व्यक्तिगत जीवन की तरह कई बार राजनीतिक परिदृश्य में भी विडंबनाएं होती हैं। जिस वामपंथी विचारधारा ने मजहब के नाम पर देश के रक्तरंजित विभाजन में सक्रिय भूमिका निभाई हो, वह आज अपने आप को सांप्रदायिक सद्भाव का पुरोधा मानता है और उसके मापदंड तय करने का दावा भी करता है। भारतीय जनता पार्टी नीत राजग सरकार की एक साल की उपलब्धियां देश के साथ साझा करने के लिए प्रधानमंत्री मोदी ने पंडित दीनदयाल उपाध्याय के जन्मस्थान दीनदयाल धाम का चयन किया था। इसे मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी सांप्रदायिक सद्भाव के लिए खतरा बता रही है। उसके अनुसार इसके पीछे सरकार और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का अयोध्या, मथुरा और काशी को मुक्त कराने का एजेंडा है। मार्क्सवादी पार्टी का आरोप है कि इसी संदेश को जनता के बीच पहुंचाने के लिए प्रधानमंत्री मोदी ने गुजरात की सीट त्याग कर वाराणसी सीट से सांसद बनना स्वीकार किया।
दीनदयाल जी संघ के आदर्श स्वयंसेवक होने के साथ ही श्रेष्ठ राष्ट्रचिंतक और विचारक थे। 'एकात्म मानववाद' के सिद्धांत का प्रतिपादन कर पं. दीनदयाल जी ने आधुनिक राजनीति, अर्थव्यवस्था और राजनीति के लिए मानव कल्याण का एक भारतीय वैचारिक अधिष्ठान प्रस्तुत किया। दीनदयाल जी मानवीय मूल्यों पर आधारित आर्थिक प्रगति की वकालत करते थे। उनका कहना था, 'हम इस भारत की कर्मभूमि में कर्म करने के लिए पैदा हुए हैं। अगर देश में एक व्यक्ति भी दरिद्र, भूखा और उपेक्षित है तो उस समाज को विकसित और सभ्य नहीं कहा जा सकता है। इसलिए जिनके सामने रोजी और रोटी का सवाल है, जिन्हें न रहने के लिए मकान है और न तन ढकने के लिए कपड़ा, गांवों और शहरों के इन करोड़ों निराश भाई-बहनों को सुखी बनाना ही हमारा व्रत और कर्तव्य है।' प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में भाजपा सरकार विकास से वंचित समाज के उत्थान में जुटी है। इसलिए 'अंत्योदय' की प्रेरणा देने वाले दीनदयाल उपाध्याय की जन्मभूमि से बेहतर स्थान उस उद्देश्य के लिए और कौन हो सकता था? मथुरा में सांसद हेमा मालिनी ने प्रधानमंत्री को श्रीकृष्ण की प्रतिमा भेंट की थी। धर्म को जनता की अफीम बताने वाले मार्क्सवादियों के लिए यह भी सांप्रदायिक सद्भाव के खिलाफ है। मार्क्सवाद के प्रारंभिक प्रचारक जब भारत आए तो कुंभ मेले में जन-सैलाब को देखकर उन्हें बड़ी मायूसी हुई थी और उन्होंने तब ही यह मान लिया था कि इस अध्यात्म प्रधान देश में साम्यवाद का पल्लवित होना मुश्किल काम है। आश्चर्य नहीं कि जन्म के करीब सौ साल बाद भी इस विशाल देश के मात्र तीन राज्यों में ही पार्टी अपना सीमित असर बना पाई है। किंतु विकृत सेक्युलरवाद को पोषित कर वे समाज में अपनी उपस्थिति बनाए रखने की जुगत में रहते हैं।
विचारधारा कोई भी दर्शन बघारे, उसका मूल्यांकन उसके परिणाम से होता है। दुनिया के जिस भाग में साम्यवादियों की सरकार आई, वहां साधारण नागरिक के अधिकार भी छिन गए और जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं के लिए लोगों को तरसना पड़ा। नब्बे के दशक तक विश्व में समाजवाद का मुलम्मा उतर गया था। सोवियत संघ में तो समाजवादी ढांचे के कारण बदहाली और तंगहाली का आलम यह था कि लोगों को अपनी हर जरूरत के लिए लाइन पर लगना होता था। सोवियत-आर्थिक ढांचे से प्रेम के कारण ही अपने देश में भी यही स्थिति आई और 1991 में देश को अपनी अंतरराष्ट्रीय देनदारियों को पूरा करने के लिए अपना स्वर्ण भंडार गिरवी रखना पड़ा था। चीन में साम्यवाद का अस्तित्व बना हुआ है तो उसका कारण यह है कि वहां माओ के बाद के शासकों ने समय रहते खतरे की आहट भांप ली और वामपंथी अधिनायकवाद के नीचे एक पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की स्थापना की।
