Saturday, 27 June 2015

वे जो रास्ता दिखाएंगे @रामचंद्र गुहा

इस महीने की शुरुआत ही एक रहस्य से पर्दा उठने के साथ हुई। दरअसल खुफिया ब्यूरो (आईबी) की लीक हो चुकी रिपोर्ट में यह आरोप लगाया गया कि गैर-सरकारी संगठनों (एनजीओ) का एक समूह भारत के आर्थिक विकास की राह में रोड़े अटका रहा था। यह रिपोर्ट पढ़ने के बाद मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि इस स्थिति को भ्रम की तरह नहीं, बल्कि बड़े संकट से पूर्व की चेतावनी की तरह लिया जाना चाहिए।

जैसा कि एक प्रतिष्ठित अंग्रेजी अखबार का संपादकीय लिखता है, 'आईबी की रिपोर्ट गैर-सरकारी संगठनों को लेकर ऐसे वक्त में अविश्वास और पूर्वाग्रह के माहौल का जन्म देगी, जबकि भारत को सामाजिक क्षेत्र में इनकी सबसे ज्यादा जरूरत है।' गौरतलब है कि तमाम एनजीओ ऐसे क्षेत्रों के वंचित वर्गों को अपनी सेवाएं देते आए हैं, जहां या तो सरकार की पहुंच मुमकिन नहीं हो पा रही, या वह जानबूझकर पहुंचना नहीं चाह रही। अपने संपादकीय के जरिये इस अखबार ने सरकार से आग्रह किया कि वह एनजीओ को अपने प्रयासों का विरोधी नहीं, बल्कि पूरक मानें।

संयोग से, जब आईबी की इस रिपोर्ट का खुलासा हुआ, तब मैं गांधी के अखबार 'हरिजन' के पुराने अंक पलट रहा था। तभी इसमें मुझे एक दिलचस्प लेख पढ़ने को मिला, जो आईबी की लीक रिपोर्ट से उपजी बहस से संबंधित था। ‌हरिजन के एक फरवरी, 1948 के अंक में छपे इस लेख का शीर्षक था, 'महामहिम का विरोध'। इसे लिखा था अर्थशास्‍त्री जे सी कुमारप्पा ने, जो कि गांधी के काफी करीब थे, और 1929 के बाद से उनके सबसे नजदीकी लोगों में से थे। वह कई बार जेल गए, मगर राजनीति से इतर क्षेत्रों में अपने योगदान के लिए उन्हें ज्यादा ख्याति मिली। उन्होंने जल संरक्षण, जैविक खेती और विकेंद्रीकृत वन प्रबंधन पर जोर दिया, तथा ग्रामीण उद्योगों को पुनर्जीवित करने के लिए वह लगातार सक्रिय रहे।

आजादी के बाद तमाम कांग्रेसी सरकार में शामिल हुए। मगर कुमारप्पा ने मंत्री तो छोड़ें सांसद तक बनने से इनकार कर दिया। वजह यह थी कि वह भारत के नए और उभरते हुए लोकतंत्र में सामाजिक कार्यकर्ताओं की महत्वपूर्ण भूमिका को समझ रहे थे। उनके मुताबिक जैसे तट नदियों को थामे रखते हैं, वैसे ही राजनेताओं को सजग बनाए रखने की जिम्मेदारी सामाजिक कार्यकर्ताओं की होती है। दरअसल कुमारप्पा की सोच थी कि देश की सरकार को बतौर परामर्श निर्देश देने की जिम्मेदारी उन ताकतों की होनी चाहिए, जो औपचारिक सरकारी क्षेत्र से ताल्लुक न रखती हों।

गौरतलब है कि आजादी से पहले कांग्रेस को मुस्लिम लीग से कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ा था। मगर विभाजन के बाद हालात बदले, और सत्तारूढ़ दल के लिए विरोधियों की चुनौतियां भी कम हुईं। संविधान सभा में कांग्रेस का दबदबा था, और लगने लगा था कि भविष्य में गठित होने वाली संसद में भी उसी का प्रभुत्व बना रहेगा। कुमारप्पा को चिंता थी कि यह स्थिति पार्टी को लापरवाह, और कुछ हद तक अहंकारी बना देगी। इसी वजह से वह रचनात्मक कार्यकर्ताओं को बड़ी भूमिका देने के समर्थक थे।

कुमारप्पा ने अपने साथी समाज सेवकों से कहा, 'हमारा उद्देश्य मंत्रियों की जगह लेना नहीं, बल्कि उस मॉडल की बात करना है,जिसका उन्हें पालन करना चाहिए। कार्यकर्ताओं को उचित माध्यम और उदाहरणों के जरिये सरकार को निर्देश देना चाहिए।' उनका यह भी मानना था कि सामाजिक कार्यकर्ताओं का एक व्यवस्थि‌त समूह सरकार के लिए एक निर्देशक की भूमिका में होगा। बकौल कुमारप्पा,'लोगों की सेवा ही उनकी प्रेरणा होगी, और उनके काम की गुणवत्ता ही उनका चार्टर। मंत्रिगण ऐसे निकाय से प्रेरणा लेंगे, जो केंद्र और राज्य सरकारों को जरूरी सलाह और मार्गदर्शन देगा।'

