33 साल के राजकमल चौधरी पश्चिमी उत्तरप्रदेश के एक ज़िले के कलेक्टर हैं. उनके दिन की शुरुआत उस समय होती है जब उनके शयन कक्ष के बाहर एक मुर्ग़ा अपनी पूरी ताकत से बांग देता है.
खिड़की के शीशे से वो देखते हैं कि एक चपरासी पीछे के आंगन में गाय का दूध दुह रहा है.
देखते ही देखते अर्दलियों, मालियों, चपरासियों और सिपाहियों के पूरे अमले का शोरगुल सुनाई पड़ने लगता है.
राजकमल चौधरी के नियंत्रण में 564 गाँव हैं और उनके ज़िले की आबादी 22 लाख है. भरपूर नाश्ता करने के बाद चौधरी बाबा आदम के ज़माने की अपनी सफ़ेद एंबेस्डर कार में बैठते हैं.
उस पर साएरन लगा है और उनके बैठते ही नीली बत्ती फ़्लैश करने लगती है. भारत में इसको ही सत्ता का सबसे बड़ा प्रतीक माना जाता है.
चौधरी पिछली सीट पर बैठते हैं. अगली सीट पर ड्राइवर के बग़ल में उनका हथियार बंद अंगरक्षक बैठता है. दो मिनट की ही ड्राइव में वो अपने दफ़्तर कलेक्ट्रेट पहुँच जाते हैं.
लाट साहब की दुनिया
वहाँ पर लाल पगड़ी वाला एक अर्दली उनकी कार का दरवाज़ा खोलता है. चौधरी अगले चार घंटे अपनी मेज़ पर महात्मा गाँधी के चित्र के नीचे बिताते हैं और लोगों के आने का सिलसिला शुरू हो जाता है.
पगड़ी वाला अर्दली लोगों की आवाजाही को नियंत्रित करता है. मिलने वालों में बहुत से बुज़ुर्ग लोग भी होते हैं. उनको अपने से उम्र में कहीं छोटे चौधरी के पैर छूने से कोई गुरेज़ नहीं है.
बहुत से लोग दर्ख़्वास्त लाते हैं. कोई किसी विधवा की पेंशन को दोबारा शुरू करने की अर्ज़ी देता है, तो कोई ऑपरेशन के लिए पैसा मंज़ूर कराना चाहता है.
"ज़रूरत से तवज्जो मिलने से ये लाज़मी है कि ये अधिकारी अपना संतुलन खो दें. कोई आश्चर्य नहीं होता जब शुरू के आदर्शवादी युवा वक्त के साथ साथ अपनी हैसियत का रौब दिखाना सीख जाते हैं."
संजॉए बागची, भारतीय नौकरशाही पर अपनी किताब में
कोई चाहता है कि उसके इलाके में ट्यूबवेल खोदा जाए तो किसी को कंबलों की दरकार है.
बहुत से लोग भ्रष्ट अधिकारियों के ख़िलाफ शिकायत करते हैं. एक शख्स एक स्वर्गीय नेता की मूर्ति बनवाना चाहता है.
राजकमल चौधरी सबकी बात सुनते हैं, कुछ सवाल करते हैं और लाल स्याही से लोगों की अर्ज़ियों पर निर्देश लिखते हैं.
कुछ ज़रूरतमंदों को वो तुरंत रेडक्रॉस की मद से 2,000 रुपये की रकम स्वीकृत करते हैं. ऐसा वो इसलिए कर पाते हैं क्योंकि वो ज़िला रेडक्रॉस सोसाइटी के प्रमुख हैं.
कई बार वो उन अफ़सरों को नोट लिखते हैं जिनको वो अर्ज़ी मूलत: भेजी जानी चाहिए थी. और अगर वो अर्ज़ी सही अफ़सर को भेज दी गई है तो उस पर भी वो नोट लिखते हैं कि ‘इस पर क़ानून के हिसाब से कार्रवाई करें.’
चौधरी का मानना है कि उनका 60 फ़ीसदी समय लोगों की व्यक्तिगत समस्याएं सुलझाने में व्यतीत होता है.
चौधरी तीन मोबाइल फ़ोन रखते हैं. एक मोबाइल फ़ोन पर मांग आती है कि कहीं ईधन की लकड़ी की ज़रूरत है. चौधरी वन विभाग को फ़ोन कर इस मांग को पूरा करने के निर्देश देते हैं.
विकास में बाधा
चौधरी दिन में 16 घंटे काम करते हैं, सातों दिन. वो बहुत गर्व से बताते हैं कि उन्होंने आईएएस में आने के बाद सिर्फ़ दो दिन की कैजुअल लीव ली है.
लेकिन इसके बावजूद न तो उनके ज़िले के लोग उनके काम से खुश हैं और न ही उनके उच्चाधिकारी.
सरकार के अपने अनुमानों के अनुसार विकास का अधिकतर पैसा उन लोगों तक नहीं पहुँच पाता जिनको इनकी ज़रूरत है.
वास्तव में इसका बहुत बड़ा हिस्सा हज़म कर जाती है भारत की अक्षम और ज़रूरत से ज्यादा बड़ी नौकरशाही.
जब साल 2004 में मनमोहन सिंह सत्ता में आए थे तो उन्होंने कहा था कि हर स्तर पर प्रशासनिक सुधार उनकी सरकार की पहली प्राथमिकता है.
कुछ अर्थशास्त्रियों का मानना है कि भारत के विकास में बाधा का सबसे बड़ा ज़िम्मेदार इसकी नौकरशाही को ठहराया जाना चाहिए.
हार्वर्ड विश्वविद्यालय के केनेडी स्कूल ऑफ़ गवर्नेंस के लैंट प्रिट्चेट इसे एड्स और जलवायु परिवर्तन के स्तर की समस्या मानते हैं.
क्लर्कों की सेना
भारत की केंद्र सरकार के अंतर्गत करीब 30 लाख कर्मचारी काम करते हैं और राज्यों में इनकी संख्या करीब 70 लाख है.
भारत के कार्मिक विभाग के सचिव के अनुसार इनमें से सिर्फ़ 80,000 लोग ही सिविल सर्विस को चलाते हैं और इनको ही सही मायने में डिसीजन मेकर कहा जा सकता है.
इनमें से 5600 आईएएस अधिकारी हैं. इनमें से अधिकतर राज्यों में काम करते हैं. दिल्ली में करीब 600 आईएएस अधिकारी तैनात रहते हैं जो मंत्रियों को सलाह देते हैं और राष्ट्रीय नीतियाँ बनाने में मुख्य भूमिका निभाते हैं.
