Saturday, 14 February 2015

संजय गांधी के ख़िलाफ़ गवाही देने वाला अधिकारी - 10

वर्ष 1969 से 1976 तक का समय भारतीय जनतंत्र के इतिहास में सबसे महत्वपूर्ण समय माना जाता है.
इस दौरान प्रधानमंत्री कार्यालय में संयुक्त सचिव के पद पर कार्यरत बिशन टंडन ने जिस साफ़गोई से उस ज़माने का चित्रण अपनी किताब 'आपातकाल एक डायरी' में किया है, उससे उनकी निर्भीकता का पता चलता है.

टंडन के ज़माने में प्रधानमंत्री कार्यालय काफ़ी छोटा था, लेकिन कैबिनेट सचिवालय से ज़्यादा महत्वपूर्ण हो चुका था. क्लिक करेंपीएन हक्सर इसका नेतृत्व करते थे और वो विलक्षण प्रतिभा के धनी थे.
उनकी गिनती भी उस ज़माने के सबसे बौद्धिक, न्यायप्रिय, निर्भीक और तेज़-तर्रार अफ़सरों में होती थी. 1970 में जाने-माने अर्थशास्त्री प्रोफ़ेसर पीएन धर भी इंदिरा गाँधी की टीम में शामिल हो गए.

'संकोची थीं इंदिरा'

बिशन टंडन अपनी किताब में प्रोफ़ेसर धर को उद्धृत करते हुए लिखते हैं, "कैबिनेट सचिवालय की महत्ता कम होने का कारण इंदिरा गाँधी का स्वभाव और कार्यशैली थी. वे संकोची स्वभाव की थीं. उनमें आत्मविश्वास की कमी थी और उनकी संवाद क्षमता बहुत अपर्याप्त थी. विस्तृत विचार-विनिमय में ख़ासकर जहाँ जटिल तर्क-वितर्क होता था वह विशेष योगदान नहीं कर पातीं थी. वह अपने वरिष्ठ अधिकारियों से भी सहज वार्तालाप में कठिनाई अनुभव करतीं थी."
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हालांकि इंदिरा गाँधी कैबिनेट सचिव को भी मंत्रणा के लिए कम ही बुलाती थीं जिसकी वजह से इस पद की महत्ता घटती चली गई. बिशन टंडन इस आकलन से पूरी तरह सहमत नही हैं.

बिशन टंडन के मुताबिक 1974 के बाद संकोची रहीं इंदिरा का स्वभाव तेजी से बदलने लगा.
वो कहते हैं, "जब इंदिरा गाँधी बात करने पर आती थीं तो हर तरह की बात कर सकती थीं. वो अक्सर मुझे प्रधानमंत्री निवास पर होने वाले रात्रि भोजों में बुलाती थीं, लेकिन मैं कभी गया नहीं. एक बार उन्होंने पीएन धर से कहा कि यह साहब कभी आते ही नहीं. इस पर धर ने कहा कि मैं उनसे कहूँगा कि इस बार आपने ख़ासतौर पर बुलाया है. अगली बार जब भोज का आयोजन हुआ तो मैं गया. उसमें मेरी पत्नी भी मेरे साथ थीं. डिनर के दूसरे दिन उन्होंने मुझे बुलाया और कहने लगीं 'यू हैव अ वंडरफ़ुली ब्यूटीफ़ुल वाइफ़'. कहने का मतलब यह कि जब वो बात करना चाहती थीं तो किसी भी तरह की बात कर सकतीं थीं."

