धर्मग्रंथ का एक लक्षण यह है कि उसमें एक भी शब्द न तो जोड़ा जा सकता है और न हटाया या बदला जा सकता है। महाभारत इसलिए भी धर्मग्रंथ नहीं है, क्योंकि वह अठारह हजार श्लोकों से सवा लाख श्लोकों तक फैल गया। उसके बारे में एक धारणा यह भी है कि यह युद्ध काव्य है। इस धारणा के पक्ष में तर्क और तथ्य दिए जा सकते हैं, लेकिन प्रभाकर श्रोत्रिय का निष्कर्ष है कि यह युद्ध का नहीं शांति का काव्य है। उनका कहना है कि युद्ध शुरू होने तक बार-बार उसे टालने के जो प्रयत्न होते हैं, उनकी निष्पत्ति मनुष्य के भीतर बहने वाले जीवन और शांति ही हंै। कोई नहीं चाहता कि युद्ध हो और उसकी परिणति महाविनाश में हो। स्थापना यह भी हो सकती है कि युद्ध उसी स्थिति में हो, जब शांति के लिए कोई और� उपाय न रह जाए। विवाद को युद्ध से निपटाने के बजाय द्यूतक्रीड़ा से सुलझाने की कोशिश, कृष्ण का शांतिदूत बनना, पांडवों का पांच गांव लेकर भी रह जाने की तत्परता और अंत में भीष्म के उपदेश, न्याय नीति के पक्ष में खड़े रहने का आग्रह महाभारत के शांति का काव्य होने की ही पुष्टि करते हैं।
महाभारत को शास्त्र की जड़ता से मुक्त करने के बाद लेखक की दूसरी महत्वपूर्ण स्थापना यह है कि महाभारत मनुष्य सभ्यता के लंबे अनुभव और प्रयोगों का आख्यान है। इस महाकाव्य के सर्जक खुद के रचे गए मिथकों को तोड़कर नई स्थापनाएं करते हैं। सभ्यता की विकास यात्रा के जितने भी प्रयोग हो सकते हैं, उन्हें इस महाकाव्य में कथाओं, उपकथाओं और नीति वचनों में व्यक्त किया गया। प्रतीक हैं, लेकिन उनकी मीमांसा में जाएं तो व्यक्ति और सभ्यता के प्रयोगों के साथ गूढ़ अर्थ भी सामने आते हैं। जैसे यज्ञ मोटे तौर पर एक कर्मकांड दिखाई देता है, लेकिन वह आत्म-तर्पण है, अपने और समाज� के लिए जब भी उत्सर्ग की भावना आती है तो वह यज्ञ है।
जहां सीधे तौर पर कुछ कहना कठिन हो, वहां जीवन का रहस्य कथा के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है। महाभारत की मूल कथा मुश्किल से सोलह-सत्रह हजार शब्दों में आ जाती है, जिसमें रूढ़िगत रूप से कौरव-पांडव के द्वंद्व और उनके युद्ध के परिणाम तक की सभी कथाएं शामिल हैं। लेकिन महाभारत के सत्य को उद्घाटित करने वाले विवरण कई रूपों में दिए गए हैं। ऐसी कहानियों का विस्तार मूल से कई गुना ज्यादा है। और प्रत्येक कहानी में जीवन के किसी अद्भुत सत्य का उद्घाटन है।
दूसरे, उस समय के समाज का जो स्वरूप उभर कर आता है, उसमें कई विसंगतियां हैं। उदाहरण के लिए, उस समय के प्राय: सभी शासक वर्णसंकर हैं। स्वयं वेद व्यास को जन्म के बाद उनके पिता पराशर ने छोड़ दिया था। पांडु, धृतराष्ट्र और दासी से उत्पन्न पुत्र विदुर तीनों का जन्म नियोग से हुआ था। नियोग को तो फिर भी सामाजिक मान्यता मिली दिखाई दी, लेकिन कई अवसरों पर यौन शुचिता की वर्तमान कसौटियां पूरी