Saturday, 28 February 2015

नेताओं और अफ़सरशाहों की अजब-ग़ज़ब कहानियाँ @रेहान फ़ज़ल

भारत की राजनीतिक और प्रशासनिक मशीनरी के कामों पर जितनी बहस पिछले कुछ सालों में हुई है, उतनी शायद आज़ादी के 67 सालों में पहले कभी नहीं हुई.
भारत के पूर्व कैबिनेट सचिव टीएसआर सुब्रहमण्यम पहले भी अफ़सरशाहों और नेताओं के संबंधों पर एक बेबाक पुस्तक 'जरनीज़ थ्रू बाबूडम एंड नेतालैंड' लिख कर नाम कमा चुके हैं.
अब उनकी एक नई पुस्तक 'इंडिया एट टर्निंग प्वाइंट, द रोड टू गुड गवर्नेंस' प्रकाशित हुई है, जिसमें उन्होंने भारतीय शासन तंत्र, नेताओं और अफ़सरों के संबंधों से जुड़े विभिन्न पहलुओं पर अपनी बारीक नज़र दौड़ाई है.
हाल के वर्षों में नीतियों और उनके क्रियान्वन में भेद न कर पाना सबसे बड़ा मुद्दा बनकर उभरा है. टीएसआर उदाहरण देते हैं कि किस तरह तीन साल पहले तत्कालीन कैबिनेट सचिव गुप्त रूप से दो कैबिनेट मंत्रियों के साथ बाबा रामदेव से मिलने दिल्ली हवाई अड्डे पहुंचे थे और फिर उनको ख़ुफ़िया तौर पर 'बातचीत करने के लिए' एक होटल में ले गए थे.
उसी तरह जब एक बार सरकार संसद में अविश्वास प्रस्ताव का सामना कर रही थी तब पेट्रोलियम सचिव और प्रधानमंत्री कार्यालय के एक बहुत वरिष्ठ अधिकारी को मुलायम सिंह और अमर सिंह के पास उनका राजनीतिक समर्थन लेने के लिए भेजा गया था.

दुर्घटना और नेता

टीएसआर का मानना है कि कोई दुर्घटना होने पर भारतीय नेता की सबसे बड़ी फ़ितरत है वहाँ सबसे पहले पहुंच कर तस्वीर खिंचवाना.
यह पूरी तरह भुला दिया जाता है कि दुर्घटनास्थल पर वीआईपी की उपस्थिति से राहत कार्यों पर बुरा असर पड़ता है.
न्यूयॉर्क में 9/11 के हादसे के दौरान राष्ट्रपति बुश पूरे सात दिनों तक वहाँ नहीं पहुंचे थे और सारी व्यवस्था की ज़िम्मेदारी वहाँ के मेयर पर थी. उस घटना के कुछ दिनों बाद जब मियामी में तूफ़ान आया था तो गवर्नर ने इस आधार पर उप राष्ट्रपति अल गोर को वहाँ जाने की इजाज़त नहीं दी थी कि इससे राहत कार्यों में व्यवधान आएगा.
भारत में कहीं हादसा हुआ नहीं कि घंटे भर में मुख्यमंत्री या केंद्रीय मंत्री हेलिकॉप्टरों से वहाँ पहुंचने लगते हैं और कई बार तो इससे पहले कि स्थानीय प्रशासन एंबुलेंस और राहत सामग्री के साथ वहाँ पहुंचे, इन नेताओं की हाज़िरी वहाँ लग चुकी होती है.
प्रशासन का पूरा ध्यान उनकी देखरेख और आव-भगत में लग जाता है और राहत कार्य बुरी तरह से प्रभावित होते हैं.

दौरों का शौक
टीएसआर बताते हैं कि किस तरह तत्कालीन रक्षा मंत्री जॉर्ज फ़र्नांडीस ने अपने कार्यकाल के दौरान 18 बार सियाचिन का दौरा किया था. टीएसआर पूछते हैं- क्या फ़र्नांडीस जब भी बोर हो जाते थे, टैक्स-पेयर के ख़र्चे पर सियाचिन का रुख़ कर लेते थे, या फिर उन्हें हिमालय की चोटियों को देखने का शौक था या साउथ ब्लॉक में उनके पास कुछ काम नहीं था?
टीएसआर का कहना है कि इसी तरह अस्सी के दशक में तत्कालीन वाणिज्य मंत्री प्रणव मुखर्जी को शॉर्ट-नोटिस पर मध्यपूर्व के देशों में जाने का शौक था. जब भी वो कैबिनेट बैठकों में किसी मुद्दे को टालना चाहते थे, वो दुबई या अबूधाबी का रुख़ करते थे और वहां के भारतीय राजदूतों के लिए सबसे बड़ी समस्या ये रहती थी कि मंत्री महोदय के वहाँ गाहे-बगाहे पहुंचने का कोई औचित्य तैयार रखा जाए.
टीएसआर याद करते हैं कि उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी की भी आदत थी कि बात-बात पर पंतनगर विश्वविद्यालय का दौरा किया जाए. जब भी वो वहाँ पहुंचते थे, पूरा गेस्ट हाउस खाली कराया जाता था और पूरे इलाके की नाकेबंदी कर दी जाती थी.

