Saturday, 14 February 2015

'विरोधियों से निपटना जानती थीं' /पीडी टंडन(नेहरू परिवार को क़रीब से जानने वाले) -1

दिन साल अब याद नहीं, कब पहली बार मिला? लेकिन मुलाकात का वह वाकया याद है.
हमेशा की तरह एक दिन सुबह आनंद भवन, जो क़रीब-क़रीब मेरा दूसरा घर हो गया था, उसके बरामदे में बैठा था.
यह मेरी दिनचर्या में शामिल था क्योंकि मुझे पंडित जी के अखबार के लिए खबरों को जुटाना था.
तब आनंद भवन नेताओं और कांग्रेस की सरगर्मियों का केंद्र बन चुका था इसीलिए नेहरू परिवार के लोग मुझे अपना पारिवारिक व्यक्ति मानने लगे थे.
उस दिन सुबह आनंद भवन में एक दुबली-पतली लड़की घूमती दिखाई पड़ी.
सवाल यह था कि मैं उससे कैसे पूछूँ कि वह कौन है, क्योंकि इससे पहले मैंने उनको कभी नहीं देखा था. शायद उनकी भी यही दिक्क़त थी, लेकिन उन्होंने तय किया होगा कि उन्हें पहल करनी चाहिए.
वह मेरी कुर्सी के पास आकर खड़ी हो गईं. मैं उठकर खड़ा हो गया. उन्होंने पूछा, "आप क्या करते हैं, कौन हैं?" मैंने अपना परिचय दिया और कहा, "ख़बरों की तलाश में हूँ."
वह झल्लाकर बोलीं, "यह तो मुझे मालूम ही है, लेकिन आपका नाम-पता क्या है?" मैंने बताया, "मैं स्वराज भवन के पास रहता हूँ."
इसके बाद वह बातें करती रहीं और मैं भी बातें करने में जुट गया. बातें तो याद नहीं, लेकिन हम आधे घंटे से ज़्यादा समय तक बतियाते रहे.
तभी मुझे पता चला कि वह लंदन से स्कूली शिक्षा समाप्त कर वापस लौटी हैं. वे जवाहर लाल नेहरु की इकलौती बेटी इंदिरा थीं.
यह सिलसिला जब शुरू हुआ तो काफ़ी दिन तक चलता रहा और वह भी मुझे अपने घर का आदमी समझने लगीं.
बाद के दिनों में महत्वपूर्ण मसलों पर वह मुझसे सलाह भी लेने लगीं और संबंध वर्ष-दर-वर्ष बढ़ने लगे.

पार्ट ऑफ़ द गेम
इंदिरा जी को घर से मोटर मिलने में अक्सर परेशानी होती थी इसलिए उन्होंने सोचा कि साइकिल चलाना सीख लें तो बाहर आने-जाने की सुविधा हो जाएगी.
यह इच्छा उन्होंने पंडित जी से ज़ाहिर की तो पंडित नेहरू ने कहा, "टंडन साइकिल चलाना सिखा देगा." तब इंदिरा जी ने यह बात मुझे बतायी और मैंने अपना काम शुरू कर दिया.
जब मैं उनको साइकिल सिखाता था, तो पंडित जी खड़े देखते रहते थे.
साइकिल सिखाते टंडन से नेहरु ने कहा
 टंडन, गिरने दो, इट इज़ पार्ट ऑफ द गेम

चूँकि आनंद भवन कई एकड़ भूमि पर स्थित है तो यह अभ्यास परिसर में ही होता था. एक दिन वह साइकिल चलाते समय गिरने लगीं, तो मैंने उन्हें संभालने का ज़ोरदार प्रयास किया.
उस समय इंदिरा जी 23-24 वर्ष की रही होंगी, लेकिन एकदम दुबली-पतली और मैं भी उन्हीं की तरह था.
इंदिरा जी को गिरता देख पंडित जी ने चिल्लाकर कहा "टंडन, गिरने दो, इट इज़ पार्ट ऑफ द गेम". लेकिन मैंने उन्हें गिरने नहीं दिया.
लंदन से लौटीं इंदिरा के लिए आनंद भवन का विशाल परिसर उन्हें उकता रहा था और ऐसे समय में उनके अकेलेपन का मैं अच्छा साथी बन चुका था और तब वह तमाम बातें मुझसे करती थीं.
अक्सर हम सैर पर जाते. एक दिन हम शहर से बाहर फाफामऊ पुल (गंगा नदी पर बने पुल) पर गए. एक स्थान पर मोटर रोक कर वह दरिया की तरफ़ देखती रहीं.