तरह ध्वस्त होती लगती हैं। पांडव की दोनों रानियों ने पांच संतानों को जन्म दिया और उनमें से एक भी पांडु के अंश से नहीं जन्मी थी। कुंती ने मंत्र-विद्या से अलग-अलग देवताओं का आह्वान कर तीन संतानों को जन्म दिया और उसी मंत्र से माद्री को भी दो संतानों की मां बनाया। कुंती का एक पुत्र कर्ण तो विवाह के पहले ही जन्म ले चुका था और मां उसे जीवन भर स्वीकार न सकी। द्रोपदी एक साथ पांच पतियों की पत्नी थी। इस स्थिति में कैसे स्पष्ट हो कि महाभारत के समय यौन शुचिता के आदर्श का पालन किया जाता था या यौन शुचिता का कोई मूल्य था। नारी स्वातंत्र्य का दंभ रचने वाली कोई भी महिला उस समाज की स्त्रियों की बराबरी में बैठ सकती हैं।
इस तरह की कई उलटवासियां हैं, जिन्हें आज के दौर में समझना और विश्लेषण करना भी कठिन है। लेकिन कोई समाज जब विकसित हो रहा होता है, तो इस तरह के कई अच्छे बुरे प्रयोग होना स्वाभाविक है। या यो भी कहें, पवित्रता शरीर और जीवन के स्थूल अंगों से परिभाषित नहीं होती। महाभारत ग्रंथ का वर्तमान रूप करीब सात सौ वर्षों में आकार ले सका। और कोई भी साहित्यिक या सांस्कृतिक रचना ऐसी नहीं है, जिस पर महाभारत का प्रभाव न हो। इसलिए इस ग्रंथ को उपजीव्य ग्रंथ कहते हैं। उपजीव्य अर्थात जिसमें दिए गए सत्य को बाद में अनेकानेक बार अनेकानेक तरह से गाया गया हो। कहते हैं कि महाभारत का संसार की प्राय: सभी भाषाओं में अनुवाद हुआ। अनुवाद को रूपांतर भी कह सकते हैं। इसकी कहानियों को अलग-अलग ढंग से कहा और व्याख्यायित किया गया।� यहां तक कि इसकी कथाएं बोलियों में भी ढाली गईं। यह विस्तार और प्रभाव भी महाभारत के विराट और उदात्त होने का प्रमाण हैं। लेखक ने उस विस्तार को अपने समय और संसार के वातायन से झांकने की कोशिश की है। �� �
भारत में महाभारत- प्रभाकर श्रोत्रिय
पृष्ठ 638, मूल्य 700 रूपये,
प्रकाशक – भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली
महाभारत को शास्त्र की जड़ता से मुक्त करने के बाद लेखक की दूसरी महत्वपूर्ण स्थापना यह है कि महाभारत मनुष्य सभ्यता के लंबे अनुभव और प्रयोगों का आख्यान है। इस महाकाव्य के सर्जक खुद के रचे गए मिथकों को तोड़कर नई स्थापनाएं करते हैं। सभ्यता की विकास यात्रा के जितने भी प्रयोग हो सकते हैं, उन्हें इस महाकाव्य में कथाओं, उपकथाओं और नीति वचनों में व्यक्त किया गया। प्रतीक हैं, लेकिन उनकी मीमांसा में जाएं तो व्यक्ति और सभ्यता के प्रयोगों के साथ गूढ़ अर्थ भी सामने आते हैं। जैसे यज्ञ मोटे तौर पर एक कर्मकांड दिखाई देता है, लेकिन वह आत्म-तर्पण है, अपने और समाज� के लिए जब भी उत्सर्ग की भावना आती है तो वह यज्ञ है।
