मणिपुर के चंदेल जिले में हाल ही में उग्रवादियों द्वारा किया गया हमला अपनी तरह के सबसे घातक हमलों में से एक था। उग्रवादियों ने रॉकेट लांचरों से दागे गए ग्रेनेडों और स्वचालित हथियारों का इस्तेमाल करते हुए भारतीय सेना के 18 से अधिक सैनिकों को मार गिराया था, जबकि 12 अन्य इससे बुरी तरह घायल हो गए थे। यह एक चौंकाने वाला हमला था, क्योंकि मणिपुर-नगालैंड के अशांत क्षेत्र में उग्रवादियों की हरकतों में हाल के दिनों में खासी कमी आ गई थी। ताजा हमले की जिम्मेदारी वर्ष 1988 में गठित नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालैंड-खपलांग (एनएससीएन-के) ने ली है। इस हमले के तात्कालिक कारणों का पता नहीं चल सका है, लेकिन इससे इतना तो पता चल ही गया कि देश के पूर्वोत्तर में उग्रवाद की आग अभी भी सुलग रही है।
बहरहाल, अगर उग्रवादी हमला अनपेक्षित था, तो उसके जवाब में भारतीय सेना द्वारा की गई मुंहतोड़ कार्रवाई तो पूरी तरह से अप्रत्याशित ही थी! 9 जून को भारतीय सशस्त्र सेनाओं ने सुनियोजित रणनीति के तहत मणिपुर में हमले के जिम्मेदार उग्रवादियों को मार गिराया और एनएससीएन-के सहित केवायकेएल धड़े के खेमों को नष्ट कर दिया। बताया जाता है कि भारतीय सेना की जवाबी कार्रवाई में कम से कम 50 उग्रवादी मारे गए हैं। सबसे खास बात यह कि इस सर्जिकल ऑपरेशन को म्यांमार की सीमा में कई किलोमीटर भीतर तक घुसकर अंजाम दिया गया था!
निश्चित ही, यह पहली बार नहीं है जब भारतीय सशस्त्र सेनाओं द्वारा किसी अन्य देश की सीमा पर या उसके भीतर प्रवेश कर इस तरह की कार्रवाई की गई हो, लेकिन बुनियादी फर्क यह है कि ताजा कार्रवाई को म्यांमार के हुक्मरानों की जानकारी में लाते हुए उसकी सीमा में बहुत भीतर घुसते हुए अंजाम दिया गया है। अलबत्ता जब म्यांमार के अधिकारियों को इस ऑपरेशन की सूचना दी गई थी, तब तक ऑपरेशन प्रारंभ भी हो चुका था। अभी तक म्यांमार की तरफ से इस संबंध में कोई अधिकृत बयान नहीं आया है, लेकिन चूंकि इस मामले में दुविधा की कोई गुंजाइश नहीं थी, इसलिए दिल्ली में बैठा राजनीतिक सत्तातंत्र इस बात को लेकर आत्मविश्वास से भरपूर नजर आ रहा है कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय में इस पर कोई नकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं होगी और न ही इससे भारत और म्यांमार के द्विपक्षीय संबंधों पर कोई असर पड़ेगा।
हकीकत तो यह है कि भारत की ही तरह म्यांमार भी स्वतंत्र होने के बाद से ही विभिन्न् उग्रवादियों की गतिविधियों से परेशान रहा है। 1950 के दशक में तो भारत ने म्यांमार की सैन्य सहायता भी की थी। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने तब इसके लिए यह दलील दी थी कि म्यांमार हमारा मित्र है और संकट के समय उसकी सहायता करना हमारा दायित्व। वर्ष 1951 में नेहरू और नू ने शांति और मित्रता की संधि पर हस्ताक्षर किए थे। और वर्ष 1994 में हुए एक करारनामे के तहत भारत और म्यांमार ने अनेक अवसरों पर साझा आतंकरोधी अभियानों को भी संचालित किया है।