विदेश मंत्री का भाषण

पूर्व विदेश मंत्री एस एम कृष्णा ने एक बार संयुक्त राष्ट्र संघ में पुर्तगाली विदेश मंत्री का भाषण पढ़ दिया था.
टीएसआर पूछते हैं कि कौन कहता है कि सार्वजनिक जीवन में हास्य के लिए कोई जगह नहीं है? वो तत्कालीन विदेश मंत्री एस एम कृष्णा का उदाहरण देते हैं कि किस तरह उन्होंने एक बार संयुक्त राष्ट्र संघ में पुर्तगाली विदेश मंत्री का भाषण पढ़ दिया.
हुआ ये कि उनसे पहले भाषण देने वाले पुर्तगाली विदेश मंत्री के भाषण की एक प्रति उनके सामने रखी हुई थी. उन्होंने उसे ही उठा कर पढ़ना शुरू कर दिया और एक पेज तक न तो उन्हें और न ही किसी और को अंदाज़ा हुआ कि वो दूसरे का भाषण पढ़ रहे हैं.
वो यहाँ तक कह गए कि "मैं अध्यक्ष महोदय को पुर्तगाल की सरकार और जनता की तरफ़ से धन्यवाद देता हूँ."
टीएसआर कहते हैं, "बाद में मैंने संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थाई प्रतिनिधि हरदीप पुरी से पूछा कि आप तो मंत्री के बगल में बैठे हुए थे. आप के रहते इतनी बड़ी गलती कैसे हो गई."
इस पर हरदीप हंसे और बोले "तीसरी या चौथी लाइन के बाद ही मुझे अंदाज़ा हो गया था कि कहीं कुछ ग़लत हो रहा है. मैंने दो बार मंत्री की जैकेट पकड़ कर उन्हें इशारा करने की कोशिश की लेकिन उन्होंने मेरी तरफ देखा तक नहीं और पुर्तगाली मंत्री का भाषण पढ़ना जारी रखा."
आख़िरकार पुरी को ज़बरदस्ती वो भाषण कृष्णा के सामने से हटाना पड़ा. उन्होंने उनके सामने उनका असली भाषण रखा और मज़े की बात कि कृष्णा ने वो भाषण फिर से पहले पेज और पहली लाइन से पढ़ना शुरू किया.

ग़रीबी की परिभाषा

भारत की अधिकतर जनता आज भी ग़रीबी रेखा से नीचे रहती है.
टीएसआर कहते हैं कि सरकार की खाद्य गारंटी योजना जिसके तहत 75 फ़ीसदी ग्रामीण और 50 फ़ीसदी शहरी लोगों को रियायती दाम पर अनाज उपलब्ध कराया जाएगा, इस बात की स्वीकारोक्ति है कि भारत की अधिकतर जनता ग़रीबी रेखा से नीचे रहती है.
वो कहते हैं कि ये भारत में ही हो सकता है कि ग़रीब कहलाने की परिभाषा 27 रुपए प्रति दिन तय की जाए, जबकि पूरी दुनिया में ये मापदंड दो डॉलर यानि 120 रुपए प्रतिदिन हैं.
उनका कहना है कि लगता है यहाँ के शासक वर्ग को इसका अहसास ही नहीं है कि गरीब लोगों को खाने के अलावा विटामिन, दवाओं, कपड़ों और जूतों की भी ज़रूरत होती है. वो साल भर अनाज की एक कटोरी से गुज़ारा कर सकते हैं या कभी-कभार उनका भी जी चाहता होगा कि उनके भोजन में प्याज़ न सही मिर्ची का छौंक तो लग ही जाए.
अगर प्याज़ बहुत महंगा है तो उसे दोगुनी कीमत पर उपलब्ध कराया जा सकता है. भारतीय शासन तंत्र की सोच यही है कि अगर भारतवासियों को रोटी मयस्सर नहीं है तो उन्हें खाने के लिए केक दीजिए.

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