अगर आप हॉस्पिटलिटी उद्योग के दिग्गजों की बात करें तो आपके ज़हन में सबसे पहले राय बहादुर मोहन सिंह ओबेरॉय, अजित नारायण हक्सर, अजीत केरकर, कैप्टन नायर और हबीब रहमान के नाम आएंगे.
अगर आप हबीब रहमान के करियर पर नज़र दौड़ाएं तो पाएंगे कि इस शख़्स का होटलों में खाने-पीने और रहने के तरीक़ों को उच्चतम मानदंडों तक पहुंचाने में कितना योगदान रहा है.
मौर्य शैरटन होटल के रेस्तराँ 'दम्पुख़्त' की प्रसिद्धि दुनिया तक पहुंचाने, बुख़ारा को दुनिया का सर्वश्रेष्ठ रेस्तराँ बनाने और दक्षिण भारतीय व्यंजनों के लिए मशहूर दक्षिण को उसके इस मुक़ाम तक पहुंचाने में हबीब रहमान की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता.
हाल ही में उनकी आत्मकथा प्रकाशित हुई है- बॉर्डर्स टू बोर्डरूम, जिसमें उन्होंने सेना के अपने शुरुआती दिनों से लेकर हॉस्पिटलिटी उद्योग के अगुआ बनने की अपनी कहानी को दिलचस्प अंदाज़ में बयान किया है.
विस्तार से पढिए रेहान फ़ज़ल की विवेचना
'गुज़िश्ता लखनऊ' के लेखक अब्दुल हलीम शरार का मानना है कि किसी भी संस्कृति को उसकी पाक शैली से पहचाना जाता है.
हैदराबाद में जन्मे हबीब रहमान इस मामले में भाग्यशाली थे कि उन्हें बचपन से ही हैदराबाद और लखनऊ की संस्कृतियों से दो-चार होने का मौक़ा मिला.
उनकी माँ अमजदुन्नीसा बेगम हैदराबाद के रईस परिवार से थीं और उनकी दादी का संबंध लखनऊ से था. उन्होंने बचपन से ही अपने घर में इस बात पर बहस होती देखी कि हैदराबाद की बिरयानी अच्छी है या लखनऊ का पुलाव.
हबीब के घर में अंडे भी कई तरह से बनाए जाते थे लेकिन उन्हें पसंद था 'ख़ागीना' जिसे वो 'रोग़नी रोटी' या 'शीरमाल' के साथ खाया करते थे.
हर पकवान के नाम के पीछे एक कहानी हुआ करती थी. 'दो प्याज़ा' की कहानी ये थी कि एक नवाब साहब के बुरे दिन आ गए.
जब खाने पर बिन बुलाए मेहमानों की तादाद बढ़ने लगती तो वो अपने ख़ानसामा को निर्देश देते कि गोश्त की मात्रा न बढ़ाई जाए. उनके ख़ानसामे ने मेहमानों को खिलाने की एक नायाब तरकीब निकाली.
जैसे ही कोई अतिरिक्त मेहमान आता वो शोरवे में दो प्याज़ और बढ़ा देते. धीरे-धीरे उनके इस व्यंजन का नाम दो प्याज़ा पड़ गया.
साँप खाने के शौक़ीन
हबीब रहमान ने शुरू में भारतीय वायु सेना में जाने की कोशिश की लेकिन एक शारीरिक अक्षमता उन्हें थल सेना में ले गई. उन्होंने महार रेजिमेंट को ज्वॉइन किया और उन्हें भारत-चीन सीमा के पास तैनात किया गया. बहुत कठिन जीवन बिताते हुए उन्होंने मछलियाँ और ज़रूरत पड़ने पर साँप भी खाए.
वहाँ उन्हें एक सबक़ सिखाया गया कि जब तुम अपने सिपाहियों के साथ हो तो खाने, सोने और पूजा में कोई भेद न करो.
हबीब रहमान कहते हैं, ''एक बार गश्त के दौरान मेरे एक साथी का पैर ग़लती से एक वाइपर सांप पर पड़ गया. मैंने अपनी आखों से देखा कि साँप ने बिजली की तेज़ी से उसके घुटने के नीचे काट खाया. मेरे साथी ने तुरंत अपने दाव से उस साँप को मारने की कोशिश की तो वो दो गज़ दूर जाकर गिरा. फिर उस सांप ने लपककर उसकी पिंडलियों को डस लिया लेकिन इस बीच मेरे साथी ने उसे दो हिस्सों में काट डाला. मैंने ब्लेड से काट कर उसके ज़हरीले ख़ून को निकाला और उसके उस हिस्से को कस कर बाँध दिया. जैसे ही साँप के दो टुकड़े हुए मेरे अर्दली खड़क सिंह की आखों में चमक आ गई. वो सोच रहा था कि अब साँप का मांस खाने को मिलेगा. उस रात अपने साथी को कंबल में लपेटने के बाद हमने उस सांप को काट कर भूना और उसका मांस खाया.''
