पिछले दिनों विपक्ष के नेता लालकृष्ण आडवाणी की प्रकाशित हुई आत्मकथा ‘माई कंट्री, माई लाइफ़’ लगातार सुर्खियों में है. इसमें कुछ विवादास्पद विषयों को छुआ गया है, लेकिन बहुत से सवाल अनुत्तरित छोड़ दिए गए हैं.
पश्चिम में आत्मकथाएँ अपने बारे में साफ़गोई से कहने का एक बहाना होती हैं, लेकिन भारत में अधिकतर आत्मकथाओं और जीवनियों में ये कशमकश होती है कि क्या कहा जाए और क्या न कहा जाए.
आजकल भारत में आत्मकथाओं और जीवनियों की बाढ़-सी आई हुई है. लेकिन जितना आप इन्हें पढ़ते हैं उतना ही इनके लिखने वालों के बारे में जिज्ञासा बढ़ती जाती है. कई बार तो इस पर कहानी बन जाती है जिसका किताब में कहीं ज़िक्र नहीं होता.
लालकृष्ण आडवाणी की किताब पर इसलिए भी नज़र जाती है क्योंकि आमतौर से राजनीति में सक्रिय लोग कम ही आत्मकथाएँ लिखते हैं. ऐसे समय में आडवाणी करीब 1,000 पृष्ठों की किताब लेकर आए हैं.
टाइमिंग पर सवाल
किताब की टाइमिंग पर कुछ लोग सवाल उठा सकते हैं. किताब में कहीं बेबाकी है, लेकिन कुछ महत्वपूर्ण मुद्दों पर आडवाणी चुप्पी लगा गए हैं.
राजनीतिक टीकाकार इंदर मल्होत्रा कहते हैं, “आडवाणी की किताब ऐसे वक़्त में छपी है जिसे बहुत अच्छा नहीं कहा जा सकता. लेकिन इसकी तारीफ़ मैं इसलिए करना चाहूंगा, क्योंकि हिंदुस्तान में राजनेता आमतौर पर अपनी आत्मकथा नहीं लिखते.”
मल्होत्रा कहते हैं, “आडवाणी कई मुद्दों को दबा गए हैं. अयोध्या समेत कुछ अहम मुद्दों पर साफ़गोई नहीं है. कंधार मामले में वे सच्चाई दबा गए हैं. ऐसा कैसे संभव है कि गृह मंत्री रहते हुए उन्हें पता ही नहीं कि जसवंत सिंह दहशतगर्दों के साथ कंधार जा रहे हैं.”
भारत में पूरी ईमानदारी के साथ अपनी बात कहने की संस्कृति नहीं है. निजी जिंदगी को पर्दे के भीतर रखना बेहतर समझा जाता है और राजनेता तो इस मामले में कुछ ज़्यादा ही सतर्क होते हैं.
जाने माने मनोविश्लेषक डॉक्टर संदीप वोहरा कहते हैं, “पहला तो यह कि आत्मकथा लिखने वाला खुद की छवि और नजदीकियों और चाहने वालों की छवि के बारे में काफ़ी कुछ सोचता है. दूसरे, कई बार व्यक्ति सोचता है कि अगर वो सच बता दे तो कहीं उसका बुरा प्रभाव आने वाली पीढ़ी पर न पड़े.”
वे कहते हैं, “भारत के लोग ज़्यादा भावुक होते हैं. इसलिए हर चीज को ढककर रखा जाता है.”
साफ़गोई नहीं
अब इसी बात को लीजिए कि पूर्व विदेश मंत्री जसवंत सिंह अपनी किताब में दावा करते हैं कि नरसिम्हा राव के ज़माने में प्रधानमंत्री कार्यालय में एक व्यक्ति होता था जो कि जासूस था लेकिन वो उसका नाम नहीं बताते.
लालकृष्ण आडवाणी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानी एनडीए सरकार में गृह मंत्री थे |
अपनी आत्मकथा ‘इंडिया विन्स फ्रीडम’ में मौलाना आज़ाद ने 30 पन्नों का प्रकाशन ये कहते हुए रोक दिया था कि देश इसके लिए तैयार नहीं है.
लेकिन जब 30 साल बाद 1988 में ये पत्र प्रकाशित हुए तो उनमें ऐसा कुछ नहीं था जो लोगों को पहले से पता नहीं था. लेकिन जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के पुष्पेश पंत को मौलाना आज़ाद का ये कदम ज़रा भी नागवार नहीं गुज़रता.
