Wednesday, 25 February 2015

वीएस अच्युतानंदन : जिस पर न चला कोई भी बंधन पवन वर्मा

93 साल की उम्र में लोग राजनीति तो क्या उन क्षेत्रों में भी दुर्लभता से ही दिखते हैं जो कहीं कम सक्रियता की मांग करते हैं. लेकिन दिग्गज सीपीएम नेता वीएस अच्युतानंदन की प्रासंगिकता का सूरज इस उम्र में भी अस्ताचल की बजाय बीच आसमान में दिख रहा है.
केरल विधानसभा में विपक्ष के नेता वीएस अच्युतानंदन के बारे में कहा जाता है कि विरोधी उनके जवाब जिंदगी भर याद रखते हैं. 2011 के केरल विधानसभा चुनाव में राहुल गांधी ने जब यह कहा कि राजनीति करने की उनकी उम्र खत्म हो चुकी है तो अच्युतानंदन का जवाब था कि राहुल तो ‘अमूल बेबी’ हैं. राष्ट्रीय स्तर पर यह जुमला इतना उछला कि आज भी ‘अमूल बेबी’ का जिक्र होने पर कांग्रेस उपाध्यक्ष ही याद आते हैं. इस समय अच्युतानंदन एक बार फिर चर्चा में हैं. वे हमेशा की तरह अपनी ही पार्टी से रार ठानकर बैठे हैं. यह स्थिति शनिवार को उनके द्वारा सीपीएम के राज्य स्तरीय सम्मेलन का बहिष्कार करने के बाद बनी है.+
सीपीएम भारत का एकमात्र राजनीतिक दल है जहां अनुशासन के सामने कोई वरिष्ठता या कनिष्ठता मायने नहीं रखती. 2008 में सोमनाथ चटर्जी लोकसभा अध्यक्ष थे. उस समय उन्होंने संवैधानिक पद का हवाला देते हुए सरकार के खिलाफ विश्वासमत पर पार्टी के साथ मतदान करने से मना कर दिया तो सीपीएम ने उन्हें भी तुरंत निष्कासित कर दिया था. लेकिन अच्युतानंदन के मामले में ऐसा नहीं है. वे शायद पार्टी के एकमात्र नेता होंगे जो कई बार पार्टी लाइन के खिलाफ जा चुके हैं. लेकिन कभी पार्टी ने उन्हें बाहर का दरवाजा दिखाने की हिम्मत नहीं की. इसी बात का दूसरा पक्ष यह है कि खुद वे भी कभी पार्टी से दूर नहीं हुए.+
दोनों पूर्व मुख्यमंत्री ऊंची जाति और धनी परिवारों से ताल्लुक रखते थे जबकि अच्युतानंदन निचली जाति और मजदूर-किसान वर्ग से आते हैं. यह विशेषता उनकी सबसे बड़ी राजनैतिक जमापूंजी है
तो आखिर वे बार-बार विद्रोह करते क्यों हैं? सवाल यह भी है कि क्यों सीपीएम के अनुशासन का डंडा उनके सामने कमजोर पड़ता रहा है?+
कम्युनिस्टों के बीच सक्रिय इस वरिष्ठतम नेता के राजनैतिक करियर की शुरुआत ही विद्रोह से हुई थी. 1964 में जब सीपीआई का विभाजन हुआ तब वे उन 32 लोगों में थे जिन्होंने सीपीएम का गठन किया. वे 1940 में सीपीआई के सदस्य बन गए थे. लेकिन 1962 में भारत-चीन युद्ध के समय पार्टी लाइन से अलग जाते हुए उन्होंने राष्ट्रवादी पार्टियों का समर्थन कर दिया. केरल में उन्होंने सैनिकों के लिए रक्तदान शिविरों का आयोजन करवाया. इसके बाद उन्हें पार्टी से बाहर का रास्ता दिका दिया गया. बाद में जब सीपीआई का विभाजन हुआ तो वे मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक सदस्य बने. केरल में सीपीएम की जड़ें जमाने में अच्युतानंदन की शख्सियत का बड़ा योगदान माना जाता है. ईएमएस नंबूदरीपाद (सीपीआई) जब दूसरी बार केरल के मुख्यमंत्री बने (1967) तो उनकी पार्टी से अलग हुए अच्युतानंदन पहली बार विधानसभा के सदस्य बने थे. हालांकि अपनी पार्टी में शीर्ष पदों पर वे थोड़ी देर से आए. 1980 में उन्हें सीपीएम की केरल इकाई का सचिव बनाया गया और 1985 में वे पार्टी की सबसे शक्तिशाली इकाई पोलित ब्यूरो के सदस्य बने.+