इंग्लैंड जैसे पुराने लोकतंत्रों में संसद में एक ताकतवर विपक्ष होता था। मगर भारत में एक पार्टी का प्रभुत्व होने से सरकार पर राजनीतिक नियंत्रण की प्रभावी व्यवस्‍था कायम नहीं हो सकी। इसीलिए कुमारप्पा लिखते हैं, 'रचनात्मक कार्यकर्ताओं का ‌‌यह निकाय लोगों को शोषण के खिलाफ सुरक्षा देगा। सरकारी कामों पर नजर रखकर और खुद आदर्श बनकर यह निकाय सरकार को ईमानदार बने रहने और लोगों का कल्याण करने का दबाव बनाएगा, और इस तरह सही मायनों में जन-जन के लिए स्वराज की अवधारणा को साकार करेगा।' कुमारप्पा का यह लेख हरिजन में 24 जनवरी, 1948 को छपा, जिस पर गांधी की टिप्पणी भी लेख के साथ ही प्रकाशि‌त हुई। गांधी ने लिखा, 'यह बेहद आकर्षक विचार है, मगर यह भी स्वीकारना होगा कि इसे अंजाम देने वाले निःस्वार्थ और सक्षम कार्यकर्ताओं की भारी कमी है। ' इसके पांच दिनों के बाद गांधी ने जो कहा, उससे पता चलता है कि कुमारप्पा के विचार कहीं न कहीं उनके दिमाग में थे। गांधी की सलाह थी कि कांग्रेस खुद को भंग कर रचनात्मक कार्यकर्ताओं के ऐसे निकाय के तौर पर अपना पुनर्गठन करे, जिसकी इकाइयां पूरे भारत में फैली हुई हों, और इसका नाम हो, 'लोक सेवक संघ'। अगले ही दिन, इससे पहले कि इस विचार पर बहस हो सके, गांधी की हत्या हो गई।

66 वर्ष बाद आज फिर से कुमारप्पा के विचार प्रासंगिक दिखने लगे हैं। एक बार फिर नई दिल्ली में एक पार्टी का प्रभुत्व है, और उसके सामने एक बिखरा और कमजोर विपक्ष है। 1947-48 में गांधी ने भारत में निःस्वार्थ कार्यकर्ताओं की कमी की ओर इशारा किया था। मगर आज हमारी सिविल सोसाइटी काफी मजबूत और व्यापक आकार ले चुकी है। हालांकि इस क्षेत्र में कपटी लोगों की कमी नहीं, मगर यह भी सच है कि ऐसे सैकड़ों समूह शिक्षा, स्वास्‍थ्य, ग्रामीण विकास, सड़क सुरक्षा, पर्यावरण संरक्षण और हमारी जिंदगी के लिए जरूरी दूसरे तमाम क्षेत्रों में उत्कृष्ट काम कर रहे हैं। इसमें संदेह नहीं कि भारतीय राजनीति में संसद की केंद्रीय भूमिका बनी रहेगी। मगर उम्मीद की जानी चाहिए कि विपक्ष सरकार की नीतियों की रचनात्मक आलोचना करने में कोई कसर नहीं छोड़ेगा।

सिविल सोसाइटी को भी अपनी भूमिका के प्रति सजग रहने की जरूरत है। अपने कार्यक्षेत्र पर फोकस रखते हुए सामाजिक कार्यकर्ताओं को मंत्रियों और सिविल सेवकों को दिशा दिखानी चाहिए, और सरकारी कार्यक्रमों का इस आधार पर आकलन करते रहना चाहिए कि क्या वे सही अर्थों में कल्याणकारी साबित हो रहे हैं। इनमें से एक सिविल सोसाइटी समूह है, जो पहले ही नई सरकार में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। यह है, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ। संघ का सदस्य होने के नाते केंद्रीय कैबिनेट के बहुत से मंत्री इसी निकाय से मार्गदर्शित होंगे। मगर इस लेख में मैं उन व्यक्तियों और समूहों की जरूरत पर बात कर रहा हूं, जो किसी खास पार्टी और राजनीतिक या धार्मिक विचारधारा से जुड़े न हों। ऐसे स्वतंत्र सामाजिक कार्यकर्ता ही, कुमारप्पा के शब्दों में, 'कवच बनकर शोषण के खिलाफ आम जनता की रक्षा कर पाएंगे।

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