एलिज़ाबेथ टेलर से मुलाक़ात
ख़राब स्वास्थ्य ने उन्हें बहुत दिनों तक सेना में रहने नहीं दिया और नियति उन्हें होटल उद्योग में ले आई. पहले वो पीएल लांबा के औरंगाबाद होटल के मैनेजर बने और जब आईटीसी ने उस होटल को ख़रीदा तो हबीब रहमेन भी आईटीसी चले गए.
उन्हें आगरा में एक नया पांच सितारा होटल मुग़ल शेराटन खोलने की ज़िम्मेदारी दी गई. उस दौरान मशहूर अभिनेत्री एलिज़ाबेथ टेलर उस होटल में ठहरने आईं. हबीब रहमान ने एक शाम उन्हें अपने अपार्टमेंट में ड्रिंक्स पर आमंत्रित किया.
उनके मैनेजर ने हबीब को पहले ही आगाह कर दिया कि हो सके तो टेलर से उनकी फ़िल्मों के बारे में बाते न की जाएं. एक के बाद एक बातें निकलती चली गईं और हबीब की पत्नी के मुंह से निकल गया कि टेलर 'क्लियोपेट्रा' फ़िल्म में कितनी हसीन लगी थीं.
ये सुनना था कि एलिज़ाबेथ का मुंह उतर गया. वो एकदम से चुप हो गईं और थोड़ी देर बाद उन्होंने वहाँ से जाने की इजाज़त मांगी. बाद में हबीब को पता चला कि टेलर 'क्लियोपेट्रा' को अपने फ़िल्म करियर की बेहतरीन फ़िल्मों में नहीं मानती थीं.
उनका मानना था कि फ़िल्म के निर्देशकों ने युद्ध सीन दिखाने के चक्कर में उनके कई सीन काट डाले थे. इसी फ़िल्म के सेट पर उनका रिचर्ड बर्टन से रोमांस परवान चढ़ा था जिसकी परिणिति दो शादियों, दो तलाक़ों और दोनों के दिल टूटने से हुई थी.
दम्पुख़्त की शुरुआत
जब हबीब रहमान को दिल्ली के मौर्य शेराटन होटल में लाया गया तो उनका पहला मिशन था वहाँ एक नया रेस्तराँ खोलना. इस तरह 'दमपुख़्त' की शुरुआत हुई. दमपुख़्त का अर्थ होता है धीमे-धीमे खाना पकना. उन्होंने उसके साथ अवध के नवाब आसिफ़ुद्दौला की कहानी जोड़ी.
जब उनके यहाँ अकाल पड़ा तो उन्होंने लखनऊ में बड़ा इमामबाड़ा बनवाना शुरू किया. ये काम के बदले खाना देने की दुनिया की पहली परियोजना थी. इमामबाड़ा बनाने वाले मज़दूरों को पूरे दिन में एक ही खाना दिया जाता था. बाद में जब जोधपुर के महाराजा उमेद सिंह ने उमेद भवन पैलेस बनवाया तो उन्होंने भी यही फ़ार्मूला अपनाया.
इस खाने को सील किए गए एक बर्तन में बनाया जाता था और उसमें चावल, गोश्त, सब्ज़ियों और मसालों का सम्मिश्रण हुआ करता था. हबीब रहमान ने इस परंपरा को इस नए रेस्तराँ में पुनर्जीवित करने की कोशिश की.
मेन्यू पर शोध
बेहतरीन खाने की पारखी सलमा हुसैन मानती हैं कि हबीब रहमान के पास रंगों, ख़ुशबुओं और खानों का फ़र्क़ बताने की ग़ज़ब की कला है.
सलमा कहती हैं, ''जब हबीब नया होटल बनाते थे तो उसका मेन्यू बनाने के लिए दो साल पहले काम शुरू कर देते थे. उस जगह के भूगोल का अध्ययन करते थे और वहाँ रहने वाले लोगों के बारे में पता करते थे."
"मुझे याद है कि जब हमारा ग्रैंड मराठा बना और उसका मेन्यू बनाना था तो हबीब साहब ने बोहरा, खोजा, मराठा, गोवा हर तरह के ख़ानसामे बुलवाए और इतना बड़ा मेन्यू बनाया कि पूरी मेज़ पर फैल गया. फिर इसमें से उन्होंने खाने का चुनाव किया."
उन्होंने कहा, "इसी वजह से आईटीसी का खाना इतना अच्छा हुआ करता था. अगर ज़रा सी भी चीज़ ख़राब हो जाए, रहमान साहब की निगाह से बच नहीं सकती थी. आप खाना लाकर मेज़ पर रख दीजिए. रहमान उसे देख कर ही बता देंगे कि उसमें क्या कमी है. उनके पास बहुत तेज़ आँखे और नाक हैं.''