एक लंबे अरसे तक अच्युतानंदन केरल में पार्टी के कुशल संगठनकर्ता ही माने जाते रहे. कम्युनिस्टों में उनको न तो ईएमएस नंबूदरीपाद की तरह बुद्धिजीवी माना जाता है न ही ईके नयनार जैसा करिश्माई नेता. इनके बीच एक अंतर और है. दोनों पूर्व मुख्यमंत्री ऊंची जाति और धनी परिवारों से ताल्लुक रखते थे जबकि अच्युतानंदन निचली जाति और मजदूर-किसान वर्ग से आते हैं. लेकिन यही अंतर उनकी सबसे बड़ी राजनैतिक जमापूंजी भी है. इसी के दम पर उन्होंने 1980 से 1985 के बीच अलप्पुझा में एक किसान आंदोलन को राजनीतिक आंदोलन में तब्दील कर दिया था. किसानों और मजदूरों के बीच इस लोकप्रियता के चलते उन्हें 1991 में पार्टी की तरफ से मुख्यमंत्री पद का प्रत्याशी बनाया गया लेकिन दुर्भाग्य से एलडीएफ (सीपीएम का गठबंधन) चुनाव हार गया. दूसरा मौका उन्हें 1996 में मिला लेकिन इसबार खुद उनकी ही पार्टी के लोगों ने उन्हें चुनाव हरा दिया. यह पार्टी के भीतर उनके विरोधियों की संख्या बढ़ने का संकेत था.+
1990 का दशक बीतने के साथ-साथ केरल में मध्यवर्ग का तेजी से उभार हुआ. अच्युतानंदन ने इस फर्क को बड़ी तेजी से पकड़ा. वे अपने समकालीनों की तरह वर्ग संघर्ष की बातों में नहीं उलझे और भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों को आगे लेकर आए
अच्युतानंदन आज भी केरल में सीपीएम के सबसे लोकप्रिय नेता हैं
अच्युतानंदन आज भी केरल में सीपीएम के सबसे लोकप्रिय नेता हैं
अच्युतानंदन 2001 में पहली बार नेता प्रतिपक्ष बने तो जल्दी ही जनता के बीच लोकप्रिय हो गए. लेकिन इस समय तक राज्य स्तर पर उन्हें कभी उनके ही साथी रहे पिनाराई विजयन से चुनौती मिलने लगी थी. वे भी 1964 से सीपीएम के सदस्य हैं. राष्ट्रीय पोलित ब्यूरो के सदस्य विजयन 1998 में राज्य सचिव बने थे. कहा जाता है कि 2006 के विधानसभा चुनाव के पहले उनके गुट ने ही अच्युतानंदन का टिकट कटवा दिया था. लेकिन जब राज्यभर में इसका विरोध हुआ तो पोलित ब्यूरो को इस मामले में हस्तक्षेप करना पड़ा. अच्युतानंदन के पक्ष में ऐसा समर्थन देखकर सीपीएम ने न सिर्फ उन्हें चुनाव लड़वाया बल्कि चुनाव अभियान की पूरी जिम्मेदारी भी दे दी. उन्होंने चुनाव में लड़कियों का यौन शौषण, विभागों में भ्रष्टाचार और पर्यावरण सुरक्षा जैसे विषयों को उठाया जिनके बूते सीपीएम को परंपरागत वोटों के अलावा दूसरे तबकों के भी वोट मिल गए. नतीजा यह रहा कि पार्टी के और पार्टी के भीतर अपने विरोधियों को धराशायी करते हुए वे राज्य के मुख्यमंत्री (एलडीएफ सरकार) बन गए.+
अच्युतानंदन खुद मजदूर रहे हैं और उन्होंने उनके बीच तकरीबन आधे दशक तक काम किया है. इसी का असर है कि इन तबकों के बीच उनकी काफी पकड़ है. 1990 का दशक बीतने के साथ-साथ केरल में मध्यवर्ग का तेजी से उभार हुआ. अच्युतानंदन ने इस फर्क को बड़ी तेजी से पकड़ा. वे अपने समकालीनों की तरह वर्ग संघर्ष की बातों में नहीं उलझे और भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों को आगे लेकर आए. हालांकि सीपीएम इन मुद्दों को पार्टी की छवि के लिए ठीक नहीं समझती थी पर इस रणनीति से उसके वोटबैंक में पर्याप्त इजाफा हुआ. केरल में मुसलमान और ईसाई मतदाताओं की कुल संख्या 45 फीसदी के आसपास है. इनका झुकाव कांग्रेस की तरफ रहा है लेकिन अच्युतानंदन की वजह से इनका एक बड़ा हिस्सा बीते सालों में सीपीएम के पक्ष में आता रहा है. इन वजहों से अच्युतानंदन हाल के सालों में पार्टी के बड़े नेता बन चुके थे.+
