Thursday, 26 February 2015

आरके पचौरीः नोबेल से जेल की नौबत तक @पवन वर्मा

डॉक्टर आरके पचौरी से आईपीसीसी का अध्यक्ष पद छोड़ने की मांग लंबे अरसे से की जा रही थी लेकिन, शायद ही किसी ने सोचा हो कि उन्हें इस तरह जाना पड़ेगा.
डॉ संजय नाथ जलवायु परिवर्तन के विशेषज्ञ हैं. जिंदगी का छठवां दशक जी रहे इस वैज्ञानिक ने अपना बचपन नैनीताल में बिताया और फिर पढ़ाई के लिए अमेरिका चला गया. वहां सालों तक नौकरी की. कुछ समय लैटिन अमेरिकी देश पेरू में भी रहा. आज वह वापस नैनीताल आ चुका है. अब संजय नाथ एक योग गुरू हैं. लेकिन आज भी वे अमेरिका में अपनी एक महिला मित्र के साथ बिताए अंतरंग क्षण याद करते हैं. बाद में नैनीताल में ही उनके कई महिलाओं से संबंध बनते हैं और इन सभी घटनाओं को वे अपने जीवन की आध्यात्मिक यात्रा कहते हैं.+
यह कथानक 2010 में प्रकाशित उपन्यास रिटर्न टू अलमोड़ा का है. इसे इंटरगवर्मेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) के पूर्व चेयरमैन डॉ राजेंद्र कुमार पचौरी ने लिखा था. पचौरी द एनर्जी एंड रिसर्च इंस्टिट्यूट (टेरी) के भी महानिदेशक हैं. दिलचस्प बात यह है कि उपन्यास के नायक की बहुत सी बातें पचौरी से मिलती हैं. सबसे पहली तो यही कि उसका बचपन भी नैनीताल में बीता है. इंसान द्वारा पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने की कोशिशें उसे बेचैन करती हैं. बाद में उसकी भी पढ़ाई अमेरिका में होती है और पचौरी की तरह वह भी जलवायु परिवर्तन विशेषज्ञ बनता है.+
उपन्यास के नायक की बहुत सी बातें पचौरी से मिलती हैं. सबसे पहली तो यही कि उसका बचपन भी नैनीताल में बीता है. इंसान द्वारा पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने की कोशिशें उसे बेचैन करती हैं
कई बार जीवन की हकीकत में अच्छे-अच्छे उपन्यासों से ज्यादा नाटकीयता होती है. आरके पचौरी के साथ भी ऐसा ही होता दिख रहा है. टेरी की एक कर्मचारी द्वारा यौन शोषण का आरोप लगने के बाद पचौरी को आईपीसीसी से इस्तीफा देना पड़ा. टेरी से उन्होंने कुछ समय की छुट्टी ले ली है लेकिन यहां से भी उनके इस्तीफे की मांग लगातार तेज होती जा रही है. आलम यह है कि गिरफ्तारी से बचने के लिए वे अग्रिम जमानत की कवायद कर रहे हैं.+
1940 में पैदा हुए पचौरी सामान्य परिवार के बच्चे नहीं थे. उनके पिता शिक्षा मनोविज्ञानी थे जिन्होंने लंदन से पीएचडी की थी. मां बर्मा मूल की थीं. यानी उनके लिए बाहरी दुनिया आम भारतीय बच्चों की तरह कभी अजूबा नहीं रही. फिर उनकी शिक्षा भी लखनऊ के प्रतिष्ठित ल मार्टिनीयर स्कूल में हुई थी. वे लगभग इसी रास्ते पर थे कि आगे जाकर किसी बड़े संस्थान को संभालें. उनकी मां चाहती थीं कि वे सिविल सर्विस में जाएं लेकिन, उन्होंने रेलवे के इंजीनियरिंग कॉलेज से डिग्री ली. इसके बाद उनकी तैनाती बनारस में हो गई. कुछ ही महीनों बाद वे उच्च शिक्षा के लिए अमेरिका चले गए. नॉर्थ कैरोलीना युनिवर्सिटी से उन्होंने इंडस्ट्रियल इंजीनियरिंग में पीएचडी की.+
पश्चिमी देशों खासकर अमेरिका में राजेंद्र पचौरी एक बड़ा नाम 2002 में बने जब आईपीसीसी के चेयरमैन पद का चुनाव लड़ा. वे भारत समर्थित प्रत्याशी थे
ऐसा बहुत कम होता है कि कोई अपने देश से पहले अंतर्राष्ट्रीय जगत में जाना-माना नाम बन जाए. आरके पचौरी इन्हीं लोगों में से हैं. आईपीसीसी से जुड़ने के पहले वे नॉर्थ कैरोलीना स्टेट युनिवर्सिटी और वैस्ट वर्जीनिया युनिवर्सिटी में प्रोफेसर रह चुके थे. इसके बाद वे भारत लौटे. यहां कुछ सरकारी संस्थानों में काम करने के बाद 1982 में वे टेरी के निदेशक बन गए. यही पहला मंच था जहां से उन्होंने जलवायु परिवर्तन के मुद्दे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उठाए. 90 के दशक तक पश्चिमी देशों में यह मुद्दा काफी महत्वपूर्ण बन चुका था. यह आवश्यकता महसूस की जाने लगी थी कि जलवायु परिवर्तन के मसले पर एक अंतर्राष्ट्रीय समझौता हो. 1997 का क्योटो प्रोटोकॉल इसी नतीजा था. इसकी रूपरेखा तय करने में पचौरी की भी अहम भूमिका रही. यह भी एक वजह थी कि संयुक्त राष्ट्र में जलवायु परिवर्तन से जुड़े विशेषज्ञों के बीच उनका कद काफी बढ़ गया.+