इंदिरा का स्वभाव बदला

एक बार राज्यपालों की नियुक्ति हो रही थी, जिसे टंडन हैंडल कर रहे थे. इंदिरा गाँधी ने उनसे कहा कि 'मैंने आपके लिए बहुत अच्छा आदमी ढ़ूँढ़ा है. बेहतर हो आप उनसे मिल लें.'
टंडन उनसे मिलने गए और लौटकर उन्होंने इंदिरा गाँधी से कहा, ''आपकी च्वॉइस बिल्कुल ग़लत है. ये साहब आठवाँ दर्जा पास हैं. कुछ उर्दू में शायरी कर लेते हैं. अगर आप उन्हें कुछ देना ही चाहती हैं तो पार्टी में दे दीजिए."
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टंडन का कहना मानते हुए इंदिरा गांधी ने उन साहब को राज्यपाल नहीं बनाया.
लेकिन 1974 के बाद इंदिरा गाँधी के व्यवहार में परिवर्तन होना शुरू हो गया. इसका मुख्य कारण क्या रहा होगा.
इस सवाल के जवाब में टंडन कहते हैं, "इसका मुख्य कारण था कि उनके पुत्र ने बहुत सारी चीज़ें अपने हाथ में ले ली थीं. पहले फ़ाइलें इंदिरा गाँधी के पास जाती थीं तो एक दिन में वापस आ जाती थीं निर्देश के साथ कि क्या करना है. लेकिन फिर उसमें विलंब होने लगा.''
बिशन टंडन के मुताबिक, ''सबकी सब फ़ाइलें कुंवर साहब के पास भेजी जाने लगीं और उनकी राय भी मायने रखने लगी. उनकी देखरेख में सारी नियुक्तियाँ की जाने लगीं और हर जगह चुने हुए 'लचीले' अफ़सर नियुक्त किए जाने लगे."
मैंने बिशन टंडन से पूछा कि इंदिरा और जयप्रकाश नारायण के संबंध शुरू से ही ख़राब थे या बाद में ख़राब होने शुरू हुए.

बिशन टंडन के मुताबिक इंदिरा और जय प्रकाश नारायण के आपसी संबंध उतार चढ़ाव भरे रहे.
टंडन ने इसका जवाब विस्तार से बताया जिसके मुताबिक़ इंदिरा और जेपी के संबंधों में उतार-चढ़ाव आते रहते थे. 1969 के राष्ट्रपति चुनाव के बाद जेपी ने इंदिरा को पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने उन्हें बधाई देने के साथ-साथ उनकी आलोचना भी की.
इंदिरा गाँधी ने जवाब में जो पत्र उनको लिखा, उसका आशय कुछ इस प्रकार था, ‘राष्ट्रपति चुनाव के समय का मेरा आचरण आपको पसंद नहीं आया, पर आपने यह भी स्वीकार किया कि मेरे राजनीतिक जीवन के लिए ये आवश्यक था. मुझे पढ़कर दुख हुआ और विशेषकर ये जानकर कि आप मुझे कितना कम जानते और समझते हैं.’

इंदिरा हुईं नाराज

टंडन के मुताबिक इसके बाद 1972 और 1973 में लगभग डेढ़ साल दोनों के संबंध काफ़ी अच्छे रहे. डाकू समर्पण और मृत्युदंड को लेकर दोनों के बीच पत्राचार होता रहा.
1973 में जब सुप्रीम कोर्ट में तीन वरिष्ठ जजों के ऊपर एएन राय को मुख्य न्यायाधीश बनाया गया, तो इंदिरा-जेपी के संबंधों में तल्ख़ी आनी शुरू हो गई. इसके बाद गुजरात आंदोलन और बिहार आंदोलन में जेपी की भूमिका के कारण उनके संबंध इंदिरा गाँधी से बिगड़ते ही चले गए.
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1977 में चुनाव हारने के बाद मारुति प्रकरण की जाँच के लिए जब गुप्ता आयोग बनाया गया, तो क्लिक करेंटंडन ने संजय गाँधी के ख़िलाफ़ गवाही दी.
1980 में सत्ता में वापस आने के बाद क्लिक करेंइंदिरा गाँधी उनसे इतनी नाराज़ हुईं कि उन्होंने तय किया कि केंद्र में न तो उन्हें कोई पदोन्नति मिलेगी और न उनकी कोई नियुक्ति होगी.
यही नहीं, उन्होंने उत्तर प्रदेश सरकार को भी अलिखित आदेश दिए कि उन्हें कोई पदोन्नति न दी जाए. बिशन टंडन ने जब स्वेच्छा से सेवानिवृत्ति लेने का आवेदन दिया, तो उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्रीपति मिश्रा ने उन्हें बुलाकर कहा, ''मैं तो इसे उनका दुर्भाग्य मानता हूँ, जिन्होंने ये फ़ैसला किया है कि आपका यथोचित उपयोग न किया जाए."

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