Sunday, 1 February 2015

जिसने देखा भारत की पहली थिएटर कंपनी का सपना / अतुल तिवारी, वरिष्ठ कलाकार

हिंदुस्तानी थियेटर के कलाकार
पृथ्वीराज कपूर के साथ 'आम्रपाली' नाटक में काम करने वाले कलाकार.
वर्ष 1980 में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) में जाने से पहले ही, हम जैसे छोटे शहरों से आने वाले नौसिखिए नौजवानों को विश्व नाटककारों से परिचित कराने वालों में कुछ ख़ास नाम थे.
शेक्सपियर के लिए रांगेय राघव और एनएसडी के ही जेएन कौशल और सबसे बड़ा नाम था बेग़म क़ुदसिया ज़ैदी का.
एनएसडी के ज़्यादातर नाटकों के पोस्टरों में बेग़म क़ुदसिया का नाम ज़रूर हुआ करता था.
और जब यह नाम इब्राहिम अल्काज़ई के साथ दिखता था तो हमारे जैसे नए लोगों के लिए और बड़ा हो जाता था.

बेग़म क़ुदसिया की जन्मशती पर विशेष लेख

बेगम क़ुदसिया ज़ैदी
जैसे-जैसे थिएटर की दुनिया से हमारा ताल्लुक बढ़ा, तो पता चला कि ‘बेग़म क़ुदसिया ज़ैदी’ सिर्फ़ कुछ पटकथाओं से जुडा नाम नहीं था. यह नाम तो कमला देवी चट्टोपाध्याय जैसे नए आज़ाद हिन्दुस्तान में थिएटर की नींव रखने वाले में से एक था.
पचास के दशक में, जहाँ कमलादेवी संगीत नाटक अकादमी, एशियन थिएटर इंस्टीट्यूट और एनएसडी जैसी संस्थाओं को साकार करने में लगीं थी वहीं, उनकी दोस्त बेगम क़ुदसिया ज़ैदी आज़ाद भारत की पहली पेशेवर थिएटर कंपनी का सपना देख रहीं थीं.
और इस सपने के लिए सबसे ज़रूरी चीज़ थी हिन्दुस्तानी ज़बान में भारतीय और विदेशी, दोनों भाषाओं के नाटकों की पटकथा की उपलब्धता.
फ़िर क्या था, बिना किसी और का इंतज़ार किए बेग़म साहिबा एक के बाद एक नाटक, अनुवाद और रूपांतर के काम पर लग गईं.

हबीब तनवीर

हबीब तनवीर
और देखते ही देखते पहली बार संस्कृत के पुराने क्लासिक्स शकुंतला, मिट्टी की गाड़ी और मुद्राराक्षस जैसे नाटकों के अलावा पचास के दशक के मशहूर नाटककार बर्टोल्ल ब्रेस्ट के 'गुड वुमेन ऑफ़ सेज़ॉन' जैसे नाटकों से भी परिचय हुआ.
बेग़म क़ुदसिया ने सिर्फ इसी जर्मन लेखक से नहीं, बल्कि हेनरिक इब्सन, अलेक्जेंडर डूमास, अंतोन चेखव, ब्रैंडन थॉमस और बर्नार्ड शॉ से भी हमारा परिचय कराया.
यह बात सिर्फ अनुवाद और रूपांतरण तक ही सीमित नहीं थी. सबसे बड़ी चुनौती थी इनमें जान फूंकने की.
उन्होंने वर्ष 1957 में जोशीले नौजवान हबीब तनवीर के साथ मिलकर 'हिन्दुस्तानी थिएटर' नाम की अपनी कंपनी बनाकर यह काम शुरू किया.
लेकिन हबीब इंग्लैंड और जर्मनी चले गए तो उनकी जगह अमरीका से थिएटर सीख कर आईं मोनिका मिश्रा ने इसे संभाला.
पहला नाटक कालिदास लिखित 'शकुंतला' खेला गया.

