Tuesday, 30 June 2015

तिहाड़ तोड़ने की तीन दिलचस्प घटनाएं @राहुल कोटियाल


चार्ल्स शोभराजतिहाड़ से फरार होने वाले ज्यादातर कैदी वे हैं जो सुनवाई पर लाते, ले-जाते वक्त यहां से फरार हुए. ऐसे लोग, जो जावेद की तरह तिहाड़ तोड़कर यहां से भागे, बेहद कम हैं और उनके किस्से बेहद दिलचस्प हैं.
1958 में बनी दिल्ली की तिहाड़ जेल को देश की सबसे सुरक्षित जेलों में से एक माना जाता है. इस जेल के लगभग 60 साल के इतिहास में ऐसे गिने-चुने ही मामले हैं जब कुछ कैदी यहां से भागने में सफल हुए हों. यही कारण है कि बीते रविवार जब दो कैदियों के यहां से फरार होने की खबर आई तो यह सारे देश में सुर्खियां बन गई.
फैजान और जावेद नाम के ये दो कैदी पिछले कुछ समय से तिहाड़ जेल में कैद थे. इन पर चोरी और डकैती जैसे आरोपों में मामले दर्ज हैं जिनकी सुनवाई अभी पूरी नहीं हो सकी है. बीते शनिवार की रात को ये दोनों कैदी 13-13 फुट की दो दीवारें फांदकर और लगभग दस फुट की एक सुरंग खोदकर तिहाड़ जेल से फरार होने में कामयाब हो गए. जेल अधिकारियों को इनके फरार होने की खबर अगले दिन यानी रविवार को सुबह तब मिली जब कैदियों की हाजिरी हुई. जेल अधिकारियों ने इनकी खोज शुरू की तो तिहाड़ परिसर में उन्हें एक सुरंग खुदी मिली जहां से फैजान और जावेद फरार हुए थे. फैजान एक सीवर लाइन में फंस जाने के कारण तुरंत ही पकड़ लिया गया लेकिन जावेद तिहाड़ से भाग निकलने में कामयाब हो गया.
जेल अधिकारियों को इनके फरार होने की खबर अगले दिन यानी रविवार को सुबह तब मिली जब कैदियों की हाजिरी हुई.
तिहाड़ से फरार होने में कुछ कैदी पहले भी कामयाब रहे हैं. लेकिन इनमें ज्यादातर वे लोग शामिल हैं जो सुनवाई पर लाते ले-जाते वक्त कहीं बाहर से फरार हुए. ऐसे लोग जो जावेद की तरह तिहाड़ परिसर के भीतर रहते हुए भी फरार हो गए, बेहद कम हैं और उनके किस्से बेहद दिलचस्प हैं.
डेनियल हेली वालकॉट
ऐसे नामों में सबसे पहला नाम डेनियल हेली वालकॉट का है. वालकॉट एक अंतरराष्ट्रीय तस्कर था और मूल रूप से अमरीका का रहने वाला था. 1960 के दशक की शुरुआत में वालकॉट एक निजी विमान से दिल्ली पहुंचा. यहां उसे हथियारों की तस्करी के आरोप में गिरफ्तार किया गया और तिहाड़ जेल भेज दिया गया. उसका विमान भी भारतीय अधिकारियों ने जब्त करके सफदरजंग एयरपोर्ट पर अपने कब्जे में रख लिया था. तिहाड़ में रहते हुए वालकॉट को कुछ शर्तों के साथ जमानत भी मिली. इस दौरान वह सफदरजंग जाकर अपने विमान का निरीक्षण भी किया करता था.
एक दिन वालकॉट जेल अधिकारियों को चकमा देकर भाग निकला. तिहाड़ से वह सीधे सफदरजंग एयरपोर्ट पहुंचा और अपना विमान लेकर देश से ही बाहर चला गया. जब तक सम्बंधित अधिकारी भारतीय वायु सेना को इस पूरी घटना की जानकारी दे पाते, तब तक वालकॉट भारतीय सीमाओं के पार कर चुका था. एक अंग्रेजी अखबार की रिपोर्ट के अनुसार वालकॉट ने सफदरजंग से उड़ान भरने के बाद तिहाड़ परिसर के ऊपर चक्कर लगाए और अपने कैदी साथियों के लिए सिगरेट और चॉकलेट के पैकेट भी फेंके.
वालकॉट ने सफदरजंग से उड़ान भरने के बाद तिहाड़ परिसर के ऊपर चक्कर लगाए और अपने कैदी साथियों के लिए सिगरेट और चॉकलेट के पैकेट भी फेंके.
वालकॉट से जुडी एक दिलचस्प जानकारी और भी है. तिहाड़ से फरार होने और भारत छोड़ने के कुछ साल बाद वह दोबारा भारत आया था. बताते हैं कि उसने मुंबई में तस्करी का कुछ सोना छिपा कर रखा था. इसे ही लेने वह नाम बदल कर भारत आया था. भारतीय अधिकारियों को जब उस पर शक हुआ और उसके फिंगर प्रिंट्स लिए गए तो पता चला कि वह तो फरार अंतरराष्ट्रीय तस्कर वालकॉट है. इसके बाद उसे गिरफ्तार करके दोबारा जेल भेज दिया गया.
चार्ल्स शोभराज
तिहाड़ से भागने वालों में दूसरा बड़ा नाम भी एक विदेशी का ही है. यह नाम है चार्ल्स शोभराज. बिकिनी किलर के नाम से जाने जाने वाले शोभराज पर थाईलैंड, नेपाल और भारत में कुल दर्जन भर से भी ज्यादा हत्याओं के आरोप थे. उसे 1976 में गिरफ्तार कर तिहाड़ जेल भेज दिया गया था. यहां दस साल रहने के बाद चार्ल्स शोभराज 1986 में यहां से फरार हुआ.
16 मार्च 1986 को रविवार का दिन था. शोभराज ने तिहाड़ के अधिकारियों को बताया कि आज उसका जन्मदिन है और वह सभी लोगों को मिठाइयां बंटवाना चाहता है. उसने बाजार से कुछ मिठाई मंगवाई और उनमें नशे की दवा मिला दी. सभी सुरक्षाकर्मी जब यह नशीली मिठाई खाकर बेहोश हो गए तो शोभराज ने चाबियां उठाई और जेल के दरवाजे खोल कर फरार हो गया.
उसने बाजार से कुछ मिठाई मंगवाई और उनमें नशे की दवा मिला दी. सभी सुरक्षाकर्मी जब यह नशीली मिठाई खाकर बेहोश हो गए तो शोभराज ने चाबियां उठाई और जेल के दरवाजे खोल कर फरार हो गया.
फरार होने के तीन हफ्ते बाद ही शोभराज को गोवा से गिरफ्तार भी कर लिया गया था. शोभराज को भारत में 12 साल की सजा हुई थी. जिस समय वह तिहाड़ से भागा उस समय तक वह इसमें से दस साल की सजा काट चुका था. केवल 2 साल की सजा बाकी रहने पर भी चार्ल्स शोबराज अगर तिहाड़ से भागा तो कहा जाता है कि इसके पीछे उसकी एक सोची-समझी रणनीति थी. उसे डर था कि तिहाड़ से रिहा होने के बाद उसे थाईलैंड भेज दिया जाएगा. दरअसल 1977 में थाईलैंड ने शोभराज की गिरफ्तारी का वारंट जारी किया था जिसकी वैधता 20 साल थी. वहां उस पर लगे आरोपों के लिए उसे मौत की सजा होना लगभग तय था. इसीलिए वह तिहाड़ से फरार हुआ जिसके बाद उसे यहां 10 साल और रहना पड़ा. जब 1997 में वह तिहाड़ से रिहा हुआ, तब तक थाइलैंड के गिरफ्तारी वारंट की समय सीमा समाप्त हो चुकी थी.
तिहाड़ से रिहाई के बाद शोभराज को फ्रांस भेज दिया गया था. वह कई साल तक वहीँ रहा लेकिन 2003 में अचानक नेपाल चला गया. नेपाल में पहले से ही उसके खिलाफ कई मामले लंबित थे. यहां शोभराज को पकड़ लिया गया और अदालत ने उसे आजीवन कारावास की सजा सुनाई. वह आज भी यहीं जेल में कैद है. जेल में रहते हुए ही चार्ल्स शोभराज ने अपने से 44 साल छोटी निहिता विश्वास से शादी कर ली जो बाद में भारतीय रियेलिटी शो बिग बॉस में भी कुछ समय के लिए नजर आई. चार्ल्स शोभराज अभी भी नेपाल में ही कैद है. यह कोई नहीं जानता कि जब वह फ़्रांस में आराम से रह रहा था तो नेपाल क्यों गया जहां की पुलिस उसे ढूंढ़ रही थी.
शेर सिंह राणाशेर सिंह राणा
इन दो विदेशियों के अलावा तिहाड़ से फरार होने वालों में जो भारतीय नाम है, वह है शेर सिंह राणा का. राणा के तिहाड़ से फरार होने का किस्सा बाकियों से कुछ कम दिलचस्प नहीं है. शेर सिंह राणा ने 2001 में ‘बैंडिट क्वीन’ फूलन देवी की हत्या की थी. इसी आरोप में उसे तिहाड़ जेल में रखा गया था. राणा के कुछ मामलों की सुनवाई उत्तराखंड में भी चल रही थी. 17 फरवरी 2004 को ऐसी ही एक सुनवाई के लिए राणा को हरिद्वार ले जाया जाना था. इस दिन सुबह लगभग छह बजे कुछ लोग पुलिस की वर्दी पहने हुए तिहाड़ जेल पहुंचे. उन्होंने राणा को पेशी पर ले जाने संबंधी कागज़ात तिहाड़ अधिकारियों को सौंप दिए. बदले में तिहाड़ अधिकारियों ने खाना खिलाने के लिए 40 रूपये देकर शेर सिंह राणा को पुलिस की वर्दी पहने इन लोगों के हवाले कर दिया. राणा को लेकर ये लोग निकले ही थे कि उत्तराखंड पुलिस के जवान तिहाड़ जेल पहुंच गए. जब उन्होंने बताया कि वे शेर सिंह राणा को लेने आये हैं तो तिहाड़ अधिकारीयों के होश उड़ गए. पुलिसकर्मी बनकर आए अपने साथियों के साथ राणा तिहाड जेल से फरार हो चुका था.
2006 में राणा को कोलकाता से दोबारा गिरफ्तार कर लिया गया था. पिछले साल ही उसे फूलन देवी की हत्या के आरोप में आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई है. संयोग से अपनी यह सजा वह तिहाड़ जेल में ही काट रहा है