कम तनख़्वाह के बावजूद एक आईएएस अधिकारी की भारत में जितनी इज़्ज़त होती है उतनी किसी भी नौकरी में नहीं. इस साल करीब दो लाख प्रतियोगियों में से 151 लोगों को आईएएस में चुना गया है.
भारत की नौकरशाही पर किताब लिखने वाले संजॉए बागची मानते हैं, "ज़रूरत से तवज्जो मिलने से ये लाज़मी है कि ये अधिकारी अपना संतुलन खो दें. कोई आश्चर्य नहीं होता जब शुरू के आदर्शवादी युवा वक्त के साथ-साथ अपनी हैसियत का रौब दिखाना सीख जाते हैं."
कुछ आलोचक मानते हैं कि समस्या की वजह ये है कि आईएएस में चुने जाने वालों का स्तर गिर रहा है. इसके लिए ज़िम्मेदार है शिक्षा का गिरता स्तर, निजी क्षेत्र से प्रतिभा के लिए प्रतिस्पर्धा और दिनों दिन बढ़ता राजनीतिक हस्तक्षेप.
सबसे बड़ा अधिकारी
अपने ज़िले में राजकमल चौधरी 65 सरकारी विभागों के मुखिया हैं. सामान्य प्रशासन के लिए उनका सरकारी बजट करीब 105 करोड़ रुपये सालाना है. उनकी मुख्य ज़िम्मेदारी राज्य में कानून और व्यवस्था बनाए रखना और भूमि कर वसूल करना है.
कानून और व्यवस्था बनाए रखने में उनकी मदद वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक करते हैं लेकिन पुलिस को कोई भी बड़ी कार्रवाई करने से पहले उनकी इजाज़त लेनी होती है.
इसके अलावा चुनाव और जनगणना करवाने की ज़िम्मेदारी भी उनकी ही होती है. प्राकृतिक आपदाओं में सरकारी मदद भी उनके ज़रिए ही लोगों के बीच पहुँचती है.
कलेक्टर की सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी होती है सरकार की कल्याण योजनाओं के लाभ को लोगों तक पहुँचाना.
राजकमल चौधरी की देखरेख में 30 कल्याणकारी योजनाओं का पैसा ख़र्च होता है जिनका सालाना बजट करीब 100 करोड़ के आसपास होता है.
तबादले की मार
पिछले साल उन्होंने नरेगा के अंतर्गत करीब 60 करोड़ रुपये लोगों को दिए हैं. भारत के भ्रष्ट प्रजातंत्र में कलेक्टर का बोझ उस समय और बढ़ जाता है जब उसे राजनीतिक दख़लंदाज़ी का सामना करना पड़ता है.
उत्तरी भारत में ये समस्या कुछ ज़्यादा है. भारत के संविधान के अनुसार राजनीतिज्ञों के लिए आईएएस अधिकारियों को नौकरी से निकालना बहुत कठिन है. इसकी क्लिक करेंभरपाई वो उनका तबादला या निलंबन कर के करते हैं.
मायावती ने अपने ज़माने में चार आईएएस अधिकारियों को सिर्फ़ इसलिए निलंबित कर दिया क्योंकि उन्होंने राहुल गाँधी की प्रशंसा में एक लेख लिखा था.
क्लिक करेंउत्तर प्रदेश हो या बिहार या मध्यप्रदेश या उड़ीसा, जब कोई नई सरकार सत्ता में आती है तो बड़े स्तर पर राज्यव्यापी तबादले किए जाते हैं.
साल 2003 में अपने एक साल के कार्यकाल में मध्यप्रदेश की मुख्यमंत्री उमा भारती ने राज्य के 296 आईएएस अधिकारियों में से 240 लोगों का तबादला किया.
इस सबसे निपटने के लिए केंद्रीय कार्मिक विभाग ने एक कोड बनाया कि आईएएस अधिकारियों को दो साल से पहले दूसरी जगह पर स्थानांतरित नहीं किया जा सकता. लेकिन कुछ गिने चुने प्रदेश ही इस कोड का पालन कर रहे हैं.
(प्रशासनिक अधिकारी की गोपनीयता को बरक़रार रखते हुए हमने उनकी पहचान, कार्यस्थल बदल दिए हैं.)
कहने को कलक्टर लेकिन कार्यकाल सिर्फ़ छह महीने @ रेहान फज़ल
रॉबर्ट वाडरा और डीएलएफ़ के बीच विवादास्पद भूमि सौदे को रद्द करने के चलते अशोक खेमका अपने पद से हटाए गए
आईएएस और अधिकारियों का निलंबन भले ही रोज़ रोज़ की बात न हो, लेकिन इनका तबादला एक आम बात है.
चाहे वो उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव हों, या हरियाण के मुख्यमंत्री भुपेंदर सिंह हुड्डा और या फिर तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता, सभी राज्य सरकार के इस अधिकार को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल करते हैं.
पिछले साल रॉबर्ट क्लिक करेंवाड्रा और डीएलएफ़ के बीच के विवादास्पद भूमि सौदे को रद्द करने के 24 घंटे के अंदर हरियाणा के आईएएस अधिकारी अशोक खेमका को लैंड होल्डिंग और रिकॉर्ड्स के महानिदेशक पद से हटा दिया गया.
इस पद पर वो मात्र 80 दिनों तक रह पाए. उनकी जगह तैनात किए गए अधिकारी खेमका का ट्रांसफ़र आदेश उन तक पहुँचने से पहले ही अपना पद संभालने पहुँच गए.
मज़े की बात ये है कि खेमका से कहा गया कि वो इस आदेश को सरकार की वेबसाइट से डाउनलोड कर लें. बीस साल के उनके आईएएस करियर में ये उनका 40 वाँ ट्रांसफ़र था.
तीस साल में 48 तबादले
आईएएस में खेमका अकेले अफ़सर नहीं हैं जिन्हें क्लिक करेंनौकरशाही की भाषा में ‘पनिशमेंट पोस्टिंग’से दो चार होना पड़ा है. 1979 बैच के ईमानदार अफ़सर विजयशंकर पांडेय ने अपने 30 साल के करियर में 48 ट्रांसफ़र झेले हैं. पिछले दो सालों से वो लखनऊ में राजस्व बोर्ड की पोस्टिंग पर हैं जिसे नेताओं की लाइन पर न चलने वालों के लिए ‘डंपिंग ग्राउंड’ माना जाता है.