पार्टी यह जानकर हैरान रह गई कि अच्युतानंदन के पक्ष में उनके समर्थकों ने फेसबुक व ट्विटर पर कैंपेन छेड़ दिया है. वहीं जमीन पर भी सीपीएम के इस फैसले का जमकर विरोध हो रहा था
मुख्यमंत्री बनने के बाद अच्युतानंदन ने भूमाफिया, सेक्स रैकेट चलाने वालों और भ्रष्टाचारियों के खिलाफ जमकर कार्रवाइयां कीं. कई बार उन्होंने अपनी पार्टी के नेताओं के खिलाफ भी कार्रवाई का समर्थन किया. उन्होंने भ्रष्टाचार के एक मामले में विजयन के खिलाफ सीबीआई जांच को भी सही बता दिया था जबकि पोलित ब्यूरो इसे राजनीतिक साजिश बता रहा था. ऐसे कदमों से अच्युतानंदन की छवि एक सादगी पसंद और ईमानदार नेता की तो बनी लेकिन, पार्टी के भीतर उनका काफी विरोध होने लगा.+
यही वजह थी कि उन्हें 2009 में पोलित ब्यूरो से हटा दिया गया. यह लगभग उसी समय तय हो गया था कि पार्टी 2011 का विधानसभा चुनाव अच्युतानंदन के नेतृत्व में नहीं लड़ेगी. हालांकि उस समय यह भी लग रहा था कि सीपीएम गठबंधन चुनाव में बुरी तरह हारेगा. विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री का टिकट काट दिया गया. सीपीएम का मानना था कि 2006 से अब तक स्थितियों में बहुत अंतर आ चुका है और अच्युतानंदन के चुनाव न लड़ने से पार्टी के प्रदर्शन पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला. लेकिन पार्टी यह जानकर हैरान रह गई कि अच्युतानंदन के पक्ष में उनके समर्थकों ने फेसबुक व ट्विटर पर कैंपेन छेड़ दिया है. वहीं जमीन पर भी सीपीएम के इस फैसले का जमकर विरोध हो रहा था. आखिरकार अच्युतानंदन को टिकट दे दिया गया. और ताज्जुब की बात यह कि उनके मैदान में आते ही कांग्रेसनीत गठबंधन यूडीएफ और एलडीएफ (सीपीएम का गठबंधन) के बीच मुकाबला कांटे का हो गया. इस चुनाव में भले ही यूडीएफ की सरकार बन गई लेकिन, चुनाव विश्लेषकों का कहना था कि यदि सीपीएम अच्युतानंदन को चुनाव में पहले उतार देती तो एलडीएफ की सरकार दोबारा बन सकती थी. इस चुनाव के बाद अच्युतानंदन को विपक्ष का नेता चुना गया और वे एक बार फिर केरल में सीपीएम के सबसे ताकतवर नेता बन गए.+
काफी सालों से अच्युतानंदन और विजयन के बीच चल रहा संघर्ष इन दिनों अपने निर्णायक मोड़ पर पहुंचा हुआ लग रहा था. राज्य समिति ने पूर्वमुख्यमंत्री पर पार्टी विरोधी गतिविधियों का आरोप लगाया था. इसी के चलते अच्युतानंदन ने पार्टी की बैठक का बहिष्कार किया और उन्हें नई राज्य समिति में जगह नहीं दी गई. संभावना जताई जा रही है कि कुछ दिनों में वे नेता प्रतिपक्ष के पद से भी इस्तीफा दे देंगे. यह कदम उनके सक्रिय राजनीतिक जीवन से संन्यास की घोषणा की तरह होगा. इस घोषणा की तरह भी कि भारतीय राजनीति का एक ऐसा चिरविद्रोही राजनीतिक पटल पर अब नहीं दिखेगा जो अपनी पार्टी को भी कभी चुनौती देने से नहीं चूका

No comments:

Post a Comment