कांग्रेस को अचानक नरसिम्हा राव क्यूं याद आने लगे? @पवन वर्मा


पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव के नाम तक से पल्ला झाड़ने वाली कांग्रेस के लिए अब उनकी विरासत याद करना मजबूरी बन गया है
राजनीति में निर्वासित जीवन जी रहे किसी व्यक्ति के अचानक महत्वपूर्ण हो जाने के देश में बहुत उदाहरण हैं. लेकिन पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव शायद अकेले ऐसे व्यक्ति हैं जो अपनी मृत्यु के दस साल बाद अब अचानक मुख्यधारा की राजनीति में सम्मान के साथ याद किए जा रहे हैं. इसमें भी खास बात है कि खुद उनकी पार्टी, जिसने कभी उनसे किनारा करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी थी, बीती 28 जून को उनके जन्मदिन पर उन्हें सार्वजनिक रूप से याद कर रही थी. कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह तेलंगाना में इस मौके पर पार्टी द्वारा आयोजित समारोह में पहुंचे और कहा कि राव बुद्धिजीवी राजनेता थे जिनमें अपनी विचारधारा के प्रति गजब का समर्पण था.
राव के बेटे ने उनके अंतिम संस्कार का फैसला कांग्रेस पर छोड़ दिया था और लेकिन पार्टी के एक वरिष्ठ नेता ने संजय बारू को फोन करके कहा कि नरसिम्हा राव का अंतिम संस्कार दिल्ली में संभव नहीं है
कांग्रेस पार्टी अब जिस तरह पूर्व प्रधानमंत्री को याद कर रही है वह उसके दस साल पहले के रुख से बिल्कुल उलटा है. 23 दिसंबर, 2004 को दिल्ली में नरसिम्हा राव का निधन हुआ था. वैसे तो उनकी मृत्यु से काफी पहले ही कांग्रेस उन्हें राजनीतिक रूप से निर्वासित कर चुकी थी लेकिन लोगों को उम्मीद थी कि शायद मृत्यु के बाद पार्टी उनके प्रति सम्मान दिखाएगी. लेकिन पार्टी मुख्यालय में राव के लिए कोई श्रद्धांजलि सभा तक आयोजित नहीं होने दी गई. कहा जाता है कि केंद्र की यूपीए सरकार ने तुरत-फुरत यह इंतजाम कर दिया कि राव का अंतिम संस्कार दिल्ली की बजाय हैदराबाद में किया जाए. तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार संजय बारू ने अपनी किताब – द एक्सीडंटल प्राइममिनिस्टर – में  लिखा है कि राव के बेटे और बेटी उनका अंतिम संस्कार दिल्ली में ही करना चाहते थे. लेकिन सोनिया गांधी के राजनीतिक सलाहकार अहमद पटेल ने बारू से, जो कि खुद भी आंध्र प्रदेश से ही हैं, उन्हें ऐसा न करने के लिए समझाने के लिए कहा था. बाद में इस काम में शिवराज पाटिल और आंध्र प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री वायएस राजशेखर रेड्डी को लगाया गया.
कांग्रेस और एक तरह से देश को ही मुश्किल घड़ी में संभालने वाले राव के बारे में यह प्रचारित है कि पार्टी उन्हें बाबरी मस्जिद विध्वंस मामले को ठीक से न संभाल पाने का जिम्मेदार मानती थी और इसी कथित दागदार विरासत के चलते उनको हाशिये पर धकेला गया. हालांकि सत्ता के गलियारों से जुड़े जानकार यह भी मानते हैं कि इसकी एक वजह सोनिया गांधी की उनके प्रति नापसंदगी भी रही है. राव ने ही 1991 के चुनाव में कांग्रेस का घोषणा पत्र तैयार किया था. उस समय उनकी तबीयत इतनी खराब थी कि यह माना जा रहा था कि वे सक्रिय राजनीति से संन्यास लेने वाले हैं. लेकिन राजीव गांधी की हत्या के बाद ऐसी परिस्थितियां बनी जिनमें वे शरद पवार और अर्जुन सिंह जैसे दिग्गजों को पीछे छोड़ते हुए प्रधानमंत्री बन गए. कहा जाता है प्रधानमंत्री बनने के बाद वे सोनिया गांधी से नियमित अंतराल पर मिलते रहते थे लेकिन उन्होंने श्रीमती गांधी को कभी-भी सत्ता केंद्र के रूप में उभरने नहीं दिया.
पीवी नरसिम्हा राव उस समय कांग्रेस के अध्यक्ष भी थे लेकिन पार्टी का एक धड़ा लगातार इस कोशिश में था कि सोनिया गांधी को पार्टी की कमान सौंप दी जाए. राव ने हमेशा इसका विरोध किया. पार्टी मंच पर दिया उनका एक बयान उस समय काफी चर्चा में भी रहा. राव का कहना था, ‘जैसे इंजन ट्रेन की बोगियों को खींचता है वैसे ही कांग्रेस के लिए यह जरूरी क्यों है कि वह गांधी-नेहरू परिवार के पीछे-पीछे ही चले?’
नरसिम्हा राव का कहना था, ‘जैसे इंजन ट्रेन की बोगियों को खींचता है वैसे ही कांग्रेस के लिए यह जरूरी क्यों है कि वह गांधी-नेहरू परिवार के पीछे-पीछे ही चले?’
1996 के चुनाव में कांग्रेस हार गई थी लेकिन राव के लिए यह बड़ा झटका नहीं था. उनकी प्रतिष्ठा को असली धक्का तब लगा जब 1998 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस ने उन्हें टिकट देने से ही मना कर दिया. यह अपने आप में ऐतिहासिक घटना थी. बाद में जब सोनिया गांधी अध्यक्ष बनीं तो राव अनौपचारिक रूप से कांग्रेस से बहिष्कृत ही कर दिए गए. इस बहिष्कार की पराकाष्ठा 2004 में उनके निधन के बाद देखने को मिली. इससे जुड़ी एक घटना का जिक्र हमने शुरू में किया है. पूर्व प्रधानमंत्री होने के नाते राव का समाधि स्थल दिल्ली में होना चाहिए था. लेकिन यूपीए सरकार ने फैसला किया कि राजधानी में जगह की कमी है और अब यहां समाधिस्थल नहीं बनाए जा सकते. इस फैसले से साफ था कि कांग्रेस अपने ही पूर्व अध्यक्ष और प्रधानमंत्री के साथ कोई जुड़ाव नहीं रखना चाहती थी.
तो फिर ऐसा क्या हुआ कि अचानक पार्टी को पीवी नरसिम्हा राव याद आने लगे? राजनीतिक विश्लेषक इसके पीछे कांग्रेस की मजबूरी बता रहे हैं. दरअसल पिछले साल अक्टूबर में केंद्र सरकार में सहयोगी दल तेलुगू देशम पार्टी (टीडीपी) ने एक प्रस्ताव पारित कर सरकार से मांग की थी कि नई दिल्ली में पीवी नरसिम्हा राव का समाधि स्थल बनाया जाए. इसके बाद इसी मार्च में केंद्रीय शहरी विकास मंत्री वेंकैया नायडू ने इससे संबंधित प्रस्ताव मंत्रिपरिषद के सामने रखा. मंत्रालय के एक अधिकारी बताते हैं कि समाधिस्थल अब बनकर तैयार हो गया है.
कहा जा रहा है कि कांग्रेस केंद्र सरकार के इस कदम को राव की विरासत हथियाने की कोशिश मान रही है. दरअसल राष्ट्रीय स्तर पर भले ही इस बात से कोई फर्क न पड़ता हो लेकिन तेलंगाना (वारंगल जिला यहीं हैं जहां राव का जन्म हुआ था) और आंध्र प्रदेश में राव के प्रति काफी सम्मान और सहानुभूति है. तेलंगाना की टीआरएस सरकार ने तो बाकायदा स्कूली पाठ्यक्रम में पूर्व प्रधानमंत्री की जीवनी भी शामिल की है. वह उनके जन्मदिन पर कार्यक्रम भी आयोजित कर रही है. वहीं चंद्रबाबू नायडू की तेलगू देशम पार्टी पहले ही राव के समाधिस्थल का मामला उठाकर इस भावनात्मक मुद्दे पर राजनीतिक लाभ लेने की कोशिश कर चुकी है. पार्टी उन्हें भारत रत्न देने की मांग भी करती रही है. भाजपा भी नरसिम्हा राव के मामले में इसी नाव पर सवार है.
कांग्रेस को पिछले लोकसभा और विधानसभा चुनावों में इन दोनों राज्यों में बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा है. राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि भले ही पीवी नरसिम्हा राव को हाशिये पर करने का उसे सीधा नुकसान इन राज्यों में न उठाना पड़ा हो लेकिन आज की परिस्थितियों में टीआरएस, टीडीपी और भाजपा के सामने यहां वह बिल्कुल विरोधी खेमे में खड़ी दिखाई पड़ रही थी. कांग्रेस द्वारा पूर्व प्रधानमंत्री को अचानक अपनाने और याद करने की यही सबसे बड़ी वजह मानी जा रही है और उसकी कोशिश बस यही है कि इन राज्यों में उसके नेता की विरासत विरोधी पार्टियां न हथिया लें. वैसे ही जैसे गुजरात में नरेंद्र मोदी, सरदार वल्लभ भाई पटेल के मामले में कर चुके हैं

Sunday, 28 June 2015

हमारे पहले गुजराती प्रधानमंत्री @रामचंद्र गुहा

अपने चुनावी अभियान के दौरान नरेंद्र मोदी ने कई बार यह दोहराया था कि काश, सरदार वल्लभभाई पटेल भारत के पहले प्रधानमंत्री होते। इतना ही नहीं, उन्होंने पटेल की याद में एक 'स्टेच्यू ऑफ यूनिटी' बनाने का वायदा भी किया है, जो खुद 'स्टेच्यू ऑफ लिबर्टी' से भी विशाल होगी। मगर पटेल का इतना आदर वह क्यों करते हैं, इसका जिक्र उन्होंने कभी नहीं किया। मुझे लगता है कि इसकी वजह शायद यह है कि पटेल एक कुशल प्रशासक थे, उनकी सोच व्यापार के अनुकूल थी, चीन पर उनका रुख कड़ा था, और सबसे महत्वपूर्ण यह कि अगर पटेल प्रधानमंत्री बन जाते, तो शायद नेहरू-गांधी खानदान का मुद्दा ही नहीं रह जाता।

अपने भाषणों में मोदी ने तमाम दूसरे स्वतंत्रता सेनानियों का भी जिक्र किया, मगर जहां तक मुझे याद आता है, जिस एक नाम का उन्होंने कभी जिक्र नहीं किया, वह था, मोरारजी देसाई का। गौरतलब है कि पटेल की तरह मोरारजी भी गुजराती थे। मगर पटेल के उलट वह भारत के प्रधानमंत्री बने। 29 फरवरी, 1896 को जन्मे मोरारजी ने अपने कैरियर की शुरुआत औपनिवेशिक सिविल सेवक के तौर पर की। हालांकि बाद में महात्मा गांधी से प्रभावित होकर, उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लिया, और लंबा समय जेल में काटा। आजादी के बाद वह तत्कालीन अविभाजित बॉम्बे राज्य के मुख्यमंत्री बने। बाद में, उन्होंने केंद्र में वित्त मंत्री समेत कैबिनेट में कई महत्वपूर्ण पद संभाले।

गौरतलब है कि अप्रैल 1956 में जवाहरलाल नेहरू ने सी डी देशमुख को लिखा था, 'मोरारजी देसाई जैसे बहुत कम लोग हैं जिनके खरेपन, योग्यता, कुशलता और निष्पक्षता का मैं कायल हूं। ' उसी वर्ष के अंत में अहमदाबाद में हिंदू और मुसलमानों के बीच टकराव की खबरें आईं। जब यह टकराव दंगे की शक्ल आख्तियार करने लगा, तब मोरारजी अनिश्चितकालीन उपवास पर बैठ गए, जिसे दंगों के पूरी तरह रुक जाने के बाद ही उन्होंने तोड़ा। ऐसा ही एक रोचक वाकया 1960 के अप्रैल महीने का है, जब चीन के प्रधानमंत्री झाऊ एनलाई ने सीमा विवाद के मद्देनजर समझौते की आस में भारत की यात्रा की। यहां उन्होंने मोरारजी समेत तमाम वरिष्ठ राजनेताओं से मुलाकात की। इस दौरान झाऊ की इस शिकायत पर, कि भारत ने दलाई लामा को शरण दे रखी है, मोरारजी ने उन्हें याद दिलाया कि कभी खुद कार्ल मार्क्स को ब्रिटेन ने शरण दी थी। इसके बाद जब झाऊ के यह पूछने पर कि आखिर भारत सरकार ने चीन के दूतावास के बाहर प्रदर्शन करने की अनुमति क्यों दी, मोरारजी ने एक बार फिर तानाशाही और लोकतंत्र के बीच बुनियादी फर्क का हवाला दिया। उन्होंने खुद लिखा है कि हर बार बजट पेश किए जाने के बाद सड़कों पर उनके पुतले फूंके गए।�नेहरू के निधन के बाद लाल बहादुर शास्‍त्री प्रधानमंत्री बने। मगर 1966 में शास्‍त्री की असमय मृत्यु के बाद मोरारजी और इंदिरा गांधी के बीच नेतृत्व संभालने के लिए जंग हुई। देसाई को बेशक हार मिली, मगर वह इंदिरा गांधी की कैबिनेट का हिस्सा बनने को राजी हो गए। हालांकि यह भी सच है कि निजी या विचारधारा के मोर्चे पर इन दोनों शख्सियतों में कहीं कोई तालमेल नहीं दिखा। वर्ष 1969 में इंदिरा गांधी ने वाम विचारधारा के प्रति अपना झुकाव दिखाना शुरू किया। वही वह समय था, जब मोरारजी से वित्त मंत्रालय का कार्यभार वापस लिया गया। और उसके बाद उन्होंने कैबिनेट से इस्तीफा देने में ज्यादा देर नहीं लगाई। जल्द ही कांग्रेस पार्टी टूट का शिकार हुई। इस बार मोरारजी विपक्ष में बैठे, और 1975 के आपातकाल के दौर में श्रीमती गांधी ने अपने दूसरे विरोधियों की तरह उन्हें भी जेल की हवा खिलवाई।

जनवरी, 1977 में इंदिरा गांधी के आलोचकों को रिहाई मिली। 19 जनवरी को जनसंघ, भारतीय लोक दल, कांग्रेस (ओ) और समाजवादियों ने मोरारजी के आवास पर एक बैठक की। सबने एक होकर 'जनता पार्टी' के गठन का फैसला लिया। नई पार्टी ने मार्च के चुनाव में कांग्रेस को जबर्दस्त पटखनी दी, और मोरारजी प्रधानमंत्री बन गए। ढाई वर्ष तक उन्होंने यह पद संभाला। हालांकि उनके कार्यकाल की यादें कुछ खट्टी रहीं, तो इसकी एक वजह पार्टी और सरकार की अंदरूनी कलह थी। यह दुर्भाग्यपूर्ण था, क्योंकि प्रधानमंत्री के तौर पर अपने संक्षिप्‍त कार्यकाल में मोरारजी ने भारतीय लोकतंत्र की उस विश्वसनीयता को फिर से संजोने की कोशिश की, जो आपातकाल के दौरान छिन्न-भिन्न हो गई थी। 1977 के चुनाव से पहले मोरारजी ने कहा था कि जीतने पर उनकी पार्टी लोगों के मन में समाए डर को खत्म करने के साथ संविधान के दोषों को भी दूर करेगी, ताकि फिर से आपातकाल जैसे हालात कभी न पैदा हो सकें। वह अपने शब्दों पर कायम रहे, और उनके कानून मंत्री शांति भूषण के मार्गदर्शन में लाए गए 44वें संविधान संशोधन के जरिये आपातकाल के दौरान प्रधानमंत्री की शक्तियों को बढ़ाने वाले और उसे न्यायिक समीक्षा के दायरे से बाहर रखने वाले प्रावधानों को निरस्त कर दिया गया।