ये वही विजयशंकर पांडेय हैं जिन्होंने 1996 में राज्य के तीन सबसे भ्रष्ट अफ़सरों को पहचानने की मुहिम चलाई थी. तमिलनाडु में कोऑपटेक्स के प्रबंध निदेशक डी सगयम ने पिछले साल 16,000 करोड़ के मदुराई ग्रेनाइट घोटाले का पता लगाया था. उनको भी पिछले 20 सालों में 18 बार ट्रांसफ़र किया गया है.
नोयडा की एसडीएम दुर्गा शक्ति नागपाल को निलंबित किए जाने का मुद्दा काफी गर्माया लेकिन इस मुद्दे पर जिलाधिकारी रविकांत सिंह का तबादला हो गया.
एक और आईएएस ऑफ़िसर विजय सिंह दाहिया को गुड़गांव नगरपालिका के आयुक्त का पद भार लेने के 37 दिनों के अंदर स्थानांतरित कर दिया गया. रिटायर्ड आईएएस ऑफ़िसर मनोहर सुब्रमणियम कहते हैं कि उत्तर प्रदेश में एक ज़िला कलेक्टर का औसत कार्यकाल घट कर सिर्फ़ छह महीने रह गया है जबकि देश में ये औसत नौ महीनों का है.
एक ज़माना था कि ज़िला कलेक्टर का कार्यकाल तीन साल और प्रधान सचिव का कार्यकाल दो साल हुआ करता था.
आजकल तो क्लेक्टर को अपने आप को बहुत भाग्यशाली समझना चाहिए अगर वो एक ज़िले में कुछ महीनों से ज़्यादा रह जाए.
प्रधान सचिव भी अपने पदों पर तभी उपयुक्त समय तक रह सकते हैं अगर वो अपने राजनीतिक आक़ाओं के एजेंडे को पूरा करने में अपनी सारी ताक़त झोंक दें.
मायावती-मुलायम सभी ज़िम्मेदार
उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्य सचिव वी के मित्तल का मानना है कि हाल के सालों में राजनीतिक नेतृत्व का परिपक्वता स्तर कम हुआ है. नेता लोग अफ़सरों की बात सुनने को तैयार नहीं हैं चाहे वो उनके व सार्वजनिक हित ही में क्यों न हो.
आज ये मान कर चला जाता है कि अगर सरकार बदलती है तो नौकरशाही में भारी फेरबदल होना लाज़िमी है. जब पिछले साल समाजवादी पार्टी उत्तर प्रदेश में सत्ता में आई तो उसने सबसे पहला काम किया 279 आईएएस अधिकारियों का एक मुश्त तबादला. साल 1997 में मुख्यमंत्री मायावती ने एक दिन में 229 अधिकारियों का तबादला किया था.
वर्ष 2004 में अखिलेश के पिता मुलायम सिंह यादव ने भी एक दिन में 150 अधिकारियों को बोरिया बिस्तर बाँधने पर मजबूर कर दिया था.
मायावती ने 1997 में एक दिन में 279 आईएएस अधिकारियों का तबादला किया था.
किसी क्लिक करेंआईएएस अधिकारी को नौकरी से निकालनाएक जटिल प्रक्रिया होती है. ऐसे में अगर कोई नेता किसी अफ़सर को पसंद नहीं करता है तो उसका तबादला कर उसे तंग और अपमानित करना उसके लिए अपेक्षाकृत आसान होता है. अब तो सरकारों की पहचान जातियों से होने लगी है इसलिए वो अपने समर्थकों को ये जतलाना चाहते हैं कि उनकी जाति के लोगों को अच्छी पोस्टिंग दी जा रही है.
ऐसा भी होता है कि जब राजनीतिज्ञ जनता से किए हुए अपने किए हुए वादे पूरे नहीं कर पाते तो वो अफ़सरों को बलि का बकरा बनाते हैं. एक वरिष्ठ आईएएस अधिकारी नाम न बताए जाने की शर्त पर कहते हैं, "वो ये दिखाना चाहते हैं कि फ़लां अफ़सर ढंग से काम नहीं कर पाया इसलिए उसे हटाया जा रहा है."
महाराष्ट्र के अतिरिक्त मुख्य सचिव (राजस्व) स्वाधीन क्षत्रीय कहते हैं कि उनके राज्य में अब राजनीति के आधार पर आईएएस अधिकारियों के तबादले नहीं किए जाते.
महाराष्ट्र शायद देश का अकेला राज्य है जहाँ ये क़ानून है कि हर अधिकारी का किसी पद पर सामान्य कार्यकाल तीन वर्षों का होगा. लेकिन इसके बावजूद आठ साल पहले मनीषा वर्मा को सोलापुर के ज़िला कलेक्टर के पद से हटा दिया गया था.
उनकी ग़लती थी कि उन्होंने पता लगा लिया था कि ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना को बिना प्रशासनिक स्वीकृति के चलाया जा रहा था और उन ग्रामीणों के नाम पर पैसा लिया जा रहा था जो यो तो मर चुके थे या बहुत पहले ही गांवों से जा चुके थे.
क्लिक करेंआदर्श घोटाला सामने आने केबाद उस समय महाराष्ट्र के मुख्य मंत्री विलास राव देशमुख ने अपने क़रीब के कुछ आईएएस अधिकारियों को बचाने की कोशिश की थी.
‘पार्किंग स्थल’
राजनीतिक दल पहले से ही उन ‘पार्किंग स्थलों’ को चुन लेते हैं जहाँ बात न मानने वाले आएएस अधिकारियों को पटका जाएगा. एक दशक पहले तक बहुत से सामाजिक क्षेत्र के मंत्रालय इस तरह के पार्किंग स्थलों में आते थे.
अखिलेश के शासन में भी आईएएस अधिकारियों के तबादले जारी हैं.
लेकिन अब नेता भी समझने लगे हैं कि इन क्षेत्रों में अच्छा काम उनके लिए वोट ला सकते हैं. एक और आईएएस अधिकारी नाम न बताए जाने की शर्त पर कहते हैं, "इसके लिए सिर्फ़ नेताओं को ही दोष देना ठीक नहीं होगा. वरिष्ठ अधिकारी ख़ुद ही आगे बढ़ कर वो सब कुछ करने के लिए तैयार रहते हैं जो नेता उनसे कराना चाहते हैं. अगर नेता अपने हरम में नंगे नाचना भी चाहते हैं तो वफ़ादार आईएएस अधिकारी उसकी व्यवस्था भी करवाने के लिए तैयार रहते हैं."
