रम की माँ वो ख़ुद हैं.
श्याम ने बताया, "बेनज़ीर ने मुझसे कहा कि उत्तर कोरिया पाकिस्तान के परमाणु कार्यक्रम की ख़ुफ़िया जानकारी चाहता था. उन्होंने वहाँ जाने से पहले अपने ख़ुफ़िया प्रमुख और वैज्ञानिकों से बात की और यूरेनियम संवर्द्धन तकनीक जैसी जानकारी को एक सीडी में लेकर अपनी जेब में छुपाकर राजकीय यात्रा पर प्योंगयौंग गईं."
किताब के लेखक कहते हैं, "बेनज़ीर ने कहा कि वहाँ की सरकार बहुत ख़ुश हुई कि पाकिस्तानी प्रधानमंत्री ज़रूरी जानकारी ले आई हैं. उसके बदले में उन्होंने बेनज़ीर को अपनी नो-डॉंग मिसाइल के बारे में जानकारी दी और वो बेनज़ीर अपने साथ लेकर पाकिस्तान लौटीं."
श्याम ने कहा कि जब उन्होंने बेनज़ीर की एक बहुत वरिष्ठ सलाहकार को यह बात बताई तो उन्होंने कहा कि बेनज़ीर ने आपको सिर्फ़ आधी कहानी बताई है.
श्याम के मुताबिक़ उस सलाहकार ने उन्हें बताया कि जब बेनज़ीर उत्तर कोरिया से लौटीं तो वो अपने साथ विमान पर ही पूरा का पूरा नो-डॉंग मिसाइल ले आईं.
प्रधानमंत्री ऐसा नहीं करते
जब हमने ख़ालिद हसन से पूछा कि इस बात को आप कितना सच मानते हैं तो उनका कहना था कि श्याम भाटिया अपनी किताब को बेचने के लिए ये कहानी सुना रहे हैं क्योंकि आम तौर पर प्रधानमंत्री इस तरह की सूचनाओं के लिए वाहक का काम नहीं करते.
जेब में ले गईं जानकारी...
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ख़ालिद बताते हैं, "उन्होंने ख़ुद अपनी किताब में लिखा है और कई बार कहा है कि पाकिस्तान ने उत्तर कोरिया से नो-डॉंग मिसाइल के डिज़ाइन लिए और उसके पैसे दिए. हो सकता है कि बेनज़ीर मज़ाक कर रही हों."
ख़ालिद हसन कहते हैं, "अगर उत्तर कोरिया को कुछ देना भी था तो उसे प्रधानमंत्री अपने बैग में क्यों ले जाएँगी. इस तरह की चीज़ें 'कूटनीतिक बैग' के ज़रिए भेजी जाती हैं जिसे आम तौर पर खोला नहीं जाता. प्रधानमंत्री किसी चीज़ का वाहक नहीं होता."
भारतीय पत्रकार इंदर मल्होत्रा भी भारत-पाकिस्तान के मामलों पर पैनी नज़र रखते हैं.
उनका कहना है कि हो सकता है कि श्याम मामले को थोड़ा बढ़ा-चढ़ाकर पेश कर रहे हों लेकिन ऐसा निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि ऐसा नहीं हुआ होगा.
कुछ तो है सच्चाई
इंदर कहते हैं, "इसमें कुछ बुनियादी सच्चाई ज़रूर रही होगी. इसमें कोई शक नहीं है कि बेनज़ीर पहले उत्तर कोरिया गई थीं और उसके बाद पाकिस्तान के परमाणु वैज्ञानिक अब्दुल क़दीर ख़ान 12-13 बार वहाँ गए."
बेनज़ीर कई साल देश से बाहर रहने के बाद पिछले साल ही पाकिस्तान लौटी थीं |
उनका कहना है, "बेनज़ीर जेब में डालकर सीडी ले गईं या नहीं लेकिन बुनियादी बात ये थी कि उत्तर कोरिया पाकिस्तान को मिसाइल दे और वे उन्हें यूरेनियम संवर्द्धन तकनीक की जानकारी दें."
श्याम भाटिया बेनज़ीर को ये कहते हुए भी बताते हैं कि पाकिस्तान के पास 1977 के आसपास ही परमाणु बम आ गया था और उन्हें इस बात का अंदेशा था कि उनके पिता को फाँसी पर चढ़ाने के बाद जनरल ज़िया परमाणु परीक्षण करवाएँगे.
ज़ुल्फ़ेकार अली भुट्टो के बहुत क़रीबी रहे ख़ालिद हसन से जब ये पूछा गया कि ये बात कहाँ तक सच हो सकती है तो उनका कहना था, "बिल्कुल ग़लत बात है. पाकिस्तान के पास 1977 में कुछ भी नहीं था. उसने पहला कोल्ड टेस्ट (प्रयोगशाला में परीक्षण) 1983 में किया था. काम चल रहा था लेकिन 74 या 75 में उनके पास ऐसी क्षमता नहीं थी."
राजीव और सियाचिन
इस किताब में 1988 में राजीव गाँधी की पाकिस्तान यात्रा का भी ज़िक्र है जिसमें बकौल बेनज़ीर उन्होंने पंजाब में सिख आतंकवाद को समर्थन न देने का फ़ैसला किया था.
तकनीकों का लेन-देन...
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बदले में भारत को सियाचिन से अपनी सेना हटानी थी लेकिन राजीव गाँधी ये वादा नहीं पूरा कर पाए क्योंकि वो अगला चुनाव हार गए.
श्याम भाटिया ने बेनज़ीर के हवाले से एक और रहस्योद्घाटन किया है कि 1979 में भुट्टो को फाँसी देने के बाद उनके कपड़े उतारकर उनके गुप्ताँगों की तस्वीर ली गई थी. इस तरह से यह देखा गया था कि उनका ख़तना हुआ था.
श्याम भाटिया बताते हैं, "बेनज़ीर ने रोते हुए बताया था कि फाँसी देने के बाद फ़ौजियों ने यह देखने के लिए कि वे हिंदू हैं या मुसलमान, उनके पिता के कपड़े उतरवाकर पड़ताल की थी. बेनज़ीर ने कहा था कि पापा के मरने के बाद भी फ़ौजियों ने उनकी इज्ज़त नहीं की."
दुखद अंत
जेल में भुट्टो साहब के प्रभारी थे कर्नल रफी. उन्होंने उर्दू में एक किताब लिखी है जिसमें इन बातों की पुष्टि की है. हालाँकि जब मैंने इसका ज़िक्र भुट्टो से प्रेस सचिव रहे ख़ालिद हसन से किया तो उन्होंने इसका ज़ोरदार खंडन किया.
इस किताब के मुताबिक फाँसी के बाद जुल्फ़िकार अली भुट्टो के गुप्तांगों को देखा गया था |
ख़ालिद कहते हैं, "फाँसी के समय मौजूद रहे कई लोगों से मैंने इसकी पड़ताल की लेकिन इसमें कोई सच्चाई नहीं निकली. बेकार की पत्र-पत्रिकाओं में ये बात कही जाती रही लेकिन ये सच नहीं है."
इन विवादों को छोड़ दिया जाए तो इस किताब में भुट्टो परिवार से जुड़े कई पहलुओं को छुआ गया है. श्याम भाटिया ने उनकी राजनीतिक ज़िंदगी की तुलना में उनकी निजी ज़िंदगी को कहीं बेहतर ढंग से छुआ है.
बेनज़ीर उर्फ़ बीबी उर्फ़ पिंकी उर्फ़ मोहतरमा की ज़िंदगी परियों की शहज़ादी जैसी थी. उनके दुखद अंत के बावजूद
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