जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर रहे और अपनी आत्मकथा 'मुर्दहिया' और 'मणिकर्णिका' से ख़ास पहचान बनाने वाले तुलसी राम का शुक्रवार को देहांत हो गया.
इनकी आत्मकथा पाठकों को बहुत क़रीब से छुआ और हिंदी पट्टी के उस सामाजिक ताने बाने को सबके सामने ला दिया जिसमें दलित का जीवन बहुत ही कठिन होता है.
अपने गांव से बनारस हिंदू विश्वविद्यालय और फिर दिल्ली और यहां जेएनयू में अध्यापन तक का उनका जीवन बहुत संघर्षपूर्ण रहा.
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वे लंबे समय तक स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज़ में प्रोफेसर रहे. लेकिन कभी उस फर्मे में फ़िट नहीं बैठे जिसमें सगर्व समा जाने के बाद जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी (जेएनयू) के ज़्यादातर अध्यापक चमकीले प्लास्टिक के बने ज्ञानी लगने लगते हैं.
उन्हें देखकर हमेशा मुझे उस धातु की महीन झंकार सुनाई देती थी जिसके कारण भुखमरी, जातीय प्रताड़ना का शिकार, सामंती पुरबिया समाज में दुर्भाग्य का प्रतीक वह चेचकरू, डेढ़ आंख वाला दलित लड़का घर से भागकर न जाने कैसे अकादमियों में तराश कर जड़ों से काट दिए गए प्रोफेसरों की दुनिया में चला आया था.
अपमान से कुंठित होने के बजाय पानी की तरह चलते जाने का जज़्बा उन्हें बहुतों के दिलों में उतार गया था.
मुझे इसका अंदाज़ा पिछले साल एक शाम चंडीगढ़ में एक पार्क की बेंच पर हुआ जब कवयित्री प्रो. मोनिका कुमार ने कहा था, “मैं उनको प्यार करती हूं. उनसे उन सब चीजों के लिए माफी मांगने का मन करता है जो उन्हें दलित होने के नाते जिंदगी में सहनी पड़ीं.”
आजमगढ़ के चिरइयाकोट में तुलसी राम का गांव धरमपुर मेरे अपने गांव से थोड़ी ही दूरी पर है, लेकिन उनसे मुलाक़ात उनकी आत्मकथा 'मुर्दहिया' और 'मणिकर्णिका' के पन्नों पर हुई.
उन्होंने मेरे गांव के दक्खिन टोले की वह दुनिया दिखाई जो मैं उसी हवा में पलने के बावजूद नहीं देख पाया था.
लड़ने की परंपरा
दलित आत्मकथाएं बहुत लिखीं गई हैं, लेकिन उनमें से ज़्यादातर छुआछूत और उत्पीड़न की सिर्फ शिकायत करती हैं.
हद से हद प्रतिशोध में इस क़दर फुफकारती हैं कि जेल जाने की नौबत आने पर बसपा सुप्रीमो मायावती द्वारा अक्सर बोले जाने वाले 'दलित की बेटी' वाले जुमले की याद आ जाती है.
तुलसी राम ने दिखाया कि दलित सिर्फ बिसूरते नहीं हैं, उनकी भी आत्मसम्मान की रक्षा के लिए लड़ने की परंपरा है, अपने हथियार हैं.
जब पानी सिर के ऊपर चला जाता है तो मुर्दहिया की दलित औरतें सवर्ण जमींदारों और ब्राह्मणों को बम की तरह हंड़िया (जिनमें औरतों की जचगी के बाद का जैविक कचरा भरा होता था) और तलवारों की तरह जानवरों की ठठरियां लेकर दौड़ाती थीं और वे अपवित्र हो जाने के डर से भागते थे.
ऐसी हड्डी की तलवारें मैने दलितों के घरों में देखी जरूर थीं, लेकिन उनका इस्तेमाल देखने का मौका शहर और गांव की आवाजाही के बीच नहीं लग पाया था.
प्रताड़ना और सदाशयता
घनघोर प्रताड़ना के बावजूद उन्होंने आत्मकथा में उन सदाशय सर्वणों को भी याद रखा जिन्होंने एक वक़्त खाना खिलाया, फीस भरी या चुपचाप चलते रहने का हौसला दिया.
मुझे इन्हीं दो बातों के बीच वो विज़न दिखाई देता है, जिससे दलित आंदोलन अंबेडकर की अंधपूजा करते हुए गांधी, मुंशी प्रेमचंद, लोहिया और कम्युनिस्टों को गाली देते हुए सत्ता के लिए निहायत अवसरवादी गठजोड़ बनाकर अवरुद्ध हो जाने से छूटकर आगे कामयाबी की ओर जा सकता है.
इन दिनों दलित नेताओं, नौकरशाहों, कारोबारियों के बीच धनी हो कर शहरों में स्थापित होने के बाद नई मनमाफ़िक बीवी लाने और नया अतीत बनाने का चलन है.
लेकिन तुलसीराम ने अपनी जड़ों को जिस सरलता से याद किया और अपनी पक्षधरता को बेधड़क लिखा वह दुर्लभ है.
जब तक समानता सिर्फ स्वप्न है पूरा भारत मुर्दहिया है, जिसमें तुलसी राम की धातु की झंकार जब भी कोई कोशिश करेगा सुनाई देगी. उन्हें सलाम.
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