एक और आईएएस अधिकारी का मानना है कि सरकार में रहने वालों और आम आदमी के ईमानदारी के पैमाने में फ़र्क है. वे कहते हैं, "नेताओं की नज़र में वो अधिकारी बेईमान नहीं है जो अपनी आंखें बंद रखता है."
एक और अधिकारी के अनुसार नेता और नौकरशाह के बीच एक अलिखित समझौता होता है कि वो सरकारी भूमि पर हर ग़ैर कानूनी अतिक्रमण की तरफ़ से आँख मूंद लेगा. जब नेताओं को लगता है कि इस समझौते का पालन नहीं किया जा रहा, अफ़सर उसकी निगाहों से उतर जाता है और दोनों के बीच तनाव शुरू हो जाता है.
एक और अधिकारी यहाँ तक कहते हैं कि कई राज्यों में तो बाक़ायदा ट्रांसफ़र उद्योग चल रहे हैं. उन्होंने गोपनीयता के साथ बताया, "कुछ पदों की तो बाक़ायदा बोली लगाई जाती है. कुछ पद अपने क़रीबियों को दिए जाते हैं. कार्मिक विभाग के सचिव पद का क़ाबलियत से कोई लेना देना नहीं होता. वो पद हमेशा राजनीतिक होता है क्योंकि वो राजनीतिक आक़ाओं की मनमर्ज़ी को पूरा करता है."
मज़े की बात ये है कि क्लिक करेंउत्तर प्रदेश सरकार ने दो साल पहले सुप्रीम कोर्ट मेंबाक़ायदा हलफ़नामा दायर कर कहा हुआ है कि वो आईएएस और पीसीएस अधिकारियों का दो साल का कार्यकाल रखने के लिए प्रतिबद्ध है.
लेकिन ये प्रतिबद्धता सिर्फ़ कागज़ों पर ही सीमित रही है. नोएडा के डीएम रविकांत सिंह का तबादला इसका ताज़ा उदाहरण है. उनको चार्ज संभालने के कुछ महीनों को अंदर उनके पद से सिर्फ़ इस लिए स्थानांतरित कर दिया गया क्योंकि उन्होंने अपनी मातहत एसडीएम दुर्गा शक्ति नागपाल को क्लीन चिट देने की जुर्रत की थी.
इन्होंने 'नो मिनिस्टर' कहने का साहस दिखाया @ रेहान फ़ज़ल
बिशन नारायण टंडन उत्तर प्रदेश काडर के 1951 बैच के आईएएस अधिकारी थे. वो 1969 से 1976 तक प्रधानमंत्री कार्यालय में संयुक्त सचिव हुआ करते थे.
इससे पहले वो दिल्ली में उपायुक्त थे और उन्होंने ही राजीव और सोनिया गाँधी के विवाह को पंजीकृत कराया था.
प्रधानमंत्री कार्यालय में उनके कार्यकाल के दौरान इंदिरा गाँधी के काम करने की शैली को उन्होंने पसंद नहीं किया था. उनका मानना था कि वो देश को ग़ेलत राह पर ले जा रही हैं और उन्होंने अपने बेटे संजय गाँधी को सत्ता और प्रभाव का दुरुपयोग करने दिया.
साल 1976 में उन्हें अतिरिक्त सचिव बनाकर संस्कृति विभाग में भेज दिया गया. साल 1980 में जब इंदिरा क्लिक करेंगाँधी सत्ता में वापसआईं तो उन्होंने ये फ़ैसला किया कि केंद्र में टंडन को न तो कोई पदोन्नति मिलेगी और न ही उनकी कोई नियुक्ति होगी.
साथ ही उन्होंने उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्रीपति मिश्र को भी निर्देश दिया कि उन्हें राज्य में भी पदोन्नत न किया जाए और न ही कोई महत्वपूर्ण पद दिया जाए.
आख़िरकार उन्होंने समय से पहले ही साल 1983 में स्वैच्छिक अवकाश ले लिया.
सख़्त कार्रवाई का सिला
राजीव गाँधी के कार्यकाल के दौरान विनोद पांडेय वित्त मंत्रालय में राजस्व विभाग में सचिव और भूरे लाल वित्त मंत्रालय में ही प्रवर्तन निदेशालय में निदेशक थे.
तत्कालीन वित्त मंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह की देखरेख में इन दोनों ने कर चोरी करने वालों के ख़िलाफ़ सख़्त कार्रवाई करने का बीड़ा उठाया.
थापर, बाटा, लिप्टन, वोल्टास और किर्लोस्कर के दफ़्तरों पर छापे मारे गए. राजीव गाँधी के क्लिक करेंनज़दीकी दोस्त अमिताभ बच्चन और उनके भाई अजिताभ बच्चन को भी विदेशी मुद्रा अधिनियम के उल्लंघन के आरोप में जाँच के दायरे में ले लिया गया और धीरूभाई अंबानी के पेट्रोलियम कारख़ाने की जांच भी शुरू कर दी गई.
भूरे लाल की पहचान अपनी अंतरात्मा की आवाज़ पर काम करने वाले अफ़सर की रही है.
कुछ ही दिनों में न सिर्फ़ वीपी सिंह को वित्त मंत्रालय से हटा कर रक्षा मंत्रालय में भेज दिया गया और भूरे लाल से प्रवर्तन निदेशालय ले लिया गया बल्कि उन्हें राजस्व मंत्रालय से हटा कर आर्थिक मामलों के मंत्रालय के साथ संबद्ध कर दिया गया.
विनोद पांडेय का भी हश्र काफ़ी बुरा रहा. उन्हें राजस्व मंत्रालय से हटा कर ग्रामीण विकास जैसे कम महत्वपूर्ण मंत्रालय भेज दिया गया.
पूरा मंत्रिमंडल उनके इतना ख़िलाफ़ हो गया कि एक बार जब उनके मंत्रालय के किसी प्रस्ताव पर चर्चा हो रही थी तो कुछ मंत्रियों ने उनसे बहुत अभद्र ढ़ंग से सवाल पूछे.
पांडेय ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखाई लेकिन धीरे से ये ज़रूर कहा कि अगर सरकार उनके काम से ख़ुश नहीं है तो वो वापस अपने गृह काडर राजस्थान जाने के लिए तैयार हैं. बाद में जब वीपी सिंह प्रधानमंत्री बने तो यही विनोद पांडेय कैबिनेट सचिव बने और भूरे लाल को प्रधानमंत्री कार्यालय में संयुक्त सचिव बनाया गया.