पुष्पेश कहते हैं, “30 साल का समय बहुत लंबा होता है. मौलाना का ये फैसला बहुत सही था. देश में जब दंगे हो रहे थे अगर ये पन्ने तब सार्वजनिक हो जाते तो इनका असर क्या होता?”
और भी उदाहरण
दूसरी तरफ़ इंदर मल्होत्रा भी कुछ उदाहरण देते हैं कि किस तरह नेहरू के नज़दीकी होने के बावजूद कुछ मामलों पर मौलाना आज़ाद के नेहरू से गंभीर मतभेद थे.
मल्होत्रा कहते हैं, “मौलाना के पंडितजी से दो मुद्दों पर गंभीर मतभेद थे. एक तो वो कहते रहे कि नेहरू की ग़लतियों से देश का बंटवारा हुआ. जब राजेंद्र प्रसाद के दूसरी बार राष्ट्रपति बनने की बात आई तो भी मौलाना की पंडितजी से अलग राय थी.”
अमृता प्रीतम ने अपनी जिंदगी के कई पहलुओं को अपनी आत्मकथा रसीदी टिकट में समेटा है |
ये तो रही बात राजनीतिज्ञों की राजनीति से. बाहर के लोग भी अपनी निजी ज़िंदगी के बारे में बताने में तकल्लुफ़ से काम लेते हैं.
पिछले दिनों छपी एक किताब में जब वैजंतीमाला बाली ने ये कहा कि राजकपूर के साथ उनका इश्क महज़ पब्लिसिटी स्टंट था तो इस पर ख़ासा बवाल मचा और राजकपूर के बेटे ऋषि कपूर ने इसका खंडन करते हुए इस संबंध के बारे में सार्वजनिक बयान दिए और कहा कि किस तरह इसका उनकी मां पर प्रतिकूल असर पड़ा था.
लेकिन ऐसा नहीं है कि भारत में ईमानदार आत्मकथाएँ लिखी ही नहीं गई. जानी मानी लेखिका उमा वासुदेव कहती हैं कि गांधी ने अपनी आत्मकथा माई एक्सपेरिमेंट विद् ट्रुथ में काफ़ी बेबाकी से लिखा है
उमा वासुदेव कहती हैं, “इंदिराजी ने अपनी आत्मकथा में काफ़ी साफ़ोगोई बरती है. उन्होंने अपनी आत्मकथा में दिलेरपन दिखाया.”
लेकिन यहां ये भी बताएँ कि महात्मा गांधी भी रविंद्रनाथ टैगोर की भतीजी सरला देवी के प्रति अपने अनुराग को नहीं लिख पाए जिसका जिक्र उनके पोते राजमोहन गांधी ने 2007 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘मोहनदास’ में किया है.
ईमानदार जिंदगीनामे
सबसे मार्मिक और बेबाक आत्मकथाओं की बात करें तो इंदर मल्होत्रा, नीरद सी चौधरी की ‘द स्टोरी ऑफ़ अननोन इंडियन’ को सबसे ऊंचा आंका जाता है.
पुष्पेश पंत का मानना है कि सत्तर के दशक में छपी अमृता प्रीतम की आत्मकथा ईमानदार जिंदगीनामे के सभी मापदंडों पर खरी उतरती है.
पुष्पेश कहते हैं, “अमृता प्रीतम ने अपने रिश्तों को छुपाने की कोशिश नहीं की है. कुल मिलाकर पढ़ने में मुझे उनकी जिंदगी काफी दिलचस्प लगी थी.”
पिछले दिनों पैट्रिक फ्रेंच की वीएस नायपॉल पर छपी किताब ने भी काफ़ी सुर्खियां बटोरी जिसमें बताया गया है कि अपनी पहली पत्नी के साथ उन्होंने कितना क्रूर व्यवहार किया.
खुशवंत सिंह की आत्मकथा ‘ट्रुथ, लव एंड लिटिल मेलिस’ छह साल तक सिर्फ़ इसलिए प्रकाशित नहीं हुई क्योंकि उसके एक अध्याय में मेनका गांधी का कुछ ऐसा जिक्र था जो उन्हें पसंद नहीं आया था.
कहने का मतलब ये है कि अगर आत्मकथाओं को उनकी भाषा, सच, दिलेरी और खुलेपन के हिसाब से आंका जाए तो बहुत कम कृतियां इस मापदंड पर खरी उतरेंगी
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