क्षमता
एक समय आया कि जब इंदिरा जी ने 'लीडरी' करने का रास्ता पकड़ा. तब उन्होंने गाँवों में जनसभाएँ करना शुरू किया.
यहीं से इंदिरा जी की नेतृत्व क्षमता और विरोधियों से निपटने की रणनीति बनाने की क्षमता दिखाई देने लगी थी.
वे शुरु से ही विपक्षियों के ख़िलाफ़ रणनीति बनाना जानती थीं
उस ज़माने में इलाहाबाद शहर के बड़े कांग्रेसी नेता सालिगराम जायसवाल होते थे (आज़ादी के बाद वह मंत्री भी बने).
इंदिरा जी फाफामऊ में जनसभा करने गईं तो सालिगराम जायसवाल के लोगों ने काफ़ी हंगामा किया. इससे वह दुखी हुईं और लौटने पर उन्होंने मुझे पारिवारिक पत्रकार होने के नाते बुलाया और पंडित जी की लाइब्रेरी में ले गईं.
मैं तब तक समझ नहीं पाया था कि माज़रा क्या है? थोड़ी खामोशी के बाद उन्होंने पूछा कि जायसवाल के हंगामे और उनके साथ दुर्व्यवहार के बारे में मुझे क्या पता है.
मैंने कहा, "जो अख़बारों में है उतना ही मालूम है." वह तमतमाकर अंग्रेजी में बोलीं, "वह जितना मेरे निकट आ सकते थे, उतना वह आए". मैंनै कहा, "एक बयान दे दें." उन्होंने कुछ परेशानी के साथ उत्तर दिया, "मैं उनके साथ बयानबाज़ी नहीं करना चाहती".
मुझे परेशानी हुई कि और क्या सुझाव दूँ? मेरे दिमाग में एक 'आइडिया' आया. पूछा, "क्या आज भी आप गाँव जाएँगीं, मीटिंग में बोलेंगीं?" उन्होंने कहा, "आज भी जाना है."
मैंने पूछा, "आपके साथ कौन-कौन जाएगा?" उन्होंने बताया, "एक सुरक्षागार्ड और पीटीआई का पत्रकार भी जाएगा." मैंने कहा, "आज दो गार्ड ले जाएँ और पीटीआई के पत्रकार के साथ मैं जाऊँगा."
फिर मैंने उन्हें भाषण के कुछ बिंदु बताए और उनसे कहा कि वह उसी पर बोलें और देखें कि जनता क्या प्रतिक्रिया व्यक्त करती है.
मैंने उन्हें जैसा ब्रीफ़ किया था, इंदिरा जी वैसा ही जमकर बोलीं और जनता ने उनका भाषण सुनकर सालिगराम जायसवाल के मुर्दाबाद के नारों से आसमान गुंजा दिया.
उस समय इंदिरा जी के चेहरे पर खुशी व्याप्त थी. मेरा ख़्याल है, अपने विरोधी को चित्त देखकर उन्हें काफ़ी संतोष हुआ.
इसी तरह का एक और वाक़या है. इंदिरा जी जनसभा के लिए एक ऐसे गाँव में जा रही थीं जहाँ कभी कोई नेता नहीं जाता था और वहाँ वोट भी कम था.
मैंने कहा, "वहाँ क्यों जा रही हैं" उन्होंने कहा, "इसीलिए कि वहाँ कोई नहीं जाता". उस गाँव तक जाने का रास्ता ऊबड़-खाबड़ था. एक पेड़ भी गिरा पड़ा था. हम सबने मिलकर पेड़ उठाया और मोटर गाँव में पहुँची, गाँव वाले बहुत खुश हुए.

शादी की ख़बर
इंदिरा जी का विवाह फ़िरोज़ गाँधी से होना तय हो चुका था. देश भर में तमाम खबरें उड़ रहीं थीं. ऐसे में जवाहरलाल जी ने जब अपनी स्वीकृति दी तो मुझे बुलाया.
मैं नीचे खड़ा बरामदे में लगे आइने में अपने चेहरा देख रहा था और नेहरू जी बार-बार सीढ़ियों पर चढ़-उतर रहे थे. मुझे लगा वह कुछ कहना चाहते हैं पर हिचक रहे हैं.
इंदिरा की शादी पर टंडन से कहा
 इंदिरा-फ़िरोज़ के विवाह की बातें अखबारों में छप रही हैं और देश भर में लोग फ़िरोज़ के बारे में मुझसे पूछ रहे हैं. फ़िरोज़ अभी आता होगा. तुम उससे बात कर उसकी ख़बर बना कर अखबारों को दे दो

नेहरु
अंत में वह आखिरी सीढ़ी पर ठहर गए और कहा "टंडन ऊपर आओ". मैं उनके साथ लाइब्रेरी में गया. यहीं वह अहम बातें करते थे.
उन्होंने कहा, "इंदिरा-फ़िरोज़ के विवाह की बातें अखबारों में छप रही हैं और देश भर में लोग फ़िरोज़ के बारे में मुझसे पूछ रहे हैं. फ़िरोज़ अभी आता होगा. तुम उससे बात कर उसकी ख़बर बना कर अखबारों को दे दो". इस तरह मैंने आधिकारिक ख़बर फ़िरोज़ के हवाले से दे दी. "
प्रधानमंत्री बनने के बाद भी इंदिरा जी से मेरी मेल-मुलाकात होती रही. वह इलाहाबाद आएँ तब या मैं दिल्ली जाऊँ तब भी, लेकिन पद की व्यस्तता में वह कुछ कम ज़रूर हुई.
फिर भी हम लोगों में सखाभाव था जो पत्र के माध्यम से संवाद और सलाह के तौर पर उनके जीवन पर्यन्त चलता रहा.

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