जहां सीधे तौर पर कुछ कहना कठिन हो, वहां जीवन का रहस्य कथा के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है। महाभारत की मूल कथा मुश्किल से सोलह-सत्रह हजार शब्दों में आ जाती है, जिसमें रूढ़िगत रूप से कौरव-पांडव के द्वंद्व और उनके युद्ध के परिणाम तक की सभी कथाएं शामिल हैं। लेकिन महाभारत के सत्य को उद्घाटित करने वाले विवरण कई रूपों में दिए गए हैं। ऐसी कहानियों का विस्तार मूल से कई गुना ज्यादा है। और प्रत्येक कहानी में जीवन के किसी अद्भुत सत्य का उद्घाटन है।
दूसरे, उस समय के समाज का जो स्वरूप उभर कर आता है, उसमें कई विसंगतियां हैं। उदाहरण के लिए, उस समय के प्राय: सभी शासक वर्णसंकर हैं। स्वयं वेद व्यास को जन्म के बाद उनके पिता पराशर ने छोड़ दिया था। पांडु, धृतराष्ट्र और दासी से उत्पन्न पुत्र विदुर तीनों का जन्म नियोग से हुआ था। नियोग को तो फिर भी सामाजिक मान्यता मिली दिखाई दी, लेकिन कई अवसरों पर यौन शुचिता की वर्तमान कसौटियां पूरी तरह ध्वस्त होती लगती हैं। पांडव की दोनों रानियों ने पांच संतानों को जन्म दिया और उनमें से एक भी पांडु के अंश से नहीं जन्मी थी। कुंती ने मंत्र-विद्या से अलग-अलग देवताओं का आह्वान कर तीन संतानों को जन्म दिया और उसी मंत्र से माद्री को भी दो संतानों की मां बनाया। कुंती का एक पुत्र कर्ण तो विवाह के पहले ही जन्म ले चुका था और मां उसे जीवन भर स्वीकार न सकी। द्रोपदी एक साथ पांच पतियों की पत्नी थी। इस स्थिति में कैसे स्पष्ट हो कि महाभारत के समय यौन शुचिता के आदर्श का पालन किया जाता था या यौन शुचिता का कोई मूल्य था। नारी स्वातंत्र्य का दंभ रचने वाली कोई भी महिला उस समाज की स्त्रियों की बराबरी में बैठ सकती हैं।
इस तरह की कई उलटवासियां हैं, जिन्हें आज के दौर में समझना और विश्लेषण करना भी कठिन है। लेकिन कोई समाज जब विकसित हो रहा होता है, तो इस तरह के कई अच्छे बुरे प्रयोग होना स्वाभाविक है। या यो भी कहें, पवित्रता शरीर और जीवन के स्थूल अंगों से परिभाषित नहीं होती। महाभारत ग्रंथ का वर्तमान रूप करीब सात सौ वर्षों में आकार ले सका। और कोई भी साहित्यिक या सांस्कृतिक रचना ऐसी नहीं है, जिस पर महाभारत का प्रभाव न हो। इसलिए इस ग्रंथ को उपजीव्य ग्रंथ कहते हैं। उपजीव्य अर्थात जिसमें दिए गए सत्य को बाद में अनेकानेक बार अनेकानेक तरह से गाया गया हो। कहते हैं कि महाभारत का संसार की प्राय: सभी भाषाओं में अनुवाद हुआ। अनुवाद को रूपांतर भी कह सकते हैं। इसकी कहानियों को अलग-अलग ढंग से कहा और व्याख्यायित किया गया।� यहां तक कि इसकी कथाएं बोलियों में भी ढाली गईं। यह विस्तार और प्रभाव भी महाभारत के विराट और उदात्त होने का प्रमाण हैं। लेखक ने उस विस्तार को अपने समय और संसार के वातायन से झांकने की कोशिश की है। �� �
भारत में महाभारत- प्रभाकर श्रोत्रिय
पृष्ठ 638, मूल्य 700 रूपये,
प्रकाशक – भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली
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