प्रेस कांफ़्रेंस में बर्ख़ास्तगी
21 जनवरी 1987 को तत्कालीन क्लिक करेंप्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने विदेश सचिव ए पी वेंकटेश्वरन को बहुत अपमानजनक परिस्थतियों में एक प्रेस कान्फ़्रेंस के दौरान बर्ख़ास्त किया.
जब एक पाकिस्तानी पत्रकार ने उनसे सवाल किया कि पाकिस्तान की भावी यात्रा के बारे में आपके और आपके विदेश सचिव के विचारों में इतना फ़र्क क्यों है तो राजीव गाँधी ने जवाब दिया कि जल्द ही आप नए विदेश सचिव से बात करेंगे. अपमानित वेंकटेश्वरन ने उसी दिन अपना त्यागपत्र भेज दिया.
महाराष्ट्र में धूलिया के कलेक्टर अरुण भाटिया ने साल 1982 में जब राज्य रोज़गार गारंटी योजना में हो रही धांधलियों का पर्दाफ़ाश किया तो इसका फल उन्हें भुगतना पड़ा.
आंध्र प्रदेश में बिजली सचिव के तौर पर काम कर रहे ईएएस सरमा ने बिजली उत्पादकों के साथ एक समझौते पर दस्तख़त करने से मना कर दिया.
राजीव गांधी ने एक विदेश सचिव को एक प्रेस कांफ़्रेंस के दौरान ही बर्ख़ास्त कर दिया था.
ज़ाहिर है राज्य सरकार ने इसे पसंद नहीं किया और सरमा को इसकी क़ीमत चुकानी पड़ी.
29 साल में 39 तबादले
बिहार में साल 2009 में आईएएस अधिकारी मनोजनाथ ने बिहार राज्य विद्युत बोर्ड के लोगों और बिजली चोरी करने वालों के बीच गठजोड़ को तोड़ने की कोशिश की थी जिसका उन्हें नुक़सान उठाना पड़ा था.
29 साल के करियर में उनका 39 बार तबादला किया गया.
1979 बैच के आईएएस अधिकारी के जी अल्फॉन्स ने दिल्ली विकास प्राधिकरण के आयुक्त के तौर पर अवैध निर्माण के ख़िलाफ़ मुहिम चलाई थी. उन्हें डिमॉलिशन मैन की पदवी ज़रूर दी गई थी लेकिन राजनीतिक गलियारों में उनके दुस्साहस को हिक़ारत की नज़र से देखा गया था.
कर्नाटक काडर के वी बालसुब्रमणियम ने साल 2011 में एक रिपोर्ट में राज्य सरकार को ज़मीन हड़पने को दोषी ठहराया था. राज्य सरकार ने उस रिपोर्ट को छापने से इंकार कर दिया था.
बाद में उन्होंने अपने पैसे से उस रिपोर्ट को छपवाया और उसकी 2,000 प्रतियां बांटीं.
मुंबई नगर निगम के पूर्व उपायुक्त जीआर खैरनार ने दाऊद इब्राहिम की 29 इमारतों को गिराया. उन्होंने इस्टैबलिशमेंट को इतना नाराज़ कर दिया कि उन्हें साल 1994 में छह सालों के लिए निलंबित कर दिया गया.
इसी कड़ी में बिहार के एक पूर्व मुख्य सचिव स्वर्गीय वीके वी पिल्लै का उदाहरण देना अनुचित नहीं होगा. एक बार बिहार के सार्वजनिक कार्य मंत्री ने बहुत ही सतही कारणों से मुख्य अभियंता को अपने पुराने पद पर तैनात कर दिया.
मुख्य सचिव पिल्लै ने तुरंत मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह से न सिर्फ़ मुलाक़ात की बल्कि इस फ़ैसले का विरोध करते हुए राज्य के सारे सचिवों के इस्तीफ़ा उन्हें सौंप दिए.
नतीजा ये रहा कि मुख्य अभियंता को न सिर्फ़ वापस अपने पद पर बुलाया गया बल्कि मंत्री को उनकी गुस्ताख़ी के लिए बाक़ायदा डांट पिलाई गई और आधिकारिक चेतावनी भी दी गई. आज कल के युग में क्या राजनीतिक नेतृत्व से इस तरह के क़दम की उम्मीद की जा सकती है|
बदल गई है बड़े साहबों की दुनिया
असली बड़े साहब तो आईसीएस वाले थे. ये वो लोग थे जो भव्य कोठियों में राजसी ठाठबाठ के साथ रहा करते थे.
बियर के अनगिनत दौरों के साथ पांच कोर्स का लंच इनकी दिनचर्या में शामिल होता था. दोपहर के बाद पंखा ब्वाय द्वारा की जाने वाली हवा में वो ऊंघते सुस्ताते, शाम को टेनिस खेलते और खाने से पहले ब्रिज.
उनके मुँह से निकला मामूली शब्द भी क़ानून होता. उस शब्द को लाठी, तलवार, कोड़े और बंदूक़ के दम पर मनवाने के लिए सरकार का तमाम लाव-लश्कर मौजूद होता.
अपने बेंत के सिंहासन पर बैठकर वो दहाड़ते, ''अरे! कोई है?" और उनके इर्दगिर्द मौजूद ख़ानसामों, जमादारों और चपरासियों के बीच उन तक पहुँचने की होड़ लग जाती.
उनका नाम भी याद रखना वो अपनी शान के ख़िलाफ़ समझते थे. उनके कपड़े लंदन में सेवाइल रो में सिलते.
लाट साहब का रौब
हिंदुस्तानियों के आईसीएस में घुसने के बाद उदय हुआ भूरे बड़े साहबों का. गोरा साहब भले ही कभी-कभार अपनी मूँछ नीची कर रहीमबख़्श ख़िदमतदगार को पुकार लेता, अधनंगे फ़कीर गाँधी को सज़ा सुनाते समय उनकी तारीफ़ कर देता या ठेठ उर्दू बोलने की कोशिश करता.
लेकिन भूरा साहब क्रूर व्यवस्था का अंग होने पर शर्मसार होने के बावजूद ब्रिटिश राज के गर्भ गृह में सेंध लगाने पर गौरवान्वित महसूस करता. उसे हमेशा ये डर कचोटता कि कहीं उससे कोई भूल न हो जाए. इसलिए वो क्वींज़ इंग्लिश बोलता, ऊपरी होंठ मुश्किल से खोलता और अफ़सराना गुणों का प्रदर्शन करता.
भूरे साहब के ख़्वाबो-ख़्याल में ये बात कभी नहीं आई कि काला सूट गोरे रंग पर ही फबता है, क्योंकि ये गुलाबी लिए सफ़ेद रंग को और निखारता है.