यह उल्लेखनीय है कि मोरारजी ने पुराने मतभेदों को भुलाकर संविधान की पुनर्स्थापना के मुद्दे पर इंदिरा गांधी की रजामंदी पाने में कामयाबी पाई। यह मोरारजी का ही कार्यकाल था, जिसमें जम्मू-कश्मीर में पहली बार स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराए गए। उन्‍होंने अपनी सरकार में पेशेवरों को जगह दी। ऐसे वक्त में, जब सचिव स्तर की नियुक्तियों में आईएएस अफसरों का बोलबाला था, तब मोरारजी ने वित्त सचिव के तौर पर एक अर्थशास्‍त्री (मनमोहन सिंह) को, कृषि सचिव के तौर पर एक वनस्पति वैज्ञानिक (एम एस स्वामीनाथन) को, पेट्रोलियम सचिव के तौर पर एक रसायनज्ञ (लोवराज कुमार) को, और बतौर रक्षा उत्पादन सचिव एक इंजीनियर (मैनुएल मेंजेस) को नियुक्ति दी। हालांकि अफसोसनाक यह रहा कि मोरारजी के पद छोड़ने के बाद उनके इस प्रयोग को भी विराम लग गया, जबकि इसे जारी रखे जाने की जरूरत थी।वैसे निजी तौर पर मोरारजी देसाई कुछ हद तक एक रूखे और आकर्षणविहीन इन्सान थे। और तिस पर प्राकृतिक चिकित्सा और निषेधों के प्रति उनकी दीवानगी की वजह से मीडिया और मध्यवर्ग उनके प्रति आकर्षण महसूस नहीं करता था।

हालांकि यह भी सच है कि अपनी सार्वजनिक छवि के उलट उनमें मानवीयता कूट-कूटकर भरी थी। वह क्रिकेट प्रेमी थे, और बचपन में सी के नायडू को अपना आदर्श मानते थे। उन्हें शास्‍त्रीय संगीत की भी खासी समझ थी। इससे जुड़ा एक दिलचस्प वाकया है। दरअसल देश के विभाजन के बाद महान गायक बड़े गुलाम अली खान को पाकिस्तान में बसने के लिए राजी कर लिया गया था। मगर जल्द ही उन्हें समझ आ गया कि उस देश में उनके संगीत की कोई कद्र नहीं। ऐसे में जब उन्होंने भारत वापसी का फैसला किया, तब वह तत्कालीन बॉम्बे राज्य के मुख्यमंत्री मोरारजी देसाई ही थे, जिन्होंने न केवल उनकी भारत वापसी का बंदोबस्त किया, बल्कि उन्हें रहने के लिए एक सरकारी आवास भी मुहैया कराया।

इसमें संदेह नहीं कि मोरारजी में कमियां थीं। उदाहरण के लिए, अमूमन हर भारतीय की तरह उनमें भी अपने बच्चों की कमियों को नजरंदाज करने की आदत थी। मगर यह भी मानना होगा कि उनके गुण उनकी कमियों पर हावी थे। हमारे पहले गुजराती प्रधानमंत्री एक देशभक्त, लोकतांत्रिक, आधुनिक सोच रखने वाले प्रशासक, निष्पक्ष सांसद, शास्‍त्रीय संगीत के प्रेमी और अंत में एक ऐसे शख्स थे जो सांप्रदायिक सौहार्द बनाए रखने के लिए अपनी जिंदगी को भी दांव पर लगा सकते थे।

राजनीति में इतिहास का इस्तेमाल @रामचंद्र गुहा

अपनी किशोरावस्था में जो किताबें मैंने पढ़ी थीं, उनमें से एक पुस्तक तेनजिंग नॉरगे की आत्मकथा थी। मैं देहरादून में बड़ा हुआ, जहां से निचले हिमालय के सुंदर दृश्य दिखाई देते थे। हम अक्सर पास में मसूरी जाया करते थे, जहां से नंदा देवी, त्रिशूल और बंदरपूंछ की चोटियां दिखाई देती थीं। मैं दमे का मरीज था, ऊंची चढ़ाइयां नहीं चढ़ सकता था, शायद इसीलिए मैंने तेनजिंग की आत्मकथा कई बार पढ़ी। उस किताब में दो घटनाएं मुझे अच्छी तरह याद हैं। पहली यह कि एडमंड हिलेरी ने अपनी आत्मकथा में लिखा था कि तेनजिंग नहीं, बल्कि वह खुद सबसे पहले एवरेस्ट पर पहुंचे थे। हिलेरी ने यह भी दावा किया था कि तेनजिंग को तो वह लगभग लादकर चोटी तक ले गए थे। तेनजिंग इसे पढ़कर बहुत दुखी हुए और उन्होंने हिलेरी के नस्लवादपूर्ण अहंकार की तुलना उनके प्रिय पर्वतारोही रेमंड लंबार्ड से की, जो तेनजिंग को हमेशा बराबरी के मित्र की तरह मानते रहे। दूसरी कहानी तेनजिंग की राष्ट्रीयता के विवाद की है। सन 1953 की गरमियों से पहले तेनजिंग की पहचान एक पिता, पति और पर्वतारोही की थी। पर जैसे ही वह एवरेस्ट के शिखर पर पहुंचे, तो चार देश उन पर दावा करने के लिए आगे आ गए। उनका शुरुआती जीवन नेपाल में बीता था, इसलिए नेपाल के लोग उन्हें अपने देश का मानते थे। वह दाजिर्लिंग में रहते थे, इसलिए भारतीय प्रेस का दावा यह था कि वह भारतीय हैं। वह बौद्ध थे, जिनका आध्यात्मिक केंद्र ल्हासा में था, इसलिए तिब्बतियों ने दावा किया कि वह तिब्बती हैं। तिब्बत चीन का एक प्रदेश या उपनिवेश था, इसलिए चीन की साम्यवादी सरकार का दावा यह था कि एवरेस्ट पर चढ़ने वाला पहला इंसान दरअसल एक चीनी सर्वहारा है। आत्मकथा में तेनजिंग ने इस बात पर एक व्यंग्यात्मक आश्चर्य जताया है। उन्होंने खुद को एक शेरपा माना था। लेकिन अब उन्हें चुनने के लिए कहा गया था कि वह नेपाली हैं, भारतीय हैं, तिब्बती हैं या चीनी?

मुझे तेनजिंग की आत्मकथा तब याद आई, जब मैं जवाहरलाल नेहरू के मुख्यमंत्रियों के नाम पत्र पढ़ रहा था। बतौर प्रधानमंत्री नेहरू हर पखवाड़े मुख्यमंत्रियों को चिट्ठियां लिखते थे, जिनमें वह अपने विचार और सरकार की नीतियां स्पष्ट करते थे। सन 1980 के दशक में विद्वान राजनयिक जी पार्थसारथी ने उन्हें संपादित किया और वे इतिहासकारों के लिए एक महत्वपूर्ण धरोहर हैं। दो जुलाई, 1953 को लिखे अपने पत्र में नेहरू लिखते हैं: ‘एवरेस्ट पर चढ़ाई एक महान उपलब्धि है, जिसका हम सबको गर्व होना चाहिए। लेकिन यहां भी कई लोगों ने बहुत क्षुद्रता का और संकीर्ण राष्ट्रवाद का परिचय दिया है। इस बात पर विवाद हो रहा है कि तेनजिंग वहां पहले पहुंचे या हिलेरी और तेनजिंग भारतीय नागरिक हैं या नेपाली। तेनजिंग पहले पहुंचे या हिलेरी, इससे जरा भी फर्क नहीं पड़ता। दोनों ही एक-दूसरे की मदद के बिना ऐसा नहीं कर सकते थे। बल्कि दोनों उनकी पूरी टीम की मदद के बिना यह हासिल नहीं कर सकते थे। और इस बात को अगर मैं आगे बढ़ाऊं, तो यह पूरी टीम भी इसके पहले एवरेस्ट चढ़ने की कोशिश करने वालों के अनुभव, मेहनत और त्याग के बिना ऐसा नहीं कर सकती थी। महान मानवीय उपलब्धियां अनेक लोगों के सामूहिक प्रयासों से संभव होती हैं।

यह हो सकता है कि एक व्यक्ति आखिरी कदम रखे, लेकिन अन्य लोगों को भी भुलाया नहीं जाना चाहिए। हमारे लिए यह अच्छी बात नहीं है कि हम इतना संकीर्ण और क्षुद्र राष्ट्रवाद इन मामलों में घसीटें और लोग सोचें कि हम हीनताग्रंथी के शिकार लोग हैं।’ आइजक न्यूटन ने कहा था कि वह दूर तक इसलिए देख पाए, क्योंकि वह बहुत बड़े लोगों के कंधों पर खड़े थे। मानवीय उपलब्धियां भले ही नई या मौलिक लगें, उनके पीछे कई पीढ़ियों का काम होता है। इसी तरह, बहुत व्यक्तिगत किस्म की उपलब्धि के पीछे किसी टीम का काम होता है। नेहरू का एवरेस्ट विजय का एक विश्लेषण उनकी अपनी महान उपलब्धि यानी एक संयुक्त व लोकतांत्रिक भारत के निर्माण में भी देखने में आता है। उनके सबसे बड़े भागीदार और साथी वल्लभभाई पटेल थे। आजकल की जहरबुझी इकतरफा राजनीति में दोनों में से किसी एक को आधुनिक भारतीय राष्ट्र के निर्माण का श्रेय दिया जाता है। कांग्रेस नेहरू को याद करना चाहती है और पटेल को भूल जाती है। भारतीय जनता पार्टी का दावा है कि सरदार पटेल उनके थे और भारत निर्माण में उनकी भूमिका नेहरू से कहीं ज्यादा थी।

वास्तविकता यह थी कि नेहरू और पटेल की एक शानदार जोड़ी थी। नेहरू के धार्मिक और भाषिक बहुलतावाद तथा लोकतंत्र के प्रति प्रतिबद्धता के बिना भारत कई सांप्रदायिक झगड़ों का शिकार हो जाता। पटेल ने रजवाड़ों को एक करके और संविधान के निर्माण में नेतृत्व देकर भारत को क्षेत्रीय व राजनीतिक रूप से एक बनाया। नवंबर 1949 में छपे एक लेख में पटेल ने यह बताया है कि कैसे नेहरू से उनके रिश्ते को गलत ढंग से पेश किया गया है और भविष्य में किया जाएगा। पटेल ने लिखा, ‘कुछ स्वार्थी लोगों द्वारा प्रचारित और कुछ अज्ञानी समूहों में मान्य धारणा के विपरीत हम दोनों ने आजीवन मित्र और सहयोगी की तरह काम किया।’ उन्होंने आगे लिखा, ‘चूंकि मैं उनसे उम्र में ज्यादा था, इसलिए मेरा यह सौभाग्य रहा कि मैं उन्हें प्रशासन और संगठन के मामलों में सलाह देता था और मैंने उन्हें हमेशा मेरी सलाह के लिए उत्सुक और उसे मंजूर करने के लिए तैयार पाया।’ आजकल जिस तरह कहा जाता है, नेहरू और पटेल के बीच वैसी कट्टर दुश्मनी होती, तो आजादी के बाद भारत बिखर जाता। उनके परस्पर सहयोग ने ही भारत को एकता के सूत्र में बांधा। एक बहुलतावादी सामाजिक माहौल बनाया और संसदीय लोकतंत्र की नींव रखी। इसके अलावा, नेहरू और पटेल अपने अन्य मंत्रिमंडलीय सहयोगियों पर निर्भर होते थे, खासकर अंबेडकर पर।

कांग्रेस पार्टी, खासकर उसके पहले परिवार ने नेहरू की विरासत को बहुत नुकसान पहुंचाया है। उसने नेहरू के नाम पर कब्जा करके उन राहों को बंद कर दिया, जो किसी भी राजनीतिक विचारधारा के भारतीयों को अपनानी चाहिए थी और जिनकी मिसाल नेहरू ने कायम की थी। एवरेस्ट पर पहली सफल चढ़ाई के बाद नेहरू ने मुख्यमंत्रियों को भारत की वास्तविक या काल्पनिक महानता के संकीर्ण गुणगान से बचने की सलाह दी। उन्होंने लिखा- ‘मैं दूसरे देशों की तुलना में अपने देश की प्रशंसा के खेल में शामिल नहीं होना चाहता। हर देश में ऐसी सोच मिलती है।’ संकीर्ण राष्ट्रवाद के प्रति नेहरू का विरोध उनके प्रधानमंत्री बनने के बहुत पहले से था। 14 दिसंबर, 1932 को अपनी बेटी इंदिरा को उन्होंने जेल से चिट्ठी लिखी- ‘राष्ट्रवाद अपनी जगह ठीक है, लेकिन वह अविश्वसनीय मित्र और अनिश्चित इतिहासकार है। वह हमें कई घटनाओं से आंखें मूंदने पर मजबूर कर देता है, कभी-कभी सत्य को विकृत करने की प्रेरणा देता है, खास तौर पर जब वह हमारा अपना इतिहास हो।

इसलिए हमें भारत के ताजा इतिहास के मद्देनजर अपने दुर्भाग्य का सारा दोष अंग्रेजों पर मढ़ने से बचना चाहिए।’ आधुनिक भारत के हर इतिहासकार की मेज पर ये शब्द रहने चाहिए और हर विचारधारा के प्रचारक के लिए भी यह सही है।