प्रशंसक नेहरू

जवाहर लाल नेहरू
जानने वाले बताते हैं कि तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू खुद कई बार इसे देखने आए और कई विदेशी मेहमानों को भी इसे दिखाया.
लौटने पर जब हबीब साहब को पता चला कि उनकी जगह किसी और को दे दी गई है, तो उन्होंने बेगम और उस लड़की से काफ़ी झगड़ा किया.
लेकिन थोड़े ही दिनों में वो मोनिका मिश्रा- मोनिका मिश्रा तनवीर बन गईं और साथ ही पैदा हुआ छतीसगढ़ के नाचा कलाकारों के साथ शूद्रक के 'मृच्छ्कटिकम्' का नायाब अवतार 'मिट्टी की गाड़ी'.
इसने 'हिन्दुतानी थिएटर' ही नहीं पूरे देश के थिएटर की तस्वीर बदल कर रख दी.
बेग़म क़ुदसिया का अगला सपना था पहला आधुनिक पेशेवर थिएटर कंपनी बनाना.
और पहली अगस्त 1960 को हिंदुस्तानी थिएटर पूर्णकालिक थिएटर कंपनी बन गई.
कंपनी में तनख्वाह पाने वाले कलाकारों, निर्देशकों और तकनीशियनों ने महीनों लगातार नाटक किए.

लाहौर से दिल्ली

शकुंतला नाटक
नाटक 'शकुंतला' मोनिका मिश्रा के निर्देशन में खेला गया.
बेग़म क़ुदसिया ने इस्पात टाउन, कोयला व पत्थर खदान के इलाकों, औद्योगिक शहरों, रेलवे यार्ड और हर उस जगह नाटक किए जहां नए तरीक़े के नाटकों के दर्शक होते थे.
यह सब कुछ किया गया एक ऐसी महिला ने, जो आसानी से अपने घर में बेग़म की तरह आराम फरमा सकती थी.
सौ साल पहले, 23 दिसंबर 1914 को दिल्ली में कश्मीरी गेट के पास उम्त-उल-कुदूस अब्दुल्लाह का जन्म हुआ था.
माता-पिता की मृत्यु के बाद बाद, बेगम क़ुदसिया अपनी बहन ज़ुबेदा के पास लाहौर चली गईं.
वहीं किन्नार्ड कॉलेज में उनकी तालीम हुई. उनके बहनोई अहमद शाह बुख़ारी 'पत्रस' जाने माने अदीब और ड्रामा-निगार थे और ऑल इंडिया रेडियो की नीव रखने वालों में से एक थे.

नई पौध

हिंदुस्तानी थियेटर
वर्ष 1937 में रामपुर के दीवान और विद्वान् बशीर हुसैन ज़ैदी साहब से निकाह करके जब वो रामपुर आईं तो बच्चों के लिए तमाम कहानियाँ और नाटक लिखने में लग गईं.
उन्हीं में एक था, 'चचा छक्कन के कारनामे'.
रामपुर से दिल्ली आकर तो बेगम क़ुदसिया एक नए जोश के साथ थिएटर और सामाजिक कामों में जुट गईं.
दिल्ली नगर निगम में वो पार्षद थीं तो 'शंकर्स वीकली' के लिए लिखती थीं. एक तरफ़ जामिया के लोगों को जुटाने का काम कर रहीं थी तो दूसरी तरफ़ 'हिन्दुस्तानी थिएटर' को ज़माने में भी वो जुटी थीं.
आगे चल कर पूरे भारतीय रंगमंच और कला के क्षेत्र में जो कुछ बड़े नाम हुए, उनमें से कई बेगम क़ुदसिया ज़ैदी के हिन्दुस्तानी थिएटर की ही पैदावार थे. हबीब तनवीर, एमएस सथयू, यूनुस परवेज़, इरशात पंजातन, श्याम अरोरा और शिव शर्मा जैसे हज़ारों.

नाटक करते करते...

बेग़म क़ुदसिया ज़ैदी
महज 46 साल की उम्र में बेग़म क़ुदसिया ज़ैदी का निधन हो गया.
27 दिसंबर 1960 में जब उनकी कंपनी बुरकुंडा के मज़दूरों के लिए अपना खेल दिखा रही थीं, तो एक तरफ़ दर्शक तालियां बजा रहे थे और उधर बेगम क़ुदसिया ज़ैदी अपनी आखिरी सासें ले रहीं थीं.
इस वर्ष उनकी जन्मशती पर एनएसडी ने उन्हें श्रद्धांजलि के तौर पर 'ख़ालिद की खाला' का मंचन किया.
बेग़म क़ुदसिया ज़ैदी जन्मशती महोत्सव
इसके बाद दानिश इक़बाल और डॉ. सईद आलम ने 'चाचा छक्कन के कारनामे' और टॉम आल्टर ने 'मुद्राराक्षस' को मंचित किया.
मैंने मुंबई विश्वविद्यालय के एकेडमी ऑफ़ थिएटर आर्ट्स में 'आज़ार का ख़्वाब' का मंचन किया.

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