मुस्लिम लीग को छोड़कर मार्क्सवादियों का ही वह अकेला राजनीतिक कुनबा था, जिसने मजहब आधारित पाकिस्तान के सृजन को न्यायोचित ठहराया। मोहम्मद अली जिन्ना को मार्क्सवादियों ने ही वे सारे तर्क-कुतर्क उपलब्ध कराए, जो उसे अलग पाकिस्तान के निर्माण के लिए चाहिए थे। आजादी के बाद केरल में कम्युनिस्ट मुख्यमंत्री ईएमएस नंबूदरीपाद ने मुस्लिम बहुल एक नए जिले-मल्लपुरम का सृजन किया। वह चाहे सद्दाम हुसैन का मसला हो या फलस्तीन-ईरान का-मार्क्सवादी एक समुदाय विशेष के मजहबी जुनून में हमेशा शरीक होते आए। विदेशी विचारधारा से प्रेरित और विदेशी धन से पोषित वामपंथी न कभी अपने आप को भारत से जोड़ सके, न ही उसे समझा। कम्युनिस्टों ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में अंग्रेजी हुकूमत का साथ दिया। अंग्रेजों के लिए जासूसी की। गांधीजी और सुभाष चंद्र बोस को गालियां दीं। आजादी के बाद उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता को मानने से इंकार किया। वस्तुत: कम्युनिस्टों ने भारत की एकता के बजाए उसे टुकड़ों में बांटे रखने की हरसंभव कोशिश की। इसी कारण केएम अशरफ और हिरेन मुखर्जी जैसे कामरेडों ने भारत को राष्ट्र न मानकर उसे राच्यों का समूह मात्र ही माना। 1948 में भारतीय सेना के खिलाफ हैदराबाद के रजकरों को इसी कारण कम्युनिस्टों ने अपनी पूरी मदद दी। जब नक्सली नेता चारू मजूमदार ने 'चीन का चेयरमैन माओ हमारा चेयरमैन' कहा, तब भी कम्युनिस्टों ने साथ-साथ नारे लगाए। 1962 के भारत-चीन युद्ध में मार्क्सवादी चीन के साथ खड़े रहे। चीन और रूस ने जब परमाणु परीक्षण किया तो उन्होंने उसकी सराहना की, किंतु जब 1998 में अटलजी की सरकार ने पोखरण परमाणु परीक्षण किया तो उसे विश्व शांति के लिए खतरा बताने वाले मार्क्सवादी ही थे। दुनियाभर में साम्यवाद के दिन लद गए हैं। गिनती के जिन देशों में अधिनायकवादी साम्यवाद है, वहां मानवाधिकारों का घोर उल्लंघन होता है। देश बदहाली और कंगाली के कगार पर है। कार्ल मार्क्स के शिष्य व अक्टूबर क्रांति के दूत व्लादिमीर इल्यानोविच लेनिन को उनके ही देश में गहरे दफन कर दिया गया है, लेकिन हमारे कामरेड अभी भी उस सड़-गल गई विचारधारा पर प्रयोग कर देश को खुशहाली व उन्नति के मार्ग पर ले जाने का दावा करते हैं। यह हास्यास्पद नहीं तो और क्या है?
मार्क्सवादी अलगाववादी ताकतों का खुलेआम समर्थन करते हैं। नक्सलवादी हों या कश्मीर के अलगाववादी, मार्क्सवादी उन्हें अपनी कुतर्को की ढाल देते आए हैं। माओ ने शिनजियांग के अलगाववादी उइगर मुसलमानों के साथ पूरी कठोरता बरती, जबकि पं. बंगाल में मार्क्सवादी राज में अलगाववादी इस्लामी कट्टरता को खूब पोषित किया गया। बांग्लादेश से बड़ी संख्या में मुस्लिम घुसपैठिए पश्चिम बंगाल और असम के सीमांत क्षेत्रों में सुनियोजित तरीके से बसाए जा रहे हैं, जिन्हें मार्क्सवदियों और सेक्युलरिस्टों का अभयदान प्राप्त है। भारत में पंथनिरपेक्षता संविधान के किसी अनुच्छेद के कारण नहीं है। यह राम, श्रीकृष्ण, बुद्ध, महावीर और गुरु नानकदेव की प्रेरणा से स्वत: स्फूर्त है। यदि भारत में आज संविधान के दो पक्ष-लोकतंत्र और पंथनिरपेक्षता जीवंत और गतिमान हैं तो उसका श्रेय भारत की कालजयी सनातन संस्कृति को जाता है। मथुरा और श्रीकृष्ण उसी के प्रतीक हैं।
No comments:
Post a Comment