Saturday, 27 June 2015

वे जो रास्ता दिखाएंगे @रामचंद्र गुहा

इस महीने की शुरुआत ही एक रहस्य से पर्दा उठने के साथ हुई। दरअसल खुफिया ब्यूरो (आईबी) की लीक हो चुकी रिपोर्ट में यह आरोप लगाया गया कि गैर-सरकारी संगठनों (एनजीओ) का एक समूह भारत के आर्थिक विकास की राह में रोड़े अटका रहा था। यह रिपोर्ट पढ़ने के बाद मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि इस स्थिति को भ्रम की तरह नहीं, बल्कि बड़े संकट से पूर्व की चेतावनी की तरह लिया जाना चाहिए।

जैसा कि एक प्रतिष्ठित अंग्रेजी अखबार का संपादकीय लिखता है, 'आईबी की रिपोर्ट गैर-सरकारी संगठनों को लेकर ऐसे वक्त में अविश्वास और पूर्वाग्रह के माहौल का जन्म देगी, जबकि भारत को सामाजिक क्षेत्र में इनकी सबसे ज्यादा जरूरत है।' गौरतलब है कि तमाम एनजीओ ऐसे क्षेत्रों के वंचित वर्गों को अपनी सेवाएं देते आए हैं, जहां या तो सरकार की पहुंच मुमकिन नहीं हो पा रही, या वह जानबूझकर पहुंचना नहीं चाह रही। अपने संपादकीय के जरिये इस अखबार ने सरकार से आग्रह किया कि वह एनजीओ को अपने प्रयासों का विरोधी नहीं, बल्कि पूरक मानें।

संयोग से, जब आईबी की इस रिपोर्ट का खुलासा हुआ, तब मैं गांधी के अखबार 'हरिजन' के पुराने अंक पलट रहा था। तभी इसमें मुझे एक दिलचस्प लेख पढ़ने को मिला, जो आईबी की लीक रिपोर्ट से उपजी बहस से संबंधित था। ‌हरिजन के एक फरवरी, 1948 के अंक में छपे इस लेख का शीर्षक था, 'महामहिम का विरोध'। इसे लिखा था अर्थशास्‍त्री जे सी कुमारप्पा ने, जो कि गांधी के काफी करीब थे, और 1929 के बाद से उनके सबसे नजदीकी लोगों में से थे। वह कई बार जेल गए, मगर राजनीति से इतर क्षेत्रों में अपने योगदान के लिए उन्हें ज्यादा ख्याति मिली। उन्होंने जल संरक्षण, जैविक खेती और विकेंद्रीकृत वन प्रबंधन पर जोर दिया, तथा ग्रामीण उद्योगों को पुनर्जीवित करने के लिए वह लगातार सक्रिय रहे।

आजादी के बाद तमाम कांग्रेसी सरकार में शामिल हुए। मगर कुमारप्पा ने मंत्री तो छोड़ें सांसद तक बनने से इनकार कर दिया। वजह यह थी कि वह भारत के नए और उभरते हुए लोकतंत्र में सामाजिक कार्यकर्ताओं की महत्वपूर्ण भूमिका को समझ रहे थे। उनके मुताबिक जैसे तट नदियों को थामे रखते हैं, वैसे ही राजनेताओं को सजग बनाए रखने की जिम्मेदारी सामाजिक कार्यकर्ताओं की होती है। दरअसल कुमारप्पा की सोच थी कि देश की सरकार को बतौर परामर्श निर्देश देने की जिम्मेदारी उन ताकतों की होनी चाहिए, जो औपचारिक सरकारी क्षेत्र से ताल्लुक न रखती हों।

गौरतलब है कि आजादी से पहले कांग्रेस को मुस्लिम लीग से कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ा था। मगर विभाजन के बाद हालात बदले, और सत्तारूढ़ दल के लिए विरोधियों की चुनौतियां भी कम हुईं। संविधान सभा में कांग्रेस का दबदबा था, और लगने लगा था कि भविष्य में गठित होने वाली संसद में भी उसी का प्रभुत्व बना रहेगा। कुमारप्पा को चिंता थी कि यह स्थिति पार्टी को लापरवाह, और कुछ हद तक अहंकारी बना देगी। इसी वजह से वह रचनात्मक कार्यकर्ताओं को बड़ी भूमिका देने के समर्थक थे।

कुमारप्पा ने अपने साथी समाज सेवकों से कहा, 'हमारा उद्देश्य मंत्रियों की जगह लेना नहीं, बल्कि उस मॉडल की बात करना है,जिसका उन्हें पालन करना चाहिए। कार्यकर्ताओं को उचित माध्यम और उदाहरणों के जरिये सरकार को निर्देश देना चाहिए।' उनका यह भी मानना था कि सामाजिक कार्यकर्ताओं का एक व्यवस्थि‌त समूह सरकार के लिए एक निर्देशक की भूमिका में होगा। बकौल कुमारप्पा,'लोगों की सेवा ही उनकी प्रेरणा होगी, और उनके काम की गुणवत्ता ही उनका चार्टर। मंत्रिगण ऐसे निकाय से प्रेरणा लेंगे, जो केंद्र और राज्य सरकारों को जरूरी सलाह और मार्गदर्शन देगा।'

इंग्लैंड जैसे पुराने लोकतंत्रों में संसद में एक ताकतवर विपक्ष होता था। मगर भारत में एक पार्टी का प्रभुत्व होने से सरकार पर राजनीतिक नियंत्रण की प्रभावी व्यवस्‍था कायम नहीं हो सकी। इसीलिए कुमारप्पा लिखते हैं, 'रचनात्मक कार्यकर्ताओं का ‌‌यह निकाय लोगों को शोषण के खिलाफ सुरक्षा देगा। सरकारी कामों पर नजर रखकर और खुद आदर्श बनकर यह निकाय सरकार को ईमानदार बने रहने और लोगों का कल्याण करने का दबाव बनाएगा, और इस तरह सही मायनों में जन-जन के लिए स्वराज की अवधारणा को साकार करेगा।' कुमारप्पा का यह लेख हरिजन में 24 जनवरी, 1948 को छपा, जिस पर गांधी की टिप्पणी भी लेख के साथ ही प्रकाशि‌त हुई। गांधी ने लिखा, 'यह बेहद आकर्षक विचार है, मगर यह भी स्वीकारना होगा कि इसे अंजाम देने वाले निःस्वार्थ और सक्षम कार्यकर्ताओं की भारी कमी है। ' इसके पांच दिनों के बाद गांधी ने जो कहा, उससे पता चलता है कि कुमारप्पा के विचार कहीं न कहीं उनके दिमाग में थे। गांधी की सलाह थी कि कांग्रेस खुद को भंग कर रचनात्मक कार्यकर्ताओं के ऐसे निकाय के तौर पर अपना पुनर्गठन करे, जिसकी इकाइयां पूरे भारत में फैली हुई हों, और इसका नाम हो, 'लोक सेवक संघ'। अगले ही दिन, इससे पहले कि इस विचार पर बहस हो सके, गांधी की हत्या हो गई।

66 वर्ष बाद आज फिर से कुमारप्पा के विचार प्रासंगिक दिखने लगे हैं। एक बार फिर नई दिल्ली में एक पार्टी का प्रभुत्व है, और उसके सामने एक बिखरा और कमजोर विपक्ष है। 1947-48 में गांधी ने भारत में निःस्वार्थ कार्यकर्ताओं की कमी की ओर इशारा किया था। मगर आज हमारी सिविल सोसाइटी काफी मजबूत और व्यापक आकार ले चुकी है। हालांकि इस क्षेत्र में कपटी लोगों की कमी नहीं, मगर यह भी सच है कि ऐसे सैकड़ों समूह शिक्षा, स्वास्‍थ्य, ग्रामीण विकास, सड़क सुरक्षा, पर्यावरण संरक्षण और हमारी जिंदगी के लिए जरूरी दूसरे तमाम क्षेत्रों में उत्कृष्ट काम कर रहे हैं। इसमें संदेह नहीं कि भारतीय राजनीति में संसद की केंद्रीय भूमिका बनी रहेगी। मगर उम्मीद की जानी चाहिए कि विपक्ष सरकार की नीतियों की रचनात्मक आलोचना करने में कोई कसर नहीं छोड़ेगा।

सिविल सोसाइटी को भी अपनी भूमिका के प्रति सजग रहने की जरूरत है। अपने कार्यक्षेत्र पर फोकस रखते हुए सामाजिक कार्यकर्ताओं को मंत्रियों और सिविल सेवकों को दिशा दिखानी चाहिए, और सरकारी कार्यक्रमों का इस आधार पर आकलन करते रहना चाहिए कि क्या वे सही अर्थों में कल्याणकारी साबित हो रहे हैं। इनमें से एक सिविल सोसाइटी समूह है, जो पहले ही नई सरकार में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। यह है, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ। संघ का सदस्य होने के नाते केंद्रीय कैबिनेट के बहुत से मंत्री इसी निकाय से मार्गदर्शित होंगे। मगर इस लेख में मैं उन व्यक्तियों और समूहों की जरूरत पर बात कर रहा हूं, जो किसी खास पार्टी और राजनीतिक या धार्मिक विचारधारा से जुड़े न हों। ऐसे स्वतंत्र सामाजिक कार्यकर्ता ही, कुमारप्पा के शब्दों में, 'कवच बनकर शोषण के खिलाफ आम जनता की रक्षा कर पाएंगे।

हिंदी को विश्व भाषा बनाने की चुनौती @राममोहन पाठक,

दसवें विश्व हिंदी सम्मेलन की दुंदभी बज चुकी है। विश्व हिंदी सम्मेलन की संकल्पना केवल एक आयोजन की खानापूरी नहीं है। मात्र एक औपचारिकता न होकर, अगला विश्व हिंदी सम्मेलन उन सभी अनुत्तरित प्रश्नों का हल ढूंढ़ने का एक ऐतिहासिक अवसर होगा, जो पिछले नौ सम्मेलन पीछे छोड़ गए हैं। आगामी 10 से 12 सितंबर तक भोपाल में आयोजित इस सम्मेलन के लिए हिंदी को वैश्विक स्तर पर नई पहचान देने का संकल्प लिया गया है। 40 साल पहले नागपुर में पहले विश्व हिंदी सम्मेलन के समय तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और मॉरीशस के तब के प्रधानमंत्री शिवसागर रामगुलाम की उपस्थिति में 39 देशों के 122 प्रतिनिधियों ने जो लक्ष्य तय किए थे, उनको अब मंजिल तक पहुंचाने का वक्त आ गया है।

उस पहले विश्व हिंदी सम्मेलन के मराठीभाषी सूत्रधार अनंत गोपाल शेवड़े के प्रयासों से अगले ही वर्ष 1976 में मॉरीशस में दूसरा सम्मेलन आयोजित हुआ था। इसका उद्घाटन करते हुए भारतीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने विश्व मंच पर हिंदी को स्थापित करने के लिए हर तरह के सहयोग की वचनबद्धता व्यक्त की थी। सम्मेलन का मॉरीशस में होना और उसके प्रधानमंत्री शिवसागर रामगुलाम की सम्मेलन में मौजूदगी हिंदी के विश्व भाषा होने की कहानी कह रही थी। सम्मेलन में उन्होंने मॉरीशस को हिंदी का वैश्विक केंद्र बनाने की बात कही थी। मॉरीशस के हिंदी-भोजपुरी प्रेम को ध्यान में रखकर ही वहां विश्व हिंदी सचिवालय की आधारशिला प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी हाल की मॉरीशस यात्रा में प्लेन्स विलियम्स के फीनिक्स नगर में रखी।

इसके बाद नई दिल्ली में तीसरे और पोर्ट लुईस (मॉरीशस) में हुए चौथे विश्व हिंदी सम्मेलन में हिंदी और हिंदी प्रेमियों की तंद्रा टूटती हुई दिखाई पड़ी। त्रिनिदाद और टोबैगो के पोर्ट ऑफ स्पेन में आयोजित पांचवें विश्व हिंदी सम्मेलन ने हिंदी की मुहिम को नई जागृति प्रदान की। साल 1999 में लंदन और  2003 में पारामारीबो, सुरीनाम में आयोजित सम्मेलन हिंदी को विश्व भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने की दिशा में मील का पत्थर भले ही साबित नहीं हो सके, पर हिंदी की प्रगति में इन सम्मेलनों का ऐतिहासिक अवदान रहा। इस दिशा में न्यूयॉर्क (अमेरिका) में संपन्न वर्ष 2007 का सम्मेलन दुनिया के हिंदी प्रेमियों और साधकों में नए उत्साह का संचार करने में बेशक कामयाब रहा। सम्मेलन के प्रस्तावों को मूर्त रूप देने के लिए विश्व स्तर पर समर्पित नए हिंदीसेवी और हिंदी संस्थाएं सामने आईं। विभिन्न देशों में कई प्रकाशक भी सामने आए।

दक्षिण अफ्रीका की राजधानी जोहानिसबर्ग में साल 2012 में हुए सम्मेलन का स्वरूप और फलक काफी विस्तृत रहा। वहां जो प्रस्ताव पारित हुए और जो प्रतिबद्धता सम्मेलन के बाद के तीन वषार्ें में अब तक दिखाई पड़ी है, वह इस सम्मेलन की सकारात्मकता बताती है। अफ्रीका से भारत और खासकर महात्मा गांधी के जीवंत संबंधों के साथ ही अन्य कारणों से हिंदी के प्रति जो भावनात्मक प्रतिक्रिया वहां दिखी, वह तो हिंदी की यात्रा की ऐतिहासिक थाती बन गई।