क्लिंटन बुख़ारा आए
हबीब रहमान के मौर्या प्रवास के दौरान ही अमरीकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन वहां तशरीफ़ लाए. वो ख़ासतौर से बुख़ारा रेस्तरां गए और उन्होंने वहां के मेन्यू की सारी डिशें ऑर्डर कीं.
वहां उन्हें बताया गया कि यहां आप कांटे और छुरी का इस्तेमाल नहीं कर पाएंगे. क्लिंटन को इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा.
खाने के बाद क्लिंटन रसोई में गए और शेफ़्स के साथ उन्होंने तस्वीरें खिंचवाईं.
उन्होंने अपनी आंख से देखा कि सीक कबाब किस तरह बनाए जाते हैं और एक सीक पर उन्होंने अपना हाथ भी आज़माया.
इम्तियाज़ क़ुरैशी का दिल्ली आना
हबीब का फ़ॉर्मूला था हर खाने को रोमांटिसाइज़ किया जाए और उसके चारों ओर ऐसी कहानियाँ गढ़ी जाएं कि वो खाने वालों का मन मोह ले.
हबीब कहते हैं, ''ये बहुत कम लोग जानते हैं कि खाना कान से भी खाया जाता है. सबसे पहले तो आप सुनते हैं कि फ़लां जगह का खाना बहुत अच्छा है."
"संगीत भी खाने को आगे बढ़ाता है और अगर खाने का इतिहास भी बता दिया जाए तो खाना खाने का मज़ा और बढ़ जाता है. ये कहानी कुछ भी हो सकती है... उस खाने के बारे में, उसको परोसने के बारे में या उस बर्तन के बारे में जिसमें उसे पेश किया जा रहा है.''
हबीब रहमान का सबसे बड़ा योगदान है होटलों में खाना सर्व करने के तरीक़ों को बदलना. खाने के जानेमाने क़द्रदां पुष्पेश पंत कहते हैं, ''भारतीय कुज़ीन्स के लिए जितना रहमान ने किया है उतना शायद किसी ने नहीं. कई ऐसे कुज़ीन्स हैं जो अब तक ख़त्म हो गए होते. मिसाल के लिए दमपुख़्त को जब उन्होंने मौर्या में शुरू किया तो वो लखनऊ से इम्तियाज़ क़ुरैशी को लेकर आए. यहाँ आने से पहले क़ुरैशी साहब अनकट डायमंड थे. रहमान ने ही उन्हें लखनऊ के अनजान ख़ानसामे से उठाकर ग्लोबल मास्टर शेफ़ के रूप में खड़ा कर दिया. दूसरी उनकी सबसे ज़बरदस्त चीज़ है उनका मिडास टच. उन्होंने जिस चीज़ को छुआ उसे सोने में बदल दिया.''
गोरी की याद में
हबीब रहमान को मेहमान-नवाज़ी और खाने के अलावा कुत्ते पालने का भी शौक़ है. इस समय उनके पास 14 कुत्ते हैं. अपनी कुतिया गोरी की याद में उन्होंने एक घर बनाया है और उस पर एक किताब भी लिखी है- 'ए होम फ़ॉर गोरी'.
हबीब याद करते हैं, ''जब मैं सीमा पर तैनात था तो वहां न जाने कैसे एक कुत्ता आकर मुझसे अटैच हो गया जिसका नाम मैंने बुलेट रखा. उसको मुझसे इतना लगाव हो गया कि वो मेरे साथ ही रहने लगा. कमाल ये था कि जब हम प्रोन पोज़ीशन लेकर ज़मीन पर लेटते थे तो वो भी हमारी तरह लेट जाता था. वहां से मेरा बड़े कुत्तों का शौक़ शुरू हुआ.
"एक बार मेरी पत्नी एक छोटी कुतिया लेकर आ गईं. मैं बहुत नाराज़ हुआ. मैंने उसे ग़ुस्से में बाहर गार्ड रूम के पास बाँध दिया. एक दिन बड़ा तूफ़ान आ गया. मुझे उस पर रहम आया और मैं उसे अंदर ले आया. ठंड के कारण वो कांप रही थी तो मैंने उसे अपने बिस्तर पर लिटा दिया. फिर वो मेरे बाज़ू में आकर लेट गई और मुझसे चिपककर सो गई. उसके बाद हमारी उससे ऐसी दोस्ती हुई कि वो मेरे तकिए पर सोने लगी."
उन्होंने बताया, "जब मैं टूर पर जाता था तो मैं स्पीकर पर उसे फ़ोन करता था और उसे सुनकर वो भौंकती थी. जब वो मरी तो मैंने उसे पंचशील पार्क के एक कोने पर दफ़न किया और उसके साथ का घर मैंने ख़रीदा, उसे गिरवाया और एक नया घर बनवाया जिसका नाम मैंने गोरी रखा. आज भी सवेरे उठकर मैं अपनी खिड़की खोलता हूँ और सबसे पहले गोरी को हेलो करके अपने दिन की शुरुआत करता हूँ.'
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