वामपंथी कहते हैं कि पहले तय हो कि राष्ट्रीय मुख्यधारा क्या है |
भारत के इतिहास में ऐसे कई मौके आए है जब वामपंथियों ने राष्ट्रीय मुख्यधारा से बिल्कुल अलग रुख़ अपनाया है.
इस बार परमाणु मुद्दे पर भी वामपंथी दलों का सुर कुछ और ही है. उन्होंने समर्थन वापसी की बात तो नहीं कही है लेकिन सरकार को अपनी राय और रुख़ से अवगत कराते हुए चेतावनी ज़रूर दी है.
कई हल्कों में ये आवाज़ उठती रही है कि वामपंथियों का यह रुख़ आम लोगों की राय को प्रतिबिंबित नहीं करता.
हमने ऐसे समय में जानने की कोशिश की कि भारत की वास्तविकताओं से कितना दूर या पास है वामपंथ.
जैक गलाघेर नाम के एक इतिहासकार हुए हैं. उन्हें अक्सर यह कहते सुना जाता था कि जिस तरह राष्ट्रवाद अपने अभिभावकों को निगल जाता है उसी तरह साम्यवाद भी अपनी स्वयं की विचारधारा तक को नहीं बख़्शता.
अमरीका से दोस्ती
साम्यवाद ने कभी भी राष्ट्र की सीमाओं को मान्यता नहीं दी. लेकिन परमाणु मुद्दे की बात पर भारतीय साम्यवादी अपने आप को राष्ट्रीय प्रभुसत्ता के रहनुमा के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं.
उनकी नज़र में भारत का अमरीका के साथ हाथ मिलाना भारत की प्रभुसत्ता के साथ खिलवाड़ करना है.
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी(सीपीआई) के अतुल अंजान कहते हैं, “अमरीका तो जिससे हाथ मिलाता है, उसी के हाथ तोड़ देता है. देखा नहीं अमरीका अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के साथ हाथ मिलाया था. अफ़ग़ानिस्तान का क्या हाल कर दिया. इराक़ के साथ हाथ मिलाया और इराक़-ईरान को दस साल तक आपस में लड़ाकर तबाह कर दिया और उसके बाद फिर इराक़ को तबाह करने के लिए वहाँ पहुँच गया. अमरीका क्या कर रहा है फ़लस्तीन और लेबनान में. भारत अमरीका की विदेश नीति का हिस्सा क्यों बने."
परमाणु करार पर वामपंथी नेताओं ने केंद्र सरकार को अपनी राय बता दी है |
वो आगे कहते हैं, "भारत तो वसुधैव कुटुम्बकम में विश्वास करता है. सबके साथ मित्रता की बात करता है. क्या भारत को भूटान, मालदीव, बांग्लादेश और श्रीलंका से ख़तरा हो गया है जो अमरीका की सेनाएँ हिंद महासागर में आकर खड़ी होंगी.”
वामपंथियों के आलोचक कहते हैं कि परमाणु मुद्दे पर भारत की परेशानियों को वह बढ़ा-चढ़ाकर पेश कर रहे हैं और वास्तव में इस समझौते से भारत फ़ायदे में ही रहा है.
नफ़ा-नुकसान
वरिष्ठ पत्रकार उदय सिन्हा वामपंथियों के रूख़ को अव्यवहारिक मानते हैं.
वो कहते हैं, "मुझे समझ नहीं आता कि कोई परमाणु समझौते पर कैसे इंकार कर सकता है. यह परमाणु समझौता भारत के हक़ में हैं. 1974 में हमने परमाणु परीक्षण किया था और तब से हम परमाणु ताकत हैं. लेकिन कोई मानता नहीं कि हम परमाणु ताकत हैं. इसके बाद भी हम एक अनुशासित ताकत की तरह व्यवहार करते रहे हैं. अब जब आगे जाकर इस बात पर मुहर लगने की बारी आई तो पता नहीं ये लोग ऐसा ख़ुद के लाभ के लिए कर रहे हैं या चीन के लाभ के लिए."
उदय सिन्हा आगे कहते हैं, "वामपंथियों ने इससे पहले इतना मज़ा नहीं किया और इस सरकार में अपनी हैसियत होने की बात वामपंथी स्वीकार भी करते हैं लेकिन इसके बावजूद उन्हें संतोष नहीं है. वो सरकार को अपने अंगूठे के नीचे रखना चाहते हैं. अब ये कौन सी बात हुई कि बैठक में भाग लेने जाइए लेकिन इस बारे में कोई बात नहीं कीजिए.”