जोहानिसबर्ग सम्मेलन का संकल्प था- युवा पीढ़ी में हिंदी के प्रति ऐसा भाव पैदा करना, जिससे सूचना-प्रौद्योगिकी के उपकरणों व माध्यमों, जैसे मीडिया, सोशल मीडिया, फिल्म, वाणिज्य-व्यापार तथा बाजार में हिंदी का प्रयोग बढ़े। महात्मा गांधी की सोच के अनुसार हिंदी के वैश्वीकरण की दिशा में मौलिक प्रयासों पर बल दिया गया। केंद्रीय हिंदी संस्थान (आगरा) की हिंदी के प्रचार-प्रसार व प्रशिक्षण में भूमिका की सराहना करते हुए इसके कायार्ें को और आगे बढ़ाने का संकल्प लिया गया।

पहले विश्व हिंदी सम्मेलन के प्रस्तावों के क्रम में मॉरीशस में विश्व हिंदी सचिवालय की स्थापना महत्वपूर्ण उपलब्धि अवश्य है, पर इसकी भूमिका व कार्यप्रणाली में स्पष्टता और पूर्ण सक्रियता के अभाव को दूर करना आवश्यक है। विदेशी छात्रों के लिए लघु हिंदी पाठ्यक्रमों, हिंदी लेखकों के प्रोत्साहन, उनकी रचनाओं के प्रकाशन, हिंदी और हिंदी विद्वानों का डाटाबेस तैयार करने, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों में हिंदी भाषा संबंधी तकनीकी के विकास, विदेशियों के हिंदी प्रशिक्षण के लिए मानक पाठ्यक्रम तैयार करने, देवनागरी के लिए उपयुक्त (फांट संबंधी समस्याओं के निराकरण सहित) सॉफ्टवेयर विकसित करने तथा विषयगत क्षेत्रीय हिंदी सम्मेलनों के आयोजन संबंधी नौवें विश्व हिंदी सम्मेलन के प्रस्तावों को मूर्त रूप देना अभी शेष है।

अब तक संपन्न नौ विश्व हिंदी सम्मेलनों का सर्वाधिक महत्वपूर्ण संकल्प हिंदी को संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा के रूप में स्थापित करना रहा है। इस दिशा में भारत सरकार की विदेश मंत्री सुषमा स्वराज का दृढ़ संकल्प सामने आया है। विदेश मंत्रालय की मंत्रालय स्तरीय हिंदी समिति में उन्होंने यह संकल्प व्यक्त करते हुए स्पष्ट किया कि  संयुक्त राष्ट्र संघ के 197 सदस्यों में से दो-तिहाई का समर्थन मिलने पर सुरक्षा परिषद में भारत की सदस्यता और उसके परिणामी लक्ष्य के रूप में हिंदी को संंयुक्त राष्ट्र की भाषा बनाने के प्रयास जारी हैं। हिंदी को विश्वभाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने में यद्यपि काफी व्यय आएगा, लेकिन भारत इस कार्य में कभी पीछे नहीं रहेगा। इस संकल्प के साथ आयोजित हो रहे दसवें भोपाल विश्व हिंदी सम्मेलन से हिंदी प्रेमियों को बड़ी आशाएं हैं और ऐसा होना स्वाभाविक भी है।  
विश्व हिंदी सम्मेलन का आयोजन सिर्फ एक जलसा नहीं है।

यह अपनी पीठ थपथपाने का मौका भी नहीं है, इसे तो आत्मनिरीक्षण और आत्मालोचन का अवसर होना चाहिए। यह सोचने का भी कि 68 वर्षों के लोकतांत्रिक भारत में अब भी अपनी भाषा के पूर्ण मुखरित-पल्लवित होने की बाट देश क्यों जोह रहा है? हिंदी सम्मेलनों के अब तक के सभी प्रस्तावों की सूक्ष्म समीक्षा या ऑडिट आवश्यक है। इसके बाद आगे का रास्ता तय करना होगा। लेकिन यह कठिन काम करेगा कौन? सम्मेलन आयोजित करने वाले सम्मेलन के आखिरी दिन के रस्मी गुणगान और अपनी पीठ थपथपाने में लगे होंगे। लेकिन सम्मेलन की ऊर्जा से लबरेज उत्साही राष्ट्रभाषा-राजभाषा-मातृभाषा के संकल्पवान लोगों की ऊर्जा को फर्ज अदायगी की तरह अगले सम्मेलन तक के लिए मुल्तवी करने से लक्ष्य प्राप्त नहीं होंगे, बल्कि अगले सम्मेलन तक की विस्तृत कार्य-योजना को मूर्त रूप देना बड़ी चुनौती होगी।

यह चुनौती हिंदी प्रेमियों के सामने भी है, और हिंदी के लिए अभूतपूर्व ऊर्जा से लैस वर्तमान केंद्र सरकार के सामने भी। दोनों मिलकर चलें, तो कम से कम शत-प्रतिशत सरकारी कामकाज हिंदी में हो सकेंगे और हिंदी संपर्क भाषा के रूप में पूरे भारत में प्रतिष्ठित हो पाएगी। आशा की जानी चाहिए कि अगला विश्व हिंदी सम्मेलन इन संकल्पों के प्रति समर्पण के साथ निरंतर चलते रहने का मंत्र और इसके लिए अनंत ऊर्जा प्रदान करेगा

जेल के भीतर और बाहर की लड़ाई @चंचल

आपातकाल लगा 25 जून, 1975 को और हम गिरफ्तार हो गए। ठीक उसी तरह, जैसे लोकनायक जय प्रकाश नारायण, चंद्रशेखर, मोहन धारिया, मधु लिमये समेत वे तमाम नेता, जो इंदिरा गांधी की सरकार का ‘तख्ता पलट’ रहे थे। इनमें समाजवादी, संघी, अकाली दल वगैरह सब शामिल थे। इन दलों और संगठनों में जितने भी बड़े-छोटे नाम थे, सब जेल में डाल दिए गए। इसके 19 महीने बाद 18 जनवरी,1977 को इंदिरा गांधी ने घोषणा की कि छठी लोकसभा का चुनाव मार्च में होगा। और हमलोग मार्च में ही जेल से छूट गए। इतनी-सी बात है, इसे कहते हैं आपातकाल, यानी इमरजेंसी। क्यों लगा आपातकाल?

इसे एक सूत्र में कहा जाए, तो देश की आजादी के बाद यह पहली लड़ाई थी, जो सत्ता शक्ति और जन शक्ति के बीच हो रही थी। जनतंत्र की खूबी है कि वह इन दोनों, सत्ता शक्ति और जन शक्ति के तनाव पर जिंदा रहती है। अगर जन शक्ति जीतती है, तो अराजकता आती है और अगर सत्ता शक्ति जीतती है, तो फिर तानाशाही आती है। यहां दोनों जीते हैं। पहले जन जीता, फिर सत्ता जीती। इस जन शक्ति की शुरुआत की कहानी बहुत मजेदार है। इसके लिए थोड़ा विषयांतर कर रहा हूं।

आपातकाल के बाद जब मैं जेल से छूटकर आया, तब हिन्दुस्तान टाइम्स समूह की एक पत्रिका छपती थी- साप्ताहिक हिन्दुस्तान। मनोहर श्याम जोशी इसके संपादक थे। एक दिन उनके कमरे में गया, तो वहां हमारे मित्र रमेश दीक्षित पहले से ही मौजूद थे। देखते ही जोशी जी ने सवाल पूछा- कैसी रही जेल यात्रा? हमने कहा- सुखद। दूसरा सवाल था- आपातकाल से लड़कर आए हो, क्या अनुभव रहा? हम आपातकाल से कहां लड़े? हम तो समोसा की लड़ाई में लगे रहे। जोशी जी कुछ चौंके- समोसा? हमने कहा- जी हां। आपातकाल तो 25 जून को ही लग गया था और सारे नेता उसी रात पकड़ लिए गए, तो लड़ा कौन? अकेले जॉर्ज फर्नांडिस और उनके साथी थे, जो आपातकाल से लड़े। बाकी सब तो समोसा वाले हैं। फिर पूरी बात हुई। उन्होंने कहा कि इसे लिख दो। हमने हामी भर ली और अक्सर जो हम जैसे कई अन्य उनके साथ करते आऐ थे, वही किया- पहले कुछ नगद दे दीजिए। (जोशी जी के साथ हम लोगों के ऐसे ही रिश्ते रहे। जब भी हम और हमारे जैसे उनके दफ्तर में पहुंचते, जोशी जी जान जाते कि क्यों आया है? कई बार तो बगैर कुछ बात हुए या बगैर मांगे ही जेब में हाथ डालकर नोट निकालते और बढ़ा देते - लो और जाओ अभी लिखना है।) जोशी जी मुस्कराए- जिंदगी भर समाजवादी ही बने रहोगे? बात वहीं खत्म नहीं हुई। यह बात हमने मधु लिमये को बता दी कि कल जेल पर लिखने जा रहा हूं। तब मधुजी से दो बातों के लिए डांट पड़ी। एक तो वह बोले- अभी पार्टी बनी नहीं और लगे उसे तोड़ने का उपक्रम करने? दरअसल, जेल में किसने कैसा बर्ताव किया, इसको छापने के खतरे वह अच्छी तरह से समझते थे। दूसरा- तुम किस कांग्रेसी के सामने क्रांतिकारी बनोगे? सब के सब जेल काटे हुए हैं, उसी में इनका परिवार तक बर्बाद हो गया। इस डांट के बाद तो लिखने का सवाल ही नहीं था। इसकी जगह पर हमने जोशी जी को एक दूसरा लेख दिया, जो छप भी गया। उस वक्त जो नहीं लिख पाया, आपातकाल के आज 40 साल पूरे होने पर उसी की याद आ रही है।

बात सन 1973 से शुरू हुई थी। अहमदाबाद के छात्रावासों में मिलने वाला समोसा महंगा हो गया था, क्योंकि मेस में मिलने वाला खाना अचानक महंगा हो गया। वजह यह थी कि मेस में इस्तेमाल होने वाला मूंगफली का तेल उन दिनों महंगा हो गया था। इसके खिलाफ छात्रों ने आंदोलन शुरू किया। मुख्यमंत्री थे चिमन भाई पटेल और छात्र आंदोलन का नेतृत्व कर रहे थे उमाकांत मांकड़ और मनीषी जानी। आंदोलन बढ़ता गया। छात्रों ने विधायकों से इस्तीफे लिए। उनके घरों को घेरकर इस्तीफे दिलवाए। नतीजा हुआ कि विधानसभा में कोरम के अभाव में स्पीकर ने विधानसभा भंग करके चुनाव कराने की मांग की, जिसे राज्यपाल ने स्वीकार भी कर लिया। और फिर जून में जब गुजरात विधानसभा का चुनाव हुआ, तो कांग्रेस पराजित हुई। बाबू भाई पटेल मुख्यमंत्री बने। 

कांग्रेस को दूसरा झटका लगा 12 जून को, जब इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी के चुनाव को अवैध करार दिया और छह साल तक चुनाव लड़ने से उनको वंचित किए जाने का फैसला सुनाया। इसी बीच रेल हड़ताल हुई, जिसने कांग्रेस सरकार की चूलें हिला दीं। उस हड़ताल के नेता थे जॉर्ज फर्नांडिस। इन सबके बाद आंतरिक सुरक्षा का हवाला देते हुए इंदिरा सरकार ने आपातकाल की घोषणा कर दी और आंदोलन से जुड़े तमाम नेताओं को रात में ही गिरफ्तार कर लिया गया। इनमें कांग्रेस के वे लोग भी शामिल थे, जो समाजवादी भूमि से आए थे, यानी चंद्रशेखर, मोहन धारिया, कृष्णकांत, अर्जुन अरोड़ा और रामधन वगैरह। ये वही नेता थे, जिन्हें कांग्रेस का युवा तुर्क कहा जाता था और कभी वे इंदिरा गांधी की समाजवादी नीतियों के बड़े समर्थक थे।

आपातकाल की इस जेल यात्रा ने सभी को अलग-अलग तरह के अनुभव दिए। जेल को समाजवादियों और अकालियों ने हंसते-हंसते काटा, क्योंकि जेल उनके लिए कोई नई चीज नहीं थी और वे इसके आदी थे। संघ के बहुत से लोगों को दिक्कत हुई, क्योंकि उनका वर्ग चरित्र जेल काटने का नहीं था। लिहाजा कुछ लोगों ने तो बाकायदा माफीनामा लिखा कि उन्हें जेल के बाहर किया जाए और वे लोग अपने कार्यकर्ताओं के साथ इंदिरा गांधी के 20 सूत्री और संजय गांधी के पांच सूत्री कार्यक्रम को आगे बढ़ाएंगे। लेकिन इंदिरा गांधी ने उनके माफीनामे पर कोई प्रतिक्रया ही नहीं दी। सच कहा जाए, तो महज दो तरह के लोग आपातकाल से लड़े। एक जॉर्ज और उनके कुछ साथी, जिसे बड़ौदा डायनामाइट कांड के नाम से जाना जाता है। और दूसरे थे अकाली। वे जत्थे में निकलते और आपातकाल के विरोध में नारे लगाते हुए गिरफ्तारी देते थे