उसे इस बात का अंदाज़ा ही नहीं होता कि काले रंग पर काला सूट पहनने का मतलब है, शक्ल का बिल्कुल ग़ायब हो जाना. ज़ायकेदार आमों को प्लेट में क़रीने से सजाने के पीछे जो बेतुकापन है, उसका ध्यान उस ओर कभी नहीं जाता. उसको इसका पता ही नहीं था कि ये फल हाथ में लेकर होठों से चूसने की चीज़ है.
उसे ये बात भी सामान्य लगती थी कि आलू के पराठे को कांटे और छुरी से खाया जाए. वो पापड़ को बिना आवाज़ खाने के कौशल जैसी बेकार की बातों के लिए अपनी नींद हराम किए रहता था.
फिर देश आज़ाद हुआ. आईसीएस की भर्ती बंद कर दी गई और उसकी जगह शुरू हुआ आईएएस का चलन.
‘बड़े साहब’ के भूत को दफ़न करने का ये बेहतरीन मौक़ा हो सकता था लेकिन ये मौक़ा भी हाथ से निकल जाने दिया गया.
अंग्रेजों की नक़ल
आईसीएस अधिकारी बहुत दिनों तक अपनी पुरानी छवि को बरक़रार रखे रहे और आईएएस में आने वाले नए रंगरूटों के आदर्श बने रहे.
भूरे बड़े साहबों की तरह अंग्रेज़ों की नक़ल करने की कोशिश की. नतीजा ये हुआ कि वो प्रतिलिपि की प्रतिलिपि बन कर रह गए.
कितनी ही बैठकों और समितियों के गठन के बाद सरकार ने तय किया कि इन सेवाओं में ग़रीब परिवारों, ग्रामीण क्षेत्रों, दलितों और पिछड़े तबक़े के प्रतिभाशाली लड़के-लड़कियों को भी लाया जाए.
इंटरव्यू में पास होना अब ज़रूरी नहीं रह गया था. नए प्रोबेशनर्स को सही मूल्य और दृष्टिकोण सिखाने के लिए मसूरी में राष्ट्रीय प्रशासन अकादमी खोल दी गई.
हुआ ये कि हरियाणा के एक गाँव के महावीर सिंह आईएएस बन गए. वो पांचों उंगलियों से सरसों का साग, मक्के की रोटी और देसी घी खाने के शौक़ीन थे.
एक आम आईएएस अधिकारी की छवि का चित्रण.
ऊपर से लस्सी, शर्बत और कांजी भी गला तर करने के लिए पीते. खद्दर की धोती और कुर्ता पहनते और नित्यक्रिया के लिए लोटा ले कर खुले खेत में जाते.
इस तरह का आदमी किसी ज़िले का कलेक्टर कैसे हो सकता था? उसका तौर तरीक़ा बिल्कुल एक आम हिंदुस्तानी जैसा था.
महावीर की मिसाल
ऐसे में उसकी इज़्ज़त कौन कर सकता था ? वो अपने हर वाक्य में ठेठ हरियाणवी में लोगों की ‘माँ बहन’ का ज़िक्र करता. आख़िर ये कब तक चलता.
धीरे-धीरे महावीर को उदाहरण और दोस्तों के दबाव में साहबी के तौर तरीक़े सिखाए गए.
अब वो शालीनता के साथ डाइनिंग चेयर पर बैठता. उसकी गोद में नैपकिन होती, कोहनियाँ मेज़ पर नहीं होतीं और वो कांटे-छुरी का सही इस्तेमाल करता.
लंच पर वो ठंडी बियर मंगवाता, दोपहर में जिन के साथ नींबू लेता और शाम को सोडे के साथ विहस्की पीता.
उसको अब इस बात की तमीज़ आ गई थी कि लाल मांस के साथ रेड वाइन और सफ़ेद माँस के साथ व्हाइट वाइन पी जाती है.
अब उसका पहनावा था, नीला ब्लेज़र या भूरे या सिलेटी रंग का थ्री पीस सूट, कफ़लिंक्स, टाईपिन और बांई जेब में लाल रंग का सिल्क का रूमाल.
उसने अपने दोस्त हरि की ‘हैरी’ कहलवाने की इच्छा को ख़ुशी ख़ुशी मान लिया. देखते ही देखते ग्रोवर ‘ग्रूवी’ बन गया और ज्योति ‘जो जो.’
उसके दो बच्चे हुए जिनका दाख़िला उसने सीधे सनावर के स्कूल में कराया जहाँ बड़े-बड़े उद्योगपतियों, फ़िल्मी और खेल जगत के सितारों और राजनीतिक हस्तियों के बच्चे उनके सहपाठी थे.
इलीट् क्लास
महावीर का बातचीत करने का खुला और बड़बोला अंदाज़ कहीं पीछे छूट गया था. उसके लहजे में अब ठंडापन और औपचारिकता आ गई थी जिससे अब उससे संवाद आगे बढ़ाना मुश्किल हो चुका था.
अब उसको हलकी फुलकी बातचीत में मुश्किल आने लगी थी. अब वो नख़रेबाज़, बात-बात पर नाक भौं सिकोड़ने वाला इंसान बन चुका था जिसके माथे पर हमेशा बल पड़े रहते थे. अब चिकोटी काटने पर उसके मुंह से ’उई’ की जगह ‘आउच’ निकलता था.
आज महावीर एक तोंदू और अधेड़ इंसान दिखाई देता है. उसका एक हाथ पैंट की जेब में होता है और दूसरे हाथ में उसने पाइप पकड़ रखा है.
उसमें वो देहाती महावीर बिल्कुल नदारद है जिसका बाप एक मामूली किसान और माँ अनपढ़ गंवार हुआ करती थी. अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि को ले कर वो हमेशा शर्मसार रहता. उन्हें मां बाप मानना भी उसे गवारा नहीं था.
एक बार उसके यहाँ चल रही पार्टी के दौरान वो दोनों अचानक बिना बताए आ पहुंचे थे और उसने उन्हें जल्दी-जल्दी पीछे के कमरे में पहुंचा दिया था ताकि कोई उन्हें देख न पाए.
अब इक्कीसवीं सदी के बड़े ‘साहब’ के वो जलवे कहाँ! अब कोई ख़िदमतगार ही नहीं हैं जिसे वो ''कोई है" कह कर पुकार सके.
उसकी क्लिक करेंनौकरी से सारी शक्तियाँ निचोड़ली गई हैं. अब नोट भी उसे लिखना पड़ता है और प्रस्ताव को मंज़ूरी भी उसे देनी पड़ती है. जब कोई फ़ाइल बम की तरह फटती है तो उसका शिकार भी वो ख़ुद बनता है.
