Sunday, 22 February 2015

द रेड साड़ी-ए ड्रामाटाइज्ड बायोग्राफी ऑफ सोनिया गांधी @ कल्लोल चक्रवर्ती

सोनिया गांधी के बारे में कुछ लिखना सहज नहीं। वर्षों से देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी का नेतृत्व संभालने के बावजूद वह अंतर्मुखी हैं और नेपथ्य में रहती हैं। उनसे मिलना और उनका इंटरव्यू लेना आसान काम नहीं। ऐसी स्थिति में उन पर लिखी जाने वाली कोई किताब या तो तथ्यपरक बायोग्राफी हो सकती है, जैसा कि रशीद किदवई की है, या कल्पना की उड़ान भरती हुई सरस किताब, जैसी मोरो की है। इसके बावजूद यह नहीं कह सकते कि मोरो ने अपनी पुस्तक में कोई बहुत छूट ली है, या तथ्यों की अनदेखी की है। सोनिया गांधी के नजदीकी लोगों ने भले ही उनसे बातचीत नहीं की, पर मोरो इटली गए, अनेक लोगों से संपर्क किया, उन क्रिस्टीन वॉन स्टिग्ल्टज का इंटरव्यू किया, जिन्होंने सोनिया की राजीव गांधी से मुलाकात कराई थी और पुपुल जयकर और कैथरीन फ्रैंक की किताबों की सहायता ली। मोरो डोमैनिक लैपियर के भतीजे हैं और भारत में उतने अनजान भी नहीं हैं। इससे पहले उन्होंने 'पैशन इंडिया' जैसी किताब लिखी है और लैपियर के साथ मिलकर लिखी गई किताब, 'फाइव पास्ट मिडनाइट एट भोपाल' जैसी किताब की तो आज भी प्रासंगिकता है। मोरो की राष्ट्रपति भवन में सोनिया गांधी से एक मुलाकात हुई थी। तब मोरो ने उन्हें इस किताब के बारे में बताया था। सोनिया का संक्षिप्त जवाब था, हम अपने बारे में लिखा हुआ कुछ नहीं पढ़ते!

यह किताब सोनिया गांधी के राजनीतिक जीवन पर नहीं है, बल्कि उनके व्यक्तित्व पर लिखते हुए लेखक ने कल्पना के रंग भरे हैं। पर सोनिया गांधी के जीवन से जुड़े तथ्यों के साथ छेड़छाड़ का आरोप शायद ही टिके। यह किताब सोनिया गांधी को समझने का एक प्रयास है और उसमें लेखक सफल हैं। यह पुस्तक सोनिया के माता-पिता के संघर्ष के बारे में बताती है। वे एक गांव में बहुत साधारण स्थिति में रहते थे। तीन बहनों में बीच की सोनिया ठंड से बचने के लिए हमेशा अंगीठी के पास रहती थी। उसी ठंड ने उन्हें अस्थमा जैसी बीमारी दी। बाद में वे लोग तुरिन शहर के पास ओरबैसानो नाम के कस्बे में जा बसे। स्टीफेनो माइनो ने बिल्डर का काम शुरू किया और एक शानदार कोठी बनाई। इसके बावजूद गांव से आई तीनों बहनों की पोशाक पर स्कूल की लड़कियां छींटाकशी करती थीं। रूस से प्रभावित होने के कारण ही स्टीफेनो माइनो ने अपनी तीनों बेटियों के रूसी नाम रखे थे-अनुष्का, सोनिया और नाडिया। सोनिया दोभाषिये की नौकरी करने के लिए अंग्रेजी सीखना चाहती थी और यही जुनून उन्हें ऑक्सफोर्ड ले आया। वहीं के एक रेस्तरां वरसिटी में, जहां स्टीफन हॉकिंग भी बैठे मिलते थे, नियति ने सोनिया को राजीव गांधी से मिलवाया। सोनिया के पिता इस रिश्ते के पक्ष में नहीं थे। वह अपनी बेटी से कहते थे, इंडिया में लोग तुम्हें बाघ के सामने फेंक देंगे! इसके बावजूद सोनिया एक महीने के लिए भारत आईं और हरिवंश राय बच्चन की कोठी में ठहरीं। उसके बाद सोनिया गांधी ने पीछे मुड़कर नहीं देखा।

मोरो की यह किताब सोनिया गांधी को उसकी संपूर्णता में सामने रखती है। हो सकता है कि सोनिया के जीवन की कुछ घटनाएं-जैसे-हर त्रासदी के समय इटली लौट जाने की इच्छा, अतिरंजित हों। पर मोरो ने सोनिया के जीवन के मानवीय पक्षों को सामने रखकर उनकी छवि के साथ न्याय ही किया है। बिल्कुल पृथक पृष्ठभूमि से आई एक महिला अपना प्रेम पाने के लिए न सिर्फ देश के सबसे बड़े राजनीतिक परिवार के साथ खुद को जोड़ लेने में नहीं हिचकती, बल्कि भारतीय परंपराओं को ज्यादा आग्रह और समर्पण के साथ स्वीकारती है। रेड साड़ी इसी का प्रतीक है। इंग्लैंड में नेहरू के जीवन पर आयोजित प्रदर्शनी में उस लाल साड़ी का चित्र था, जिसे जवाहरलाल नेहरू ने जेल में अपनी पत्नी के लिए बुना था। वही साड़ी बाद में इंदिरा गांधी ने अपनी शादी पर पहनी थी। सोनिया को वह प्रदर्शनी दिखाते हुए राजीव गांधी ने कहा था कि अगर हमारी शादी हुई, तो तुम्हें भी यह साड़ी पहनने का अवसर मिलेगा। फ्लैशबैक में राजीव गांधी की हत्या से शुरू होती यह किताब कोई चौंकाने वाला खुलासा नहीं करती, यह मोरो का लक्ष्य भी नहीं है। हां, वह यह इशारा जरूर करते हैं कि सोनिया या राहुल गांधी का प्रधानमंत्री जैसा पद न स्वीकारने के पीछे कहीं न कहीं अपनी हत्या हो जाने का डर है। इंदिरा गांधी ने सोनिया गांधी की गोद में दम तोड़ा था, जबकि राजीव गांधी की हत्या सबसे ज्यादा उनकी क्षति थी। हालांकि करीब सवा चार सौ पेज की इस किताब में सोनिया की तुलना में गांधी परिवार ही ज्यादा फोकस में है। इसकी वजह सोनिया गांधी से जुड़े तथ्यों का अभाव हो सकता है। अलबत्ता इसका जिक्र है कि सोनिया गांधी को लेकर ओरबेसैनो में एक गर्व का भाव हमेशा रहा है, उन्हें सिंड्रेला ऑफ ओरबैसेनो तक कहा गया। पर इस किताब में एक तथ्य खटकता है। रशीद किदवई की किताब में जिक्र है कि सोनिया के पिता कभी भारत नहीं आए। जबकि मोरो ने एक बार स्टीफेनो माइनो के भारत आने का जिक्र किया है-तब राजीव गांधी उन्हें रणथंभौर ले गए थे।

किताब के स्पैनिश संस्करण की तुलना में भारतीय संस्करण में मोरो ने, संभव है, कुछ बदलाव किए हों। इसके बावजूद यह समझना मुश्किल है कि कांग्रेस इसके प्रकाशन के विरोध में क्यों थी। सोनिया गांधी कितनी भी अंतर्मुखी क्यों न हों, अंततः वह एक सार्वजनिक व्यक्तित्व ही हैं।

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