लेकिन म्यांमार में भारत की ताजा कार्रवाई के बाद पूरी दुनिया को यह सशक्त संदेश चला गया है कि भारत अब अपनी धरती पर किसी भी तरह की आतंकवादी गतिविधि को बर्दाश्त करने को तैयार नहीं है। यह निश्चित ही हमारे उन चंद पड़ोसियों के लिए भी एक चेतावनी है, जो आतंक की पनाहगाह बने हुए हैं। यह सवाल जरूर अब भी अपनी जगह पर बना हुआ है कि क्या आज भारत म्यांमार जैसी ही कार्रवाई अन्य देशों में करने की स्थिति में है या नहीं। जो भी हो, ताजा कार्रवाई से इन सभी देशों को एक संदेश तो चला ही गया है और यह भी अपने आपमें कम नहीं है।
दूसरी तरफ पूर्वोत्तर में उग्रवाद की समस्या और म्यांमार की उसमें भूमिका को समझने के लिए हमें कुछ अन्य आयामों को समझना होगा। यह एक जानी-मानी बात है कि भारत को स्वतंत्रता मिलने के समय से ही पूर्वोत्तर उग्रवादी गतिविधियों से ग्रस्त रहा है। इस तरह के अंदेशे भी तब जताए जा रहे थे कि पाकिस्तान की तरह पूर्वोत्तर के राज्य भी नस्ली आधार पर भारत से अलग हो सकते हैं।
पूर्वोत्तर में अगर इतने सालों से उग्रवादी गतिविधियां निरंतर संचालित हो रही हैं तो इसके पीछे चीन की भी भूमिका है, जो उग्रवादी संगठनों का सहयोग करता रहा है। 1970 के दशक में पूर्वोत्तर का क्षेत्र नशीली दवाइयों के कारोबार का अड्डा बन गया। इसी दौरान नक्सली कार्रवाइयां भी खासी बढ़ीं और पूर्वोत्तर का क्षेत्र भीषण रूप से संकटग्रस्त हो गया। वियतनामियों का मुकाबला करने के लिए चीन ने कंबोडिया के खमेर रॉउग को लाखों हथियारों की सप्लाई की थी। बाद में इन हथियारों का एक बड़ा कालाबाजार निर्मित हो गया और इन्हें भारत सहित नेपाल और श्रीलंका भी पहुंचाया जाने लगा। लेकिन मूलत: केंद्र में एक मजबूत सरकार के अभाव के कारण पूर्वोत्तर की समस्याओं पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया जा सका। वहां पर भीषण आर्थिक समस्याएं हैं, बुनियादी ढांचे के सवाल हैं और नस्ली टकराव हैं। लेकिन यह इलाका भारत में मुख्यधारा से लगभग कटा हुआ-सा ही रहा है। शिक्षा और रोजगार की स्थिति बदहाल है और आर्थिक विकास के लाभ भी वहां तक नहीं पहुंच सके हैं।
ऐसा नहीं है कि केंद्र से पूर्वोत्तर के लिए पैसा नहीं भेजा जाता, लेकिन भ्रष्टाचार का यह आलम है कि वह सारा पैसा बीच में ही हजम कर लिया जाता है। मिसाल के तौर पर सीमा सड़क संगठन द्वारा मणिपुर को म्यांमार से जोड़ने वाले 160 किमी लंबी तामु-कलेवा-कालेम्यो सड़क के निर्माण पर 100 करोड़ रुपए खर्च किए गए थे और बड़े जोर-शोर से वर्ष 2001 में इसका उद्घाटन किया गया था, लेकिन आज यह सड़क लगभग लुप्तप्राय हो चुकी है और किसी को भी उसके रखरखाव की चिंता नहीं है। ऐसे में पूर्वोत्तर की समस्याओं का दीर्घकालीन विवेकपूर्ण समाधान तो यही होगा कि वहां व्याप्त असंतोष को समझने की कोशिश करते हुए उसका समुचित हल खोजने की कोशिश की जाए।
(लेखक दक्षिण एशियाई मामलों के विशेषज्ञ और जेएनयू में प्राध्यापक हैं।
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