उच्च कोटि का दंभ
वो नाक पर मक्खी नहीं बैठने देता. उच्च कोटि का दंभी है, मानो वही एक देवलोक से उतरा है. वो आम लोगों के साथ बातचीत करना पसंद नहीं करता.
अक्सर किसी पार्टी में उसे धीमे से ये पूछते पाया जा सकता है, "कौन सी सेवा से हैं आप ?" अगर जवाब मिले ‘रेलवे ट्रैफ़िक’ या ऐसी ही कोई सेवा, तो उसकी भौहें थोड़ी सिकुड़ती हैं और उसकी आंखों में हिक़ारत की एक पतली सी लकीर हिचकोले लेने लगती है.
उसके मुँह से बरबस निकलता है "ओह'' और आगे के शब्द उसके मुंह से निकल ही नहीं पाते और वो जल्दी-जल्दी उस ओर बढ़ जाता है जहाँ उसकी बराबरी के लोग खड़े हैं.
एक कार्टूनिस्ट से कहा जाए तो वो एक औसत आईएएस अधिकारी का चित्र बनाते हुए उसे गोलमटोल, औपचारिक और ज़रूरत से ज़्यादा पोशाक पहने हुए, एक ख़ास अंदाज़ में सिगार पीते हुए, हर चीज़ को न कहते हुए और लालफ़ीताशाही के फ़ीतों में उलझा हुआ दिखाता है. वो नेताओं के आगे पीछे मंडराता है, गिरगिट की तरह रंग बदलता है और सत्ता के लिए जोड़तोड़ करता हुआ दिखाई देता है.
कोई कह नहीं सकता कि उसकी ये कार्टूनी तस्वीर असलियत से बहुत दूर है.
(एमके कॉव भारत सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय और नागरिक उड्डयन मंत्रालय के सचिव रहे हैं. उन्होंने भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों की छवि का चित्रण किया है.)
बदल गई है बड़े साहबों की दुनिया @ एमके कॉव
असली बड़े साहब तो आईसीएस वाले थे. ये वो लोग थे जो भव्य कोठियों में राजसी ठाठबाठ के साथ रहा करते थे.
बियर के अनगिनत दौरों के साथ पांच कोर्स का लंच इनकी दिनचर्या में शामिल होता था. दोपहर के बाद पंखा ब्वाय द्वारा की जाने वाली हवा में वो ऊंघते सुस्ताते, शाम को टेनिस खेलते और खाने से पहले ब्रिज.
उनके मुँह से निकला मामूली शब्द भी क़ानून होता. उस शब्द को लाठी, तलवार, कोड़े और बंदूक़ के दम पर मनवाने के लिए सरकार का तमाम लाव-लश्कर मौजूद होता.
अपने बेंत के सिंहासन पर बैठकर वो दहाड़ते, ''अरे! कोई है?" और उनके इर्दगिर्द मौजूद ख़ानसामों, जमादारों और चपरासियों के बीच उन तक पहुँचने की होड़ लग जाती.
उनका नाम भी याद रखना वो अपनी शान के ख़िलाफ़ समझते थे. उनके कपड़े लंदन में सेवाइल रो में सिलते.
लाट साहब का रौब
हिंदुस्तानियों के आईसीएस में घुसने के बाद उदय हुआ भूरे बड़े साहबों का. गोरा साहब भले ही कभी-कभार अपनी मूँछ नीची कर रहीमबख़्श ख़िदमतदगार को पुकार लेता, अधनंगे फ़कीर गाँधी को सज़ा सुनाते समय उनकी तारीफ़ कर देता या ठेठ उर्दू बोलने की कोशिश करता.
लेकिन भूरा साहब क्रूर व्यवस्था का अंग होने पर शर्मसार होने के बावजूद ब्रिटिश राज के गर्भ गृह में सेंध लगाने पर गौरवान्वित महसूस करता. उसे हमेशा ये डर कचोटता कि कहीं उससे कोई भूल न हो जाए. इसलिए वो क्वींज़ इंग्लिश बोलता, ऊपरी होंठ मुश्किल से खोलता और अफ़सराना गुणों का प्रदर्शन करता.
भूरे साहब के ख़्वाबो-ख़्याल में ये बात कभी नहीं आई कि काला सूट गोरे रंग पर ही फबता है, क्योंकि ये गुलाबी लिए सफ़ेद रंग को और निखारता है.
उसे इस बात का अंदाज़ा ही नहीं होता कि काले रंग पर काला सूट पहनने का मतलब है, शक्ल का बिल्कुल ग़ायब हो जाना. ज़ायकेदार आमों को प्लेट में क़रीने से सजाने के पीछे जो बेतुकापन है, उसका ध्यान उस ओर कभी नहीं जाता. उसको इसका पता ही नहीं था कि ये फल हाथ में लेकर होठों से चूसने की चीज़ है.
उसे ये बात भी सामान्य लगती थी कि आलू के पराठे को कांटे और छुरी से खाया जाए. वो पापड़ को बिना आवाज़ खाने के कौशल जैसी बेकार की बातों के लिए अपनी नींद हराम किए रहता था.
फिर देश आज़ाद हुआ. आईसीएस की भर्ती बंद कर दी गई और उसकी जगह शुरू हुआ आईएएस का चलन.
‘बड़े साहब’ के भूत को दफ़न करने का ये बेहतरीन मौक़ा हो सकता था लेकिन ये मौक़ा भी हाथ से निकल जाने दिया गया.
अंग्रेजों की नक़ल
आईसीएस अधिकारी बहुत दिनों तक अपनी पुरानी छवि को बरक़रार रखे रहे और आईएएस में आने वाले नए रंगरूटों के आदर्श बने रहे.
भूरे बड़े साहबों की तरह अंग्रेज़ों की नक़ल करने की कोशिश की. नतीजा ये हुआ कि वो प्रतिलिपि की प्रतिलिपि बन कर रह गए.
कितनी ही बैठकों और समितियों के गठन के बाद सरकार ने तय किया कि इन सेवाओं में ग़रीब परिवारों, ग्रामीण क्षेत्रों, दलितों और पिछड़े तबक़े के प्रतिभाशाली लड़के-लड़कियों को भी लाया जाए.
इंटरव्यू में पास होना अब ज़रूरी नहीं रह गया था. नए प्रोबेशनर्स को सही मूल्य और दृष्टिकोण सिखाने के लिए मसूरी में राष्ट्रीय प्रशासन अकादमी खोल दी गई.