स्वभाव
शायद ये पहला मौका नहीं है जब वामपंथी राष्ट्रीय स्वभाव को पढ़ पाने में असफल रहे हैं. भारत छोड़ो आंदोलन के समय की बात ही लीजिए.
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने इस आधार पर भारत छोड़ो आंदोलन का समर्थन न करने का फ़ैसला किया कि उस समय सोवियत संघ हिटलर के नाज़ी जर्मनी के ख़िलाफ़ ब्रिटेन के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़ रहा था.
अंग्रेज़ी दैनिक अख़बार 'द पायनियर' के संपादक चंदन मित्रा कहते हैं, "शुरू से लेकर आज तक कम्युनिस्ट पार्टियाँ जो रवैया अपनाती रही हैं उसमें उनकी अंतरराष्ट्रीय सोच का प्रभाव ज़रूर मिलता है. चाहे वह 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन और गाँधी जी का विरोध रहा हो, चाहे 1962 में चीन के भारत पर आक्रमण के दौरान वामपंथियों के एक वर्ग ने चीन की तरफ़दारी की जिसके चलते पार्टी में विभाजन हो गया."
चंदन मित्रा आगे कहते हैं, "कुछ दिन पहले मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी (सीपीएम) के पोलित ब्यूरो में कुछ नेताओं ने कहा कि भारत को अपने खनिज पदार्थ ख़ासकर कच्चे लोहे का चीन के अलावा कहीं निर्यात नहीं करना चाहिए.”
दूसरी ओर वामपंथी विचारक अचिन वनायक मानते हैं कि 1942 में राष्ट्रीय धारा से जुड़ न पाना साम्यवादियों की ग़लती थी. लेकिन यह कहना सही नहीं है कि 1964 में कम्युनिस्ट पार्टी का विभाजन चीन को आक्रान्ता मानने के मुद्दे पर हुआ था.
कई मुद्दों पर वामपंथी पार्टियाँ का रुख़ अलग-अलग रहा है |
अचिन कहते हैं, "ये जो भूमिका इन्होंने तब अपनाई थी, बिल्कुल ग़लत थी और इसकी आलोचना सिर्फ़ कांग्रेस या दूसरे लोग ही नहीं कर रहे थे बल्कि उनके अपने खेमे में भी हो रही थी. ये वामपंथियों का वो धड़ा था जो स्टालिनवाद को नहीं मानता था और सोवियत यूनियन या चीन के साथ जुड़ा हुआ नहीं था."
वो आगे कहते हैं, "साम्यवादी आंदोलन में विभाजन की वजह यह नहीं थी कि उसका एक भाग चीन के साथ गया था और दूसरा भाग रूस के साथ. विभाजन की मुख्य वजह यह थी कि कम्युनिस्ट पार्टी के अंदर कांग्रेस के साथ संबंधों को लेकर अलग-अलग मत थे."
उनका कहना है,"एक धड़ा जो बाद में सीपीआई बना उसका कहना था कि हमें काफ़ी हद तक कांग्रेस से नज़दीकी संबंध रखना चाहिए क्योंकि कांग्रेस एक प्रगतिशील राष्ट्रीय बुर्ज़ुआ के साथ जुड़ा हुआ है और दूसरा धड़ा जो बाद में सीपीएम बना वह चाहता था कि कांग्रेस से कुछ दूरी बनाकर रखी जाए. जो सीपीएम चीन के साथ था उसी ने चीन के अमरीका के साथ 1970 के दशक में समझौते करने पर चीन का विरोध किया था.”
आज़ादी का विरोध
अगर 1962 की बात जाने भी दी जाए तो 1948 में भारत की आज़ादी के बाद बीटी रणदवे के नेतृत्व में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने लाइन ली कि यह आज़ादी झूठी है. बात यहाँ तक गई कि इसका विरोध करने पर पीसी जोशी को पार्टी से निकाल तक दिया गया.
जब भारत ने 1998 में परमाणु विस्फोट किया तो वामपंथियों ने उसका विरोध किया और कई राजनैतिक विश्लेषकों ने उनकी यह कहकर आलोचना की कि वो राष्ट्रीय हितों और वास्तविकताओं से काफ़ी दूर चले गए हैं.