इमरजेंसी में कई मायनों में हुई थी चूक @जस्टिस राजिंदर सच्‍चर

जो देश अपने हाल-फिलहाल का इतिहास याद नहीं रखते, वे एक ही तरह की दुर्घटना दोहराने का खतरा उठाते हैं। देश की दो तिहाई आबादी 35 साल से नीचे की है। यदि इनमें से किसी से आपातकाल लगाए जाने के दिन यानी 26 जून, 1975 का महत्व पूछिए तो उनके चेहरे पर आश्चर्य के भाव उभरते हैं। कई बार 55 साल के लोगों से भी ऐसा जवाब नहीं मिलता, जिससे बहुत उत्साह पैदा होता हो। अखबारों में भी आपातकाल को लेकर पहले पेज पर शायद ही खबर दी जाती है। कई तो उस दिन कोई सूचना भी नहीं छापते। कुछ जरूर अंदर के किसी पेज पर संक्षेप में इसके बारे में उल्लेख भर करते हैं। आपातकाल के शिकार रहे कई राजनीतिक दल भी प्राय: चुप रहना ही पसंद करते हैं। हालांकि पीयूसीएल और नागरिक स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने वाले अन्य संगठन हर साल विरोध सभाएं करते हैं, लेकिन सरकारों की नव-उदारवादी नीतियों के साथ होने के कारण आम तौर पर टीवी चैनल और अखबार इनका उल्लेख करना भी मुनासिब नहीं समझते। या इसकी वजह कोई भय है, क्योंकि हाल तक वही पार्टी सत्तारूढ़ थी, जो आपातकाल लगाने की दोषी है।
दुर्भाग्य से यही वह दिन था, जब भारत ने अपना लोकतंत्र खो दिया था और अमेरिकी राष्ट्रपति ने व्यंग्य के साथ अहंकारपूर्वक कहा था कि अमेरिका अब सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है। यह दूसरी बात है कि जयप्रकाश नारायण के प्रेरक नेतृत्व में देश के लोगों के अप्रतिम त्याग और बलिदान के कारण 18 माह बाद ही सही, अमेरिकी राष्ट्रपति का अभिमान खंडित हो गया। ऐसा भी नहीं है कि आपातकाल का कोई विरोध नहीं किया गया। इसके विरोध में हजारों लोग जेल गए। इनमें कई पूर्व केंद्रीय मंत्री, पूर्व मुख्यमंत्री, राज्यपाल, वकील, विधायक-सांसद और कुछ बहादुर पत्रकार भी थे। कई मानवाधिकार कार्यकर्ता भूमिगत थे, लेकिन एक सीमा थी जिसके बाहर जाकर नि:शस्त्र लोग अत्याचारी और लगभग फासिस्ट सरकार से नहीं लड़ सकते थे। भारत में भी उस वक्त वैसे ही दिन थे।
संकट के वक्त में कार्यपालिका की ज्यादतियों के खिलाफ न्यायपालिका से बचाव की अपेक्षा की जाती है, लेकिन हमारी आजादी तब उच्चतम न्यायालय ने भी छीन ली थी। दरअसल, जबलपुर के एडीएम ने आदेश दिया था कि जीवन का अधिकार आपातकाल के दौरान लागू नहीं रहता। उच्चतम न्यायालय ने अपने निर्णय में इसे सही ठहरा दिया। मानवाधिकार की रक्षा की पहरेदार बनने से इनकार करने वाली न्यायपालिका पर लगा यह दाग कभी मिटाया नहीं जा सकता। वर्ष 1976 में एडीएम जबलपुर मामले में उच्चतम न्यायालय ने नौ उच्च न्यायालयों के आदेश के विरुद्ध निर्णय दिया। इन न्यायालयों ने कहा था कि सरकारों द्वारा निरुद्ध करने के आदेश की वैधता अवैध होने के आधार पर रद्द की जा सकती है।
दरअसल कुछ मामलों में उच्च न्यायालयों ने नजरबंद किए गए लोगों की रिहाई के आदेश दिए थे। अगर इन आदेशों को उच्चतम न्यायालय समर्थन देता तो आपातकाल खत्म हो जाता, लेकिन यह हमारे लिए शर्म की बात है कि एक सम्मानित अपवाद को छोड़कर चार न्यायाधीशों के बहुमत से उच्चतम न्यायालय ने यह आदेश दिया - '27 जून, 1975 को राष्ट्रपति द्वारा दिए गए आदेश के मद्देनजर किसी भी व्यक्ति को धारा 226 के अंतर्गत या इस आधार पर निरुद्ध करने के आदेश की वैधता को चुनौती देने का अधिकार नहीं है। इस आधार पर बंदी प्रत्यक्षीकरण या अन्य कोई याचिका उच्च न्यायालय में दायर नहीं की जा सकती।"
उच्चतम न्यायालय ने बहुत ही शर्मनाक ढंग से अटॉर्नी जनरल के इस तर्क को स्वीकार कर लिया कि अपने उच्चस्थ के आदेशों के अंतर्गत अगर किसी पुलिसकर्मी को किसी व्यक्ति को गोली मारनी हो अथवा यहां तक कि उच्चतम न्यायालय के किसी न्यायाधीश को गिरफ्तार करना हो तो वह वैध होगा और इसमें कोई राहत उपलब्ध नहीं हो सकती। स्वाभाविक रूप से इस हालत में कोई भी शांतिपूर्ण विरोध आगे जारी नहीं रखा जा सकता था।
मुझे आश्चर्य है कि हाउस ऑफ लॉर्ड्स में 1942 में युद्ध के वक्त लिवरसिज बनाम एंडरसन मामले में दिए गए बहुमत के फैसले पर न्यायपालिका द्वारा विश्वास किया गया। इसमें भी लॉर्ड एटकिन ने अपनी असहमति को लेकर यादगार टिप्पणी की थी। बाद में ब्रिटिश न्यायालयों ने इस फैसले पर इतनी शर्म महसूस की कि उसे कूड़ेदान में डालने लायक बताया।
1963 में इस लिवरसिज बनाम एंडरसन मामले को लॉर्ड रेडक्लिफ ने उपेक्षापूर्ण ढंग से उद्धृत किया और कहा कि इसे सिर्फ युद्ध के दिनों के लिए सीमित रखना चाहिए और यह पहले से ही स्पष्ट है कि इसे पथभ्रष्ट निर्णय माना गया है। लॉ क्वार्टरली रिव्यू 1970 ने साफ शब्दों में बताया कि लिवरसिज का यह फैसला ब्रिटिश न्यायपालिका के लिए किस तरह लज्जाजनक बनता जा रहा है। कुछ टिप्पणीकारों ने लिवरसिज मामले में बहुमत के फैसले को इंग्लैंड के युद्ध के प्रयासों में न्यायालय की भागीदारी के तौर पर वर्णन किया है। उसी तरह कई ने जबलपुर मुकदमे में बहुमत के फैसले को 1975 के आपातकाल को जारी रखने में उच्चतम न्यायालय की भागीदारी के रूप में माना है।
अगर उच्चतम न्यायालय ने नौ उच्च न्यायालयों के समान विचार रखा होता, तो आपातकाल तत्काल खत्म हो जाता, क्योंकि तब कोई न्यायालय जयप्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई, राजनारायण, जॉर्ज फर्नांडीस, मधु लिमये जैसे साहसी राष्ट्रभक्तों, कुलदीप नैयर जैसे बहादुर पत्रकारों और अन्य हजारों लोगों की नजरबंदी को इस आधार पर संभवत: सही नहीं ठहराता कि वे देश की सुरक्षा के लिए खतरा हैं। यदि ऐसा किया गया होता तो ये नेता तत्काल रिहा कर दिए जाते और देश में विपक्षी दलों का आंदोलन और तीव्र होता, जिससे 1976 के मध्य तक इंदिरा गांधी की सत्ता आंधी में उड़ जाती। यह उदाहरण है कि कुछ लोगों की भीरुता से कभी-कभी देश का भाग्य कैसे प्रभावित होता है। दुर्भाग्य से इस मामले में ऐसा सबसे ऊंची अदालत के निर्णय की वजह से हुआ, जिसे खुद सुप्रीम कोर्ट को भी भुला पाना संभव नहीं।

जम्हूरियत का वह काला दौर @कुलदीप नैयर

चालीस साल काफी लंबा समय मालूम देता है, लेकिन इतना लंबा भी नहीं है कि उस जंगलराज की याद भुला दे जो 1975 में आपातकाल लगने के बाद शुरू हो गया था। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की सास इंदिरा गांधी को इलाहाबाद हाईकोर्ट के उस निर्णय के बाद पद से हट जाना चाहिए था जिसमें चुनाव में सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल करने के लिए उन्हें अयोग्य घोषित कर दिया गया था। सुप्रीम कोर्ट के अवकाशकालीन न्यायाधीश ने हाईकोर्ट के निर्णय पर रोक लगाकर उन्हें राहत दी थी। फिर भी वे अंतिम नतीजे के बारे में निश्चिंत नहीं थीं।
बताया जाता है कि कोर्ट के फैसले के बाद एक समय उन्होंने अंतिम फैसला आने तक पद से हटने और जगजीवन राम या उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री कमलापति त्रिपाठी को प्रधानमंत्री बनाने की बात सोची थी, लेकिन उनके बेटे संजय गांधी (जो बाद में संविधानेतर ताकत बन गए थे और जिन्होंने असल सरकार चलाई) अपनी मां की कमजोरी जानते थे। उन्होंने हरियाणा के तत्कालीन मुख्यमंत्री बंसीलाल की मदद से भाड़े पर भीड़ जमा की और इंदिरा गांधी के समर्थक के रूप में प्रधानमंत्री निवास के सामने परेड करा दी। इसके बाद इंदिरा गांधी ने सच में यह मान लिया कि जनता उन्हें चाहती है और सिर्फ राजनीति के कुछ असंतुष्ट तत्व ही उनके विरोध में हैं।
इसके बाद वे पूरी तरह संजय पर निर्भर हो गईं। उनके घर के सूत्र बताते हैं कि वे संजय से ही राजनीति की बातें करती थीं और राजीव गांधी को नजरअंदाज करती थीं, क्योंकि वे उन्हें अराजनीतिक समझती थीं। यह भी उतना ही सच है कि राजीव राजनीति में बहुत कम रुचि लेते थे और हवाई जहाज उड़ाने में काफी माहिर थे। वे इंडियन एयरलाइंस में एक बढ़िया पायलट माने जाते थे, जो देश के भीतर हवाई यात्रा के लिए एकमात्र एयरलाइंस थी। यह अलग बात है कि इंदिरा गांधी ने उन पर राजनीति थोप दी और उन्होंने देश पर अपना प्रधानमंत्रित्व थोप दिया।
यह आश्चर्य की बात लगे, लेकिन प्रतिरोध रूढ़िवादी ताकतों - जनसंघ (जो आज भाजपा है) और अकाली दल ने किया। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी समेत सेक्युलर ताकतों ने बिना किसी ऐतराज के इंदिरा गांधी के तानाशाही वाले शासन को स्वीकार किया। मार्क्सवादी नाखुश थे, लेकिन सामने नहीं आए। प्रेस की भूमिका अत्यंत दयनीय थी। उस समय कोई इलेक्ट्रॉनिक मीडिया नहीं था। प्रेस बहादुरी और नैतिकता के उपदेश देता था, लेकिन बहुत कम लोगों और अखबारों ने विरोध किया। इंदिरा गांधी का यह कहना कि एक भी कुत्ता नहीं भौंका, अपने अर्थ और लहजे में सही था। फिर भी, यह वास्तविकता है कि प्रेस एकदम ढह गया था।
इंदिरा गांधी की टिप्पणी से चिढ़कर मैंने 103 पत्रकारों (आज भी उनकी सूची मेरे पास है) को प्रेस क्लब में जमा किया। मैं खुद ही अखबारों और न्यूज एजेंसियों में गया था। एकत्रित होने वालों में एक अंग्रेजी अखबार के स्थानीय संपादक गिरिलाल जैन शामिल थे। मैंने आपातकाल और सेंसरशिप लगाने की निंदा के लिए तैयार किया हुआ अपना प्रस्ताव पढ़ा। एक पत्रकार ने जानकारी दी कि कुछ संपादकों को हिरासत में लिया गया है। मैंने उपस्थित पत्रकारों से प्रस्ताव पर हस्ताक्षर करने के लिए कहा। मैंने बताया कि इसे राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और सूचना मंत्री को अपने हस्ताक्षर से भेजूंगा।
प्रेस क्लब छोड़ने के पहले मैंने प्रस्ताव की कॉपी अपने पास रख ली थी, ताकि यह पुलिस के हाथों में न पड़ जाए। मैं अपने घर पहुंचा ही था कि सूचना मंत्री विद्याचरण शुक्ल (जो उस समय तक एक मित्र थे) का फोन आया और उन्होंने पूछा कि क्या मैं उनके कार्यालय आ सकता हूं। मैं एक दूसरे ही शुक्ल को देखकर दंग रह गया, जिनकी आवाज में रौब था और जिनका अंदाज धमकाने वाला था। उन्होंने मुझसे वह कागज देने के लिए कहा, जिस पर पत्रकारों ने हस्ताक्षर किए थे। जब मैंने 'ना" कहा तो उन्होंने चेतावनी दी कि मुझे गिरफ्तार किया जा सकता है। उनका कहना था - 'तुम्हें समझना चाहिए कि यह अलग सरकार है, जिसे इंदिरा गांधी नहीं, संजय गांधी चला रहे हैं।"
फिर भी मैंने पत्र को इंदिरा गांधी तक पहुंचाया, जिसमें कहा गया था - 'मैडम, एक अखबार वाले के लिए यह तय करना सदैव मुश्किल होता है कि उसे कब, कौन-सी जानकारी बाहर लानी चाहिए। आपने आपातकाल के बाद बार-बार कहा है कि ऐसे विचार में आपकी आस्था है कि प्रेस का कर्तव्य है कि वह जनता को सूचित करे। यह कई बार अप्रिय काम होता है, फिर भी उसे करना होता है, क्योंकि मुक्त समाज मुक्त सूचना पर आधारित होता है। अगर प्रेस का काम सिर्फ सरकारी पर्चे और सरकारी बयान छापना हो, आज जैसी स्थिति में यह आ गया है, तो गड़बड़ियों, खामियों और गलतियों की ओर कौन ध्यान दिलाएगा?"
तीन महीने की हिरासत काटने के बाद मैंने जेल से बाहर आकर धागा जोड़ने की कोशिश की तो यह देखकर आश्चर्य हुआ कि पत्रकार मुझे खुले रूप से समर्थन करने में डरते थे। तत्कालीन जनसंघ के नेता लालकृष्ण आडवाणी ने एकदम सही टिप्पणी की - 'आपको (पत्रकारों को) झुकने के लिए कहा गया था, लेकिन आप तो रेंगने लगे।"
अगर मुझे आज की पीढ़ी को आपातकाल के बारे में समझाना हो तो मैं इस कहावत को दोहराना चाहूंगा कि प्रेस की आजादी की रक्षा के लिए लगातार सजग रहने की जरूरत है। यह बात आज भी उतनी ही सच है, जितनी आजादी पाने के समय 70 साल पहले थी। किसी ने यह उम्मीद नहीं की थी कि हाईकोर्ट द्वारा दोषी ठहराए जाने के बाद प्रधानमंत्री संविधान को ही स्थगित कर देंगी, जबकि उन्हें खुद ही पद छोड़ देना चाहिए था।
पूर्व प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री अपने मित्रों को सलाह दिया करते थे कि ढीले होकर बैठिए, चुस्त होकर नहीं। यही वजह है कि तमिलनाडु के अरियालुर में एक बड़ी दुर्घटना के बाद उन्होंने रेल मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया था। उन्होंने दुर्घटना की नैतिक जिम्मेदारी ली थी। यह कल्पना करना कठिन है कि आज कोई इस मिसाल पर चलेगा। लेकिन भारत आज भी एक ऐसा मुल्क समझा जाता है, जहां नैतिकता मौजूद है। संकीर्णतावाद और शान-शौकत से रहना कोई जवाब नहीं है। देश को महात्मा गांधी के कहे इस कथन की ओर लौटना होगा - 'विषमता लोगों को कुछ भी करने की ओर धकेल देती है।"
आज स्वाधीनता आंदोलन के दिनों को याद करने की जरूरत है। अंग्रेजों को मुल्क से बाहर करने के लिए सभी एकजुट हो गए थे। गरीबी दूर करने के लिए इसी भावना को फिर से याद करने की जरूरत है। नहीं तो आजादी का अर्थ सिर्फ यही रह जाएगा कि धनी लोगों का जीवन बेहतर हो।