हुआ ये कि हरियाणा के एक गाँव के महावीर सिंह आईएएस बन गए. वो पांचों उंगलियों से सरसों का साग, मक्के की रोटी और देसी घी खाने के शौक़ीन थे.
एक आम आईएएस अधिकारी की छवि का चित्रण.
ऊपर से लस्सी, शर्बत और कांजी भी गला तर करने के लिए पीते. खद्दर की धोती और कुर्ता पहनते और नित्यक्रिया के लिए लोटा ले कर खुले खेत में जाते.
इस तरह का आदमी किसी ज़िले का कलेक्टर कैसे हो सकता था? उसका तौर तरीक़ा बिल्कुल एक आम हिंदुस्तानी जैसा था.
महावीर की मिसाल
ऐसे में उसकी इज़्ज़त कौन कर सकता था ? वो अपने हर वाक्य में ठेठ हरियाणवी में लोगों की ‘माँ बहन’ का ज़िक्र करता. आख़िर ये कब तक चलता.
धीरे-धीरे महावीर को उदाहरण और दोस्तों के दबाव में साहबी के तौर तरीक़े सिखाए गए.
अब वो शालीनता के साथ डाइनिंग चेयर पर बैठता. उसकी गोद में नैपकिन होती, कोहनियाँ मेज़ पर नहीं होतीं और वो कांटे-छुरी का सही इस्तेमाल करता.
लंच पर वो ठंडी बियर मंगवाता, दोपहर में जिन के साथ नींबू लेता और शाम को सोडे के साथ विहस्की पीता.
उसको अब इस बात की तमीज़ आ गई थी कि लाल मांस के साथ रेड वाइन और सफ़ेद माँस के साथ व्हाइट वाइन पी जाती है.
अब उसका पहनावा था, नीला ब्लेज़र या भूरे या सिलेटी रंग का थ्री पीस सूट, कफ़लिंक्स, टाईपिन और बांई जेब में लाल रंग का सिल्क का रूमाल.
उसने अपने दोस्त हरि की ‘हैरी’ कहलवाने की इच्छा को ख़ुशी ख़ुशी मान लिया. देखते ही देखते ग्रोवर ‘ग्रूवी’ बन गया और ज्योति ‘जो जो.’
उसके दो बच्चे हुए जिनका दाख़िला उसने सीधे सनावर के स्कूल में कराया जहाँ बड़े-बड़े उद्योगपतियों, फ़िल्मी और खेल जगत के सितारों और राजनीतिक हस्तियों के बच्चे उनके सहपाठी थे.
इलीट् क्लास
महावीर का बातचीत करने का खुला और बड़बोला अंदाज़ कहीं पीछे छूट गया था. उसके लहजे में अब ठंडापन और औपचारिकता आ गई थी जिससे अब उससे संवाद आगे बढ़ाना मुश्किल हो चुका था.
अब उसको हलकी फुलकी बातचीत में मुश्किल आने लगी थी. अब वो नख़रेबाज़, बात-बात पर नाक भौं सिकोड़ने वाला इंसान बन चुका था जिसके माथे पर हमेशा बल पड़े रहते थे. अब चिकोटी काटने पर उसके मुंह से ’उई’ की जगह ‘आउच’ निकलता था.
आज महावीर एक तोंदू और अधेड़ इंसान दिखाई देता है. उसका एक हाथ पैंट की जेब में होता है और दूसरे हाथ में उसने पाइप पकड़ रखा है.
उसमें वो देहाती महावीर बिल्कुल नदारद है जिसका बाप एक मामूली किसान और माँ अनपढ़ गंवार हुआ करती थी. अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि को ले कर वो हमेशा शर्मसार रहता. उन्हें मां बाप मानना भी उसे गवारा नहीं था.
एक बार उसके यहाँ चल रही पार्टी के दौरान वो दोनों अचानक बिना बताए आ पहुंचे थे और उसने उन्हें जल्दी-जल्दी पीछे के कमरे में पहुंचा दिया था ताकि कोई उन्हें देख न पाए.
अब इक्कीसवीं सदी के बड़े ‘साहब’ के वो जलवे कहाँ! अब कोई ख़िदमतगार ही नहीं हैं जिसे वो ''कोई है" कह कर पुकार सके.
उसकी क्लिक करेंनौकरी से सारी शक्तियाँ निचोड़ली गई हैं. अब नोट भी उसे लिखना पड़ता है और प्रस्ताव को मंज़ूरी भी उसे देनी पड़ती है. जब कोई फ़ाइल बम की तरह फटती है तो उसका शिकार भी वो ख़ुद बनता है.
उच्च कोटि का दंभ
वो नाक पर मक्खी नहीं बैठने देता. उच्च कोटि का दंभी है, मानो वही एक देवलोक से उतरा है. वो आम लोगों के साथ बातचीत करना पसंद नहीं करता.
अक्सर किसी पार्टी में उसे धीमे से ये पूछते पाया जा सकता है, "कौन सी सेवा से हैं आप ?" अगर जवाब मिले ‘रेलवे ट्रैफ़िक’ या ऐसी ही कोई सेवा, तो उसकी भौहें थोड़ी सिकुड़ती हैं और उसकी आंखों में हिक़ारत की एक पतली सी लकीर हिचकोले लेने लगती है.
उसके मुँह से बरबस निकलता है "ओह'' और आगे के शब्द उसके मुंह से निकल ही नहीं पाते और वो जल्दी-जल्दी उस ओर बढ़ जाता है जहाँ उसकी बराबरी के लोग खड़े हैं.
एक कार्टूनिस्ट से कहा जाए तो वो एक औसत आईएएस अधिकारी का चित्र बनाते हुए उसे गोलमटोल, औपचारिक और ज़रूरत से ज़्यादा पोशाक पहने हुए, एक ख़ास अंदाज़ में सिगार पीते हुए, हर चीज़ को न कहते हुए और लालफ़ीताशाही के फ़ीतों में उलझा हुआ दिखाता है. वो नेताओं के आगे पीछे मंडराता है, गिरगिट की तरह रंग बदलता है और सत्ता के लिए जोड़तोड़ करता हुआ दिखाई देता है.
कोई कह नहीं सकता कि उसकी ये कार्टूनी तस्वीर असलियत से बहुत दूर है.
(एमके कॉव भारत सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय और नागरिक उड्डयन मंत्रालय के सचिव रहे हैं. उन्होंने भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों की छवि का चित्रण किया है.)
No comments:
Post a Comment