हालांकि पचौरी इससे पहले ही आईपीसीसी से जुड़ चुके थे. 1995 में इस संस्था की जो दूसरी समीक्षा रिपोर्ट आई, पचौरी उसके मुख्य लेखकों मे शामिल थे. दरअसल आईपीसीसी एक निश्चित समयावधि के बाद जलवायु परिवर्तन पर अपनी समीक्षा रिपोर्टें जारी करता है जो अंतर्राष्ट्रीय समझौतों का आधार बनती हैं. तीसरी रिपोर्ट के समय तक वे आईपीसीसी के को-चेयरमैन बन गए. पश्चिमी देशों खासकर अमेरिका में वे एक बड़ा नाम 2002 में बने जब उन्होंने इस संस्था के चेयरमैन पद का चुनाव लड़ा. वे भारत समर्थित प्रत्याशी थे और उन्हें अमेरिका की बुश सरकार भी इस पद पर देखना चाहती थी. पचौरी रॉबर्ट वॉटसन के खिलाफ चुनाव लड़ रहे थे जिन्हें अमेरिका के पूर्व उपराष्ट्रपति और पर्यावरणविद अल गोर का समर्थन हासिल था.+
2010 में इंग्लैंड के डेली टेलीग्राफ ने दावा किया था कि टेरी का निदेशक रहते हुए उन्होंने कई निजी कंपनियों का फायदा पहुंचाने का काम किया है. हालांकि ये आरोप कभी साबित नहीं हो पाए.
यह चुनाव वॉटसन हार गए. इसपर अल गोर ने पचौरी की काफी आलोचना की थी. यहां तक कि उन्होंने न्यूयॉर्क टाइम्स में एक लेख भी लिखा. इसी अखबार के माध्यम से पचौरी ने भी इसका जवाब दिया. इस विवाद से पचौरी पश्चिमी दुनिया में काफी चर्चित हो गए. हालांकि बताते हैं कि बाद में अल गोर उनके कामों से प्रभावित हुए और उनके बीच अच्छे संबंध बन गए. प्रतीकात्मक रूप से ही सही लेकिन इसकी सार्वजनिक घोषणा उस समय हुई जब 2007 मे अल गोर और आईपीसीसी को संयुक्तरूप से शांति के नोबेल पुरस्कार के लिए चुना गया.+
भारत में आरके पचौरी की चर्चा 2007 में ही सबसे ज्यादा हुई. लेकिन विडंबना यह थी कि इसके पीछे एक अच्छी वजह थी तो दूसरी बुरी. अच्छी वजह यही थी कि आईपीसीसी को नोबेल पुरस्कार मिला था और उसका नेतृत्व एक भारतीय यानी राजेंद्र कुमार पचौरी के हाथ में था. अब बुरी वजह पर आते हैं. आईपीसीसी पर आरोप लगता रहा है कि यह संस्थान एक विशेष एजेंडे के तहत जलवायु परिवर्तन की आड़ में विकासशील देशों की नीतियां बदलवाने का काम करता है. आईपीसीसी की 2007 में आई एक रिपोर्ट को ऐसे आरोपों के पक्ष में सबसे बड़ी मिसाल बताया जाता है. इसमें दावा किया गया था कि ग्लोबल वॉर्मिंग के चलते हिमालय के सारे ग्लेशियर 2035 तक पिघल जाएंगे. इस रिपोर्ट पर भारत में सबसे ज्यादा बहस होनी थी. लेकिन बहस शुरू होने पहले ही यह पता चला कि ये सारे दावे गलत हैं और इनका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है. आईपीसीसी की रिपोर्ट का यह हिस्सा जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में कार्यरत एक पर्यावरणविद् सैयद इकबाल हसनैन के किसी मीडिया इंटरव्यू से लिया गया था. हसनैन ने यह दावा अनुमानों के आधार पर किया था. आईपीसीसी का इतना बड़ा दावा गलत होने बाद भी पचौरी ने कभी इसकी जिम्मेदारी नहीं ली.+
हालांकि इस विवाद का पचौरी के करियर पर कोई असर नहीं पड़ा और 2008 में वे आईपीसीसी के चेयरमैन पद के लिए दोबारा चुन लिए गए. उनका यह कार्यकाल भी विवादों से परे नहीं रहा है. 2010 में इंग्लैंड के डेली टेलीग्राफ ने दावा किया था कि टेरी का निदेशक रहते हुए उन्होंने कई निजी कंपनियों का फायदा पहुंचाने का काम किया है. हालांकि ये आरोप कभी साबित नहीं हो पाए. ऐसे ही कुछ आरोप द गार्जियन और दूसरे अखबार भी लगाते रहे है. इस आधार पर उनसे आईपीसीसी से इस्तीफा देने की मांग भी लगातार की गई. पचौरी के साथ विडंबना यह रही कि जो उनका मुख्य काम था उसके लिए तो नहीं लेकिन एक दूसरे मामले की वजह से उन्हें न सिर्फ आईपीसीसी बल्कि टेरी के प्रमुख के पद से भी इस्तीफा देना पड़ा.+
आरके पचौरी अक्सर अमेरिका के आदिवासी नेता की एक उक्ति दोहराते हैं जिसका सार है कि इंसान जीवन का तानाबाना नहीं बुनता. बल्कि वह उसकी एक कड़ी है और उसका एक काम उसके पूरे जीवन को प्रभावित कर देता है. हो सकता है पचौरी के जीवन में इस समय यही उक्ति लागू हो रही हो.

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