ना भूलें इमरजेंसी के सबक @गोपालकृष्‍ण गांधी

आज से छह दिनों में एक सालगिरह आने वाली है। चालीसवीं सालगिरह। मामूली सालगिरह नहीं है वो। बहुत अहम है। उसको जश्न से नहीं, सुकून से 'मनाया" जाएगा। सुकून से इसलिए कि वो एक मनहूस तजरिबे की सालगिरह है, एक बुरे सपने की जो कि अब बीत चुका है, हमें अपनी भयावह लपेट से मुक्त कर चुका है। वह सपना सितम के, जुल्म के इतिहास का एक हिस्सा बनकर हमें करार दे चुका है।
नेशनल इमरजेंसी या राष्ट्रस्तरीय आपातकाल की घोषणा लगभग चालीस साल पहले 26 जून 1975 को की गई थी। मुझे, मेरी पीढ़ी को, वह तारीख अच्छी तरह याद है। रेडियो पर ऐलान हुआ। मैं तब एक मामूली सरकारी ओहदे पर था मद्रास में। इमरजेंसी! जैसे कि कोई जलजला आया हो। फिर सन्नाटा छा गया सब जगह। एक दोस्त ने मुझे फोन कर बताया कि जयप्रकाश नारायण को गिरफ्तार कर लिया गया है... मोरारजी भाई और चंद्रशेखरजी को भी...फलां नजरबंद है, फलां को घर-कैद दी गई है और फलां लापता! शायद अंडरग्राउंड...अंडरग्राउंड यानी? यानी कि गायब, खुद को भूतल कर देना ताकि पुलिस ढूंढ़ न सके। पुलिस!... और हां, चुप रहना, कुछ बोलना नहीं। खासकर फोन पर। सब टेप हैं!... टेप यानी? रहने दो बाद में बतलाऊंगा... बस, लाख बार कहा था तुझको जयप्रकाश नारायण के नाम की रट मत लगाते रहना... जब भी देखो : जेपी, जेपी... मेरी बात नहीं मानी ना... अच्छा छोड़ो इसे... अब, जैसे कि कुछ नहीं हुआ हो, चुपके से घर लौट जाना... इधर-उधर भटकना मत... खतरनाक दिन है यह!
सर कुछ चकराया। जेपी का क्या हुआ?
इमरजेंसी के ऐलान से पहले देशभर में उस वक्त इंकलाब का माहौल बना हुआ था। लोकनायक के नेतृत्व में एक ऐसा जनांदोलन उठ खड़ा हुआ था, जैसा कि स्वतंत्रता संग्राम के बाद हिंदुस्तान में कभी नहीं दिखा था। मकसद क्या था उस आंदोलन का? यह कि भारत जनतंत्र है, लोकतंत्र है, जिसको हिंदुस्तानी या उर्दू में जम्हूरियत कहते हैं। और यह जनतंत्र बड़ी कुर्बानियों के बाद हासिल हुआ है। उससे मिले हकों को बड़े ध्यान से, ईमान से, बचाए रखना चाहिए। उस जनतंत्र में जनता का शोषण नहीं चल सकता, भ्रष्टाचार नहीं चल सकता, किसी का एकाधिपत्य नहीं चल सकता। किसी पार्टी या सियासी नेता की तानाशाही नहीं चल सकती। मानवाधिकार सर्वोच्च हैं। जनता सरकार के सामने नहीं, जनता के सामने सरकार जवाबदेह है।
इंदिरा गांधी का तब शासन था। कांग्रेस हुकूमत में थी। लेकिन वह वो पुरानी कांग्रेस नहीं रही थी। वह गांधी-नेहरू वाली कांग्रेस नहीं थी, पटेल-पंत वाली कांग्रेस नहीं थी। उसकी खादी में से गांव की मिट्टी, संघर्ष की धूल उतर चुकी थी और उसकी जगह सत्ता का कलफ चढ़ चुका था। घमंड का और अहंभाव का। 'खादी को मैल पसंद नहीं", गांधीजी कह चुके थे। लेकिन तब की कांग्रेस में कलफ पर मैल चिपक चुकी थी।
देश सजग हो गया था, लोकनायक के आह्वान से, उनकी नेकी और बहादुरी से। युवा भारत खासकर जाग गया था : 'संपूर्ण क्रांति अब नारा है, भावी इतिहास हमारा है।"
आज के युवा पाठकों को यह तवारीख मालूम ना होगी, इसीलिए कुछ विस्तार से, इत्मीनान से दुहरा रहा हूं।
सरकार चौंकी, घबराई। तानाशाहों को जवानी कब भायी है? दिल्ली में महासम्मेलन हुआ। लोकनायक बोल उठे रामधारी सिंह दिनकर के अल्फाज में : 'सिंहासन खाली करो कि जनता आती है..." बस। अपने सलाहकारों के कहने पर इंदिरा गांधी ने बेचारे सोए हुए तब के राष्ट्रपति को देर-अंधेर जगाया और 'आपात" दस्तावेज पर उनके हस्ताक्षर लिए।
अनुशासन चाहिए, बतलाया गया।
जेपी कैद हुए, हजारों के साथ। जो भी इंदिरा गांधी के वफादारों में नहीं थे, सब या तो गिरफ्तार किए गए या फिर सख्त निगरानी में बांध दिए गए। इनमें कई पुराने कांग्रेसी थे, जैसे कि मोरारजी देसाई, चंद्रशेखरजी, और कई गैरकांग्रेसी जैसे कि अटलजी, आडवाणीजी, जॉर्ज फर्नांडीस। तब के युवा नेताओं में लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार भी कैद हुए।
देश पर जैसे कि अंधकार छा गया। अखबार खामोश कर दिए गए। 'बातें कम, काम ज्यादा" के पोस्टर दीवारों पर लगे।
हां, रेलगाड़ियां सही वक्त पर चलने लगीं, सरकारी दफ्तरों में अफसरान सही वक्त पर आने लगे। ईमान से नहीं, डर से कि कौन जाने कल नौकरी चली जाए!
जनतंत्र गया, भयतंत्र आया। चुप्पी में ही भलाई है भाई, चुप्पी में। हां में हां मिलाते रहो भाई, हां में हां। नेत्री हमारी नेत्री नहीं देवी हैं, बोलो देवी। इंदिरा बोलो इंडिया हैं, इंडिया हैं इंदिरा।
हर सितम की अपनी उम्र होती है। जनता से बर्दाश्त ना हुआ। चुनाव लाए गए। इमरजेंसी समाप्त हुई। सुकून! तो चलिए, उस सुकून को मनाते हैं।
लेकिन... कुछ-कुछ नहीं, बहुत कुछ सोच के साथ। आपात सिर्फ एक सरकारी नियम नहीं। वह एक कागज पर लिखा कानून नहीं। आपात एक मनोस्थिति है। वह एक सिफत है।
डर के कई चेहरे होते हैं। कई रंग।
जनतंत्र के रखवालों के नसीब में नींद कहां!
जनतंत्र के दुश्मनों की नींद में चैन कहां!
तानाशाह बदल जाते हैं, तानाशाही के हिमायती रह जाते हैं वैसे के वैसे ही, वहीं के वहीं। वे हर दल में हैं, हर संगठन में।
उनके इरादे छिप सकते हैं, बदल सकते नहीं।
सब जयप्रकाश थोड़े ही हैं!
फैज अहमद फैज ने इंसानों के बारे में नहीं, इंसानों के वफादार दोस्त के बारे में लिखा है : 'ना आराम शब को, ना राहत सवेरे। गिलाजत में घर, नालियों में बसेरे। जो बिगड़ें तो एक-दूसरे से लड़ा दो। जरा एक रोटी का टुकड़ा दिखा दो।"
आज हिंदुस्तान के लोगों को कोई ऐसा करने की जुर्रत नहीं कर सकता। क्योंकि हम इमरजेंसी देख चुके हैं, उसके सबक सीख चुके हैं। फिर भी हमें भूलना नहीं चाहिए कि आजादी मुफ्त में नहीं मिलती, वह एक कीमत मांगती है, जिसका नाम है जागरूकता।

क्या आपातकाल के सबक याद हैं @योगेंद्र यादव

आपातकाल के बारे में आगाह करने के पीछे लालकृष्ण आडवाणी की जो भी मंशा रही हो, उसका एक फायदा हुआ है। इस साल आपातकाल की बरसी चुपचाप नहीं गुजरेगी। हो सकता है, इस विवाद के बहाने नई पीढ़ी को आपातकाल के बारे में पता लग जाए। शायद इस बहाने हम अपने गिरेबान में झांक लें। हो सकता है कि हम अपने आप से एक कड़ा सवाल पूछ लें : अगर आज कोई नेता आपातकाल लगाने की कोशिश करता है, तो क्या हम उसका मुकाबला करने को तैयार है? क्या हमारा लोकतंत्र सुरक्षित है?

