आप नाथूराम गोडसे को किस रूप में देखते हैं? एक नाथूराम गोडसे- जो महात्मा गांधी का हत्यारा था और दूसरा वह नाथूराम गोडसे जो महात्मा गांधी का भारी आलोचक था, सारी आलोचना प्रकाशित है और अदालती कार्यवाही का हिस्सा रह चुकी है.
वास्तव में गोडसे को आम तौर पर इनमें से किसी भी रूप में नहीं देखा जाता है.
गोडसे को देखने की प्रचलित-स्थापित और राजनैतिक तौर पर सही दृष्टि यह है कि गोडसे एक हिन्दू धर्मांध था, जिसने गांधी की हत्या की थी. बस, बात ख़त्म.
दरअसल, बात यहां से शुरू होती है, गोडसे माने क्या?
पढ़िए पूरा लेख
जो भी लोग गोडसे का नाम सामने आते ही अपनी आंख, नाक, कान बंद हो जाने का स्वांग करते हैं, उनके लिए गोडसे का नाम बहुत काम की चीज़ है.
'आइडिया ऑफ़ इंडिया' और 'डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया' से भी ज़्यादा बेशकीमती, हालांकि हाल में उसकी महत्ता थोड़ी कम हुई है.
गोडसे का नाम 1980 के दशक तक पूरे शौक से लिया जाता था, लेकिन लगता है कि अब सेक्युलर होने के लिए "ओसामाजी" (दिग्विजय सिंह), "श्री हाफ़िज सईद" (अरविंद केजरीवाल) जैसे जुमले जरूरी हो चुके हैं.
पेरिस में हुए आतंकवादी हमलों को न्यायोचित ठहराना (मणिशंकर अय्यर), अरब सागर में मारे गए संदिग्ध पाकिस्तानी आतंकवादियों के पक्ष में खड़े होना (कांग्रेस) यानी सेक्युलर होने के लिए भी कसरत करनी पड़ रही है.
देखिए इस कसरती अखाड़े में कौन-कौन हैं? वामपंथी, सेक्युलरिस्ट, उदारवादी, नवउदारवादी, ज़्यादा तेज़ उभरते नजर आ रहे नव-मार्क्सवादी-माओवादी-अराजकतावादी, कांग्रेस समर्थक या वह कोई भी, जिसे राजनीति की पश्चिमी परिभाषाओं में 'मध्य के बाईं ओर' या 'लेफ़्ट टू सेंटर' माना जाता है.
जिसे मध्यमार्ग कहा जाता था, उस पर 'लेफ़्ट टू सेंटर' लगभग पूरी तरह अतिक्रमण कर चुका है.
इसकी आड़ में वे सारी शक्तियां भी मध्यमार्गी राजनैतिक धरातल पर काबिज हैं, जो अपने आप में वामपक्षीय भी नहीं हैं, बस घोर हिन्दुत्व विरोधी हैं.
क्या मज़ाक है कि कुछ ख़ास विश्वविद्यालयों में ख़ास ढंग से मध्ययुगीन इतिहास पढ़ने या पढ़ाने वाला कोई व्यक्ति बिल्कुल ऑटोमैटिक ढंग से सेक्युलरिस्ट विद्वान हो लेता है, वीज़ा ऑन अराइवल.
राजनीतिक रोटी
मध्यमार्ग पर कब्ज़ा करने के बाद इन शक्तियों ने अपना सबसे पहला शिकार उस इतिहास को बनाया था, जो इस पीढ़ी में अधिकांश लोगों को पढ़ने, समझने और यक़ीन लाने के लिए उपलब्ध हुआ है.
कुछ वर्ष पहले तक बड़ी आबादी में यह धारणा व्याप्त थी कि गांधीजी की हत्या से संघ का कोई संबंध था, यह इतिहास का पहला कारगर और राजनीति प्रायोजित मिथक था.
10 फ़रवरी, 1949 के फ़ैसले में विशेष न्यायालय ने गांधीजी की हत्या से वीर सावरकर को दोषमुक्त करार दिया था, संघ का कहीं नाम भी नहीं था.