इस बारे में वामपंथी विचारक अचिन वनायक कहते हैं, “राष्ट्रीय स्वभाव और राष्ट्रीय हित एक बेहद ढीली और बेकार अवधारणा है. यह केवल उच्च और मध्य वर्ग का स्वभाव है जो भारत की आबादी का सिर्फ़ 15 से 20 फ़ीसदी हैं. अगर आप आम जनता के पास जाएँ और उनसे बात करें तो ज़्यादातर लोग तो इस समझौते को नहीं समझते हैं. उनकी आम ज़िंदगी में रोज़मर्रा की बहुत सी मुश्किलें हैं. यह राष्ट्रीय हित का ख़्याल इस सोच पर आधारित है कि राज्य पूरे देश के हित में सोचता है. मगर लोकतांत्रिक राज्य में भी कितना मतभेद है, संरचना में कितनी असमानता है. राज्य उच्च वर्ग का, उच्च जातियों का, मर्दों के हितों के लिए काम करता है. लेकिन हम हमेशा कहते हैं कि राज्य सबके हित के लिए काम करता है. एक सरल वाक्य में कहूँ तो अमरीका दुनिया का सबसे तगड़ा लोकतांत्रिक राज्य है लेकिन क्या इसका ग़रीब अश्वेतों से उतना ही संबंध है जितना कॉर्पोरेट क्षेत्र से.”
एक और साम्यवादी नेता सुभाषिनी अली का मानना है कि पहले ये तय होना चाहिए कि राष्ट्रीय मुख्यधारा क्या है और इसके बाद इस पर चर्चा होनी चाहिए कि वामपंथी राष्ट्रीय मुख्यधारा से जुड़ पाने में सफल नहीं रहे हैं.
सुभाषिनी अली कहती हैं, “ पहले हम इस पर चर्चा कर लें कि भारत की मुख्यधारा क्या है. अगर आप एसएमएस और ई-मेल भेजने वालों से ही मुख्यधारा का निर्धारण करते हैं तो हम आपके साथ सहमत नहीं हो सकते. हमारा यही कहना है कि जो मुद्दे आपने जनता के सामने नहीं रखे हैं और जिसकी सहमति जनता ने आपको नहीं दी है, उस पर आपको बहुत सोच-समझकर आगे बढ़ना चाहिए.”
विश्वसनीयता
सवाल उठता है कि अगर वामपंथी परमाणु मुद्दे पर अपनी बात मनवाने में सफल नहीं रहते और चुनाव की नौबत आती है तो क्या इसका ख़ामियाज़ा वामपंथियों को भुगतना पड़ सकता है.
उदय सिन्हा का मानना है कि इसकी नौबत नहीं आएगी.
वे कहते हैं, “मुझे नहीं लगता कि चुनाव होंगे. यह महज़ गीदड़-भपकी है और ये कभी भी समर्थन वापस नहीं लेंगे क्योंकि यदि ये लोग समर्थन वापस लेते हैं तो इन्हें भी इसकी भनक होगी कि इन पर विश्वसनीयता का संकट है. ये किसी भी दल के लिए एक कारगर सहयोगी की भूमिका नहीं निभा पाएँगे.”
दूसरी तरफ एक दृष्टिकोण यह भी है कि विदेश नीति के मुद्दे पर सरकार गिराना वामपंथियों के खिलाफ़ जाएगा.
अचिन वनायक कहते हैं, “किसी विदेश नीति के मुद्दे पर सरकार गिराना एक किस्म की कमज़ोरी है क्योंकि भारत का आम नागरिक विदेश नीति से जुड़ा हुआ नहीं है. कोई यह कहता है कि वामपंथियों का विरोध राष्ट्रीय स्वभाव के साथ जुड़ा नहीं है तो विदेश नीति से जुड़े मुद्दे हमेशा कुछ लोगों के ही हाथ में होते हैं. आम जनता का संबंध घरेलू मु्द्दों से ही अधिक होता है. आम जनता को तो पता ही नहीं है कि इस समझौते के तकनीकी पक्ष क्या-क्या हैं."
वो आगे कहते हैं, "इसलिए वामदलों को अगर सरकार को गिराने से कुछ फायदा उठाना है तो उनको एक प्रचार अभियान चलाना चाहिए. सिर्फ़ इसी मुद्दे पर नहीं बल्कि दूसरे घरेलू मुद्दों जैसे किसानों की आत्महत्या, ग़रीबी और असमानता. इन सब को जोड़कर एक लंबा अभियान चलाएँ और छह-सात महीने के बाद फिर देखें.”
कुछ भी हो वामपंथियों के अगले कदम को सभी राजनैतिक विश्लेषक ध्यान से देखेंगे. क्योंकि इस बार उनका कोई भी कदम यह तय करेगा कि भारतीय राजनीति में उनकी केंद्रीय भूमिका बरकरार रहती है या फिर वो एक बार फिर हाशिए पर जाने की तैयारी कर रहे हैं.
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