हम आपातकाल का पूरा सच न तो खुद याद रखने की हिम्मत करते हैं, न ही नई पीढ़ी को बताने की परवाह करते है। हमने अपना दिल बहलाने के लिए इमरजेंसी के बारे में एक मिथक बना रखा है। मिथक यह है कि इमरजेंसी इंदिरा गांधी की व्यक्तिगत सनक थी, लेकिन पूरे देश ने उसे खारिज कर दिया। यह मिथक हमें दिलासा देता है कि हम हिंदुस्तानियों में कुछ खास बात है, कि हमारा लोकतंत्र सुरक्षित है। सच यह है कि आपातकाल के पीछे देश का पूरा सत्ता प्रतिष्ठान था, सिर्फ इंदिरा गांधी नहीं। सच यह भी है कि आपातकाल के दौरान देश की स्वतंत्र संस्थाओं ने एक-एक करके घुटने टेक दिए थे। सच यह है कि अगर चंद समर्पित और बेखौफ हिंदुस्तानी आपातकाल के खिलाफ न लड़ते, तो हमारे पास याद करने के लिए बहुत कुछ नहीं रहता। सच यह है कि अगर इंदिरा गांधी 1977 का चुनाव करवाने की 'गलती' न करतीं, तो हमारे लोकतंत्र का इतिहास बहुत अलग हो सकता था। अपने लोकतंत्र पर गर्व करना और पड़ोसियों को नसीहत देना हम हिंदुस्तानियों की आदत बन गया है।

लेकिन सच यह है कि हमें लोकतंत्र को हासिल करने और उसे बचाने के लिए संघर्ष नहीं करना पड़ा। देश की आजादी के साथ-साथ हमें लोकतंत्र भी मिल गया। जबकि नेपाल, बांग्लादेश और पाकिस्तान की जनता को लोकतंत्र पाने या बचाने के लिए संघर्ष करना पड़ा, कुर्बानी देनी पड़ी। उसकी तुलना में इमरजेंसी के खिलाफ हमारा संघर्ष बहुत कमजोर था। आजादी की लड़ाई से निकली कांग्रेस पार्टी इंदिरा गांधी के सामने बिछ गई थी। विरोधी दलों का संघर्ष भी आधा-अधूरा था। माकपा ने आपातकाल का विरोध किया, पर उसका कारण पश्चिम बंगाल की राजनीति था, लोकतंत्र में आस्था नहीं। भाकपा और देश के अधिकांश कम्युनिस्ट इंदिरा गांधी के साथ खड़े थे। जनसंघ और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता जेल गए, पर संघ के प्रमुख बालासाहेब देवरस ने इंदिरा गांधी को चिट्ठी लिखकर उस पर पानी फेर दिया। अकाली दल के कार्यकर्ताओं ने बड़ी हिम्मत दिखाई, पर यह कहना मुश्किल है कि उनकी लड़ाई इंदिरा गांधी के खिलाफ थी या आपातकाल के खिलाफ। सोशलिस्ट कार्यकर्ताओं का संघर्ष लोकतंत्र का संघर्ष था, लेकिन उनकी ताकत बहुत कम थी। राजनीतिक तंत्र आपातकाल का प्रभावी विरोध करने में विफल रहा।

इमरजेंसी के इक्कीस महीनों के दौरान लोकतंत्र की स्वायत्त संस्थाओं का इतिहास तो और भी शर्मनाक रहा था। कुछेक अपवादों को छोड़कर सारी अफसरशाही अधिनायकवाद की सेवा में जुट गई थी। जिसे झुकने को कहा गया, उसने रेंगना शुरू कर दिया। आज हम सब इलाहाबाद उच्च न्यायालय के जज जगमोहन सिन्हा को श्रद्धा से याद करते हैं, जिन्होंने इंदिरा गांधी के खिलाफ फैसला देने की हिम्मत दिखाई। लेकिन सच यह है कि सर्वोच्च न्यायालय ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले को पलट दिया था। एक अनजान से जज हंस राज खन्ना को छोड़कर पूरा सुप्रीम कोर्ट आपातकाल के असांविधानिक आदेश पर मुहर लगा रहा था। इसमें भगवती और चंद्रचूड़ जैसे दिग्गज जज भी शामिल थे। इंडियन एक्सप्रेस जैसे कुछ अपवादों को छोड़ दें, तो मीडिया का एक बड़ा हिस्सा आपातकाल के महिमामंडन में शामिल था। समझदार लोग भी हमेशा की तरह बीच का रास्ता निकालते हुए आपातकाल की आलोचना के साथ-साथ उसके गुण गिना रहे थे।

और जनता? यह सच है कि आखिर जनता के वोट ने अधिनायकवाद के खतरे को रोका। बेशक, 1977 का चुनाव भारतीय लोकतंत्र का स्वर्णिम अध्याय था। लेकिन याद रहे कि जनता का वोट आपातकाल की ज्यादतियों और सत्ताधारियों के अहंकार के खिलाफ था, लोकतांत्रिक नियम-कायदे के उल्लंघन के खिलाफ नहीं। दक्षिण भारत में आपातकाल की ज्यादती नहीं हुई, वहां जनता ने 1977 में भी कांग्रेस को जमकर जिताया। दरअसल हमारे जनमानस में लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं और नियम-कायदे को लेकर कोई गहरी समझदारी न उस वक्त थी, न आज है।

लालकृष्ण आडवाणी के बयान से उठने वाला असली सवाल यह नहीं है कि आज इमरजेंसी जैसी स्थिति बन सकती है या नहीं। जाहिर है, अगर दोबारा आपातकाल आएगा, तो उसी रूप में संविधान के अनुच्छेद 356 के सहारे तो नहीं आएगा। वह राष्ट्रवाद, संस्कृति या विकास का कोई नया लबादा ओढ़कर आएगा। असली सवाल यह है कि अगर आज इमरजेंसी जैसी स्थिति बनती है, तो क्या हम उसे पहचानने और उसका मुकाबला करने के लिए तैयार हैं? क्या हम 'मजबूत' नेता की जगह सामूहिक नेतृत्व पसंद करेंगे? क्या हम स्वायत्त संस्थाओं की आजादी की रक्षा करेंगे? क्या हमारा मीडिया लोकतंत्र पर हमले को पहचानेगा? क्या हमारे बुद्धिजीवी ऐसे किसी हमले के खिलाफ बीच का रास्ता छोड़कर ठोस आवाज उठाएंगे?

सवाल यह है कि क्या हमें आपातकाल के सबक याद हैं? इसका जवाब लालकृष्ण आडवाणी को नहीं, हमें और आपको देना है।

बड़ी जेल बन गया था जब देश @जगदीश उपासने

लगता है, जैसे 25 जून, 1975 की वह उत्तेजना भरी भागमभाग अभी की बात है। बीस साल की उम्र के मुझ जैसे नए पत्रकार के लिए देश में तेजी से घटने वाली घटनाएं स्तंभित कर देने वाली थीं। अविभाजित मध्य प्रदेश के रायपुर (अब छत्तीसगढ़ की राजधानी) के प्रमुख अखबार युगधर्म (अब प्रकाशन स्थगित) ने उस दिन के सभी कार्यक्रमों को प्रमुखता से कवर करना तय किया था। प्रख्यात समाजवादी नेता मधु लिमये उस दिन रायपुर में थे। वह भी लोकनायक जयप्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रांति आंदोलन की मशाल लिए घूम रहे थे। शाम को गांधी चौक पर उन्होंने देश की विकट स्थिति का विश्लेषण किया।

मधु जी ने 'आज रात (25 जून को) कोई बड़ी बात होने' का अंदेशा जाहिर किया, तो श्रोताओं को शायद ही अंदाज रहा होगा कि देश 21 महीने तक एक गहरे, अंधेरे कुएं में धंसने जा रहा है। शाम को सभा के बाद मधु जी संपादकीय कार्यालय आए, जहां हमने उनका इंटरव्यू लिया, जिसमें उन्होंने अपना अंदेशा दोहराया। उन्होंने कहा, 'अपनी सत्ता बचाने के लिए इंदिरा किसी भी सीमा तक जा सकती हैं और विपक्ष के साथ प्रेस का गला भी घोंटा जाएगा। हमें लगा कि ऐसा हुआ, तो युगधर्म सबसे पहले सरकार का निशाना बनेगा। एक तो वह विपक्ष का पत्र था और दूसरे, इंदिरा गांधी के सूचना-प्रसारण मंत्री विद्याचरण शुक्ल रायपुर के थे और जेपी आंदोलन में युगधर्म की सक्रिय भूमिका से चिढ़े हुए थे। सो, 25 जून के कार्यक्रमों और मधु जी के इंटरव्यू को लेकर आनन-फानन में दो पृष्ठों का विशेष संस्करण छपा और छत्तीसगढ़ तथा विदर्भ के प्रमुख शहरों-कस्बों में भेजा गया। प्रेस का गला घोंटने का अंदेशा सही निकला। प्रेस की बिजली काट दी गई। और पुलिस संपादक को गिरफ्तार करने प्रेस आ धमकी। यह इमरजेंसी की घोषणा होने से दो-ढाई घंटे पहले की बात है। विपक्षी नेता-कार्यकर्ताओं समेत मधु जी गिरफ्तार कर लिए गए। इसी तरह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, आनंद मार्ग, जमायते-इस्लामी के लोग, नक्सल-समर्थक वामपंथी भी पकड़ लिए गए।

इमरजेंसी लगने के दो महीने तक गिरफ्तारी न होने से मुझे बेचैनी थी। खबरें करने के लिए कोई बीट नहीं थी, क्योंकि अखबार ताले में था, बाकी पत्रों में प्राण नहीं बचे थे। जेपी की अगुआई में बनी लोक संघर्ष समिति लोकतंत्र की वापसी, नागरिक तथा प्रेस की आजादी की बहाली के लिए बड़ा और संगठित आंदोलन चला रही थी। चौदह-पंद्रह वर्ष के विद्यार्थियों समेत संघ के कार्यकर्ता हर रोज जयस्तंभ पर पहुंचते, तानाशाही मुर्दाबाद, लोकतंत्र वापस लाओ और भारत माता की जय के नारे लगाते और साइक्लोस्टाइल पर्चे बांटते। खौफ इतना था कि भारत माता की जय कहने वाले उन किशोरों को जयस्तंभ या किसी प्रमुख चौराहे पर देखते ही कई लोग इधर-उधर होने लगते। पुलिस आती, सत्याग्रहियों को पीटती और थाने ले जाती। दसवीं और ग्यारहवीं में पढ़ने वाले मेरे दो भाई यही सब भुगतकर जेल जा चुके थे। देश भर में संघ के कार्यकर्ताओं और पंजाब में सिखों ने सत्याग्रह अनवरत जारी रखा।

भूमिगत साहित्य के पर्चे या प्रमुख भूमिगत कार्यकर्ताओं के संदेश पहुंचाने के लिए प्रवास के दौरान संजय गांधी के जबरिया नसबंदी कार्यक्रम से भी साबका पड़ा। दुर्ग से निकली जिस बस में मैं चला, वह सीधे थाने ले जाई गई, जहां एक शामियाना लगा था। कुछ बसें वहां खड़ी थीं। युवा पुरुषों और विवाहित जोड़ों को नसबंदी के लिए शमियाने में ले जाया जा रहा था। पत्रकार होने से मैं बच गया।

रायपुर जेल में मधु जी, मध्य प्रदेश जनसंघ के अध्यक्ष बृजलाल वर्मा और समाजवादी नेता पुरुषोत्तम कौशिक के अलावा वे सब नेता भी थे, जिनके हम अब तक बयान छापते थे। मुझ जैसे युवा पत्रकार के लिए वह अद्भुत राजनीतिक पाठशाला थी। 1977 में जनता पार्टी सरकार बनने के कुछ महीने बाद ही जब मधु जी ने दोहरी सदस्यता का मुद्दा उठाकर जनता पार्टी में शामिल जनसंघ नेताओं के संघ से संबंधों पर प्रहार किया, तो मुझ जैसे कई लोगों को आश्चर्य हुआ, क्योंकि रायपुर जेल में उन्हें हमने अक्सर कहते सुना था कि 'अब लोकतंत्र की लड़ाई संघ वाले ही लड़ सकते हैं।'

रायपुर जेल में मजदूर नेता (तब नए) शंकर गुहा नियोगी से हुआ परिचय बाद में उनकी हत्या तक कायम रहा। शंकर का बिछौना कल्याण आश्रम के संस्थापक बालासाहेब देशपांडे की बगल में था। जेल में मीसाबंदियों पर लाठीचार्ज हुआ, तो उन्होंने बुजुर्ग बालासाहेब के सिर पर पड़ने वाली लाठियां अपने हाथों पर झेल लीं। शंकर के साथ अक्सर जेल की दीवार तोड़कर फरार होने के मंसूबे बांधे जाते, यह जानते हुए भी कि सारा देश ही एक विशाल जेल बन गया था! इमरजेंसी को 'अनुशासन पर्व' घोषित करने वाले विनोबा पर हम युवा बहुत क्रुद्ध थे। हम युवा बंदियों ने एक पत्र उन्हें पवनार आश्रम, वर्धा के पते पर भेजा। लिखा कि 'इंदिरा जी का मक्खन, दही, शहद खाकर आपकी बुद्धि भ्रष्ट हो गई है।' उम्मीद थी, जेल के सेंसर अधिकारी पत्र रोक लेंगे। पर वह गया और कुछ दिनों बाद विनोबा का सिर्फ 'ओम हरि' लिखा पोस्टकार्ड आ गया, जिस पर डाक विभाग का छपवाया 'अनुशासन पर्व' अंकित था! महज छेड़ने के लिए एक पत्र संजय गांधी को लिखा गया, जिसमें बताया गया कि कांग्रेस के समर्थन से चुने गए रायपुर के कम्युनिस्ट विधायक आपका और आपके पांच सूत्री कार्यक्रम का कैसे मजाक उड़ाते हैं। संजय को लिखा, 'आपका आपातकाल पूरी तरह नाकाम है, इंदिरा जी का समर्थन करने वाली भाकपा आपकी पीठ में खंजर घोंप रही है और आपको भनक तक नहीं!' संजय गांधी के ऑफिस से आए लिफाफे में रखे झक सफेद लेटरहेड पर उनका नाम सुनहरे अक्षरों में था। लिखा था, 'आपके पत्र पर उचित कार्रवाई की जाएगी।' जिस तरह जेल सुपरिंटेंडेंट स्वयं वह पत्र लेकर, जिसे सेंसर अधिकारी को खोलकर पढ़ने की हिम्मत नहीं हुई, बैरक में आए, उससे हम जान गए कि देश वास्तव में कौन चला रहा है