1969 में जीवन लाल कपूर आयोग ने संघ को पूरी तरह दोषमुक्त करार दिया था, जिसके साथ ही संघ को (अकारण बदनामी में बिताए गए 21 वर्षों बाद, जिसमें अकारण का दमन और प्रतिबंध भी शामिल था) यह अधिकार मिला कि अगर कोई व्यक्ति गांधी हत्याकांड से संघ का नाम जोड़ता है, तो संघ उसके ख़िलाफ़ मुकदमा दायर कर सकता है.
गोडसे नाम की राजनैतिक महत्ता इसलिए है कि उसे एक वैचारिक पहचान देने और उस पहचान में समूचे हिन्दुत्व को लपेट देने भर से पूरी हो जाती है, बहुत सीधा सा रूट है.
गोडसे से सावरकर, सावरकर से दाएं-बाएं होते हुए संघ, और संघ तक पहुंचते ही अगला स्टॉप भाजपा.
इसी के साथ सेक्युलरिज्म की बौद्धिक यात्रा अपने गंतव्य पर पहुंच जाती है. तर्क-सबूत भला किसे चाहिए?
आप चाहें, तो वह क्या कहते हैं- ऑफ़ेंडेड- महसूस कर सकते हैं, लेकिन बात यह भी ठीक है कि गांधीजी के नाम की राजनीतिक रोटी हमेशा गांधी हत्याकांड की आंच पर पकी है.
ब्रांडनेम कमज़ोर
मोदी से पहले, कभी किसी सेल्फ़स्टाइल्ड गांधीवादी ने साफ़-सफ़ाई को या चुनाव-चिन्ह चरखे को छोड़कर किसी और गांधीगत विषय को अपना मिशन बनाया-बताया हो, याद नहीं आता.
गांधी के नाम पर दुकानें भी बहुत चलीं, क्या किसी ने गांधी पर कोई शोध भी करना ज़रूरी समझा?
जो कमाऊ ब्रांड जैसा है, उसे वैसा ही रहने दो? विदेशों में प्रकाशित पुस्तकों में जब गांधी पर तमाम तरह के, और यहां तक कि अप्राकृतिक कामेच्छाओं के आरोप लगे तो गांधीभक्तों-नेहरूभक्तों में से कोई भी इस स्थिति में नहीं था कि उसका उत्तर दे सके.
क्योंकि हमने गांधी-नेहरू को ज़िंदाबाद से ज़्यादा कभी कुछ पढ़ा-समझा ही नहीं, क्योंकि उनकी राजनीति के लिए गांधी से ज़्यादा महत्वपूर्ण गोडसे हैं.
अभी तक तमाम नेता खुलकर संघ को, और परोक्ष रूप से भाजपा को, गांधी का हत्यारा करार देते रहे थे, अब उस पर ब्रेक लगा है.
इससे गांधी ब्रांडनेम की ब्रांडवैल्यू कमज़ोर हुई है, कड़वा सच यह है कि गांधी ब्रांडनेम की ब्रांडवैल्यू कमज़ेर होने से ही राहुल गांधी की ताजपोशी ऑटोमैटिक नहीं हो सकी है.
वरना कितनी विशाल प्रजा कितने लंबे समय तक इंदिरा गांधी को महात्मा गांधी की संबंधी समझती रही है, इंदिरा गांधी की ताक़त इसी ब्रांडनेम में थी.
यह इतिहास का दूसरा मिथक था, जो राजनीति में बहुत सटीक बैठता रहा, क्योंकि हमने आज़ादी के बाद के भारत के इतिहास को किसी गोपनीय रहस्य की तरह छात्रों से छिपा कर रखा है.
शायद उसका गोपनीय बने रहना ही कुछ मिथकों को बरकरार रखने के लिए ज़रूरी है, अब जो लोग गोडसे के पक्ष में तर्क देते नज़र आ रहे हैं, क्या वे वास्तव में इसी गोपनीय रखे गए इतिहास को झिंझोड़ने की कोशिश नहीं कर रहे हैं?
No comments:
Post a Comment