Tuesday, 3 February 2015

जनवरी 1948, दिल्ली: 'मरता है तो मरने दो' @ अपूर्वानंद

महात्मा गांधी
जनवरी, 2015 को गाँधी की भारत वापसी की सदी के तौर पर मनाया जा रहा है. लेकिन जनवरी से गांधी का जुड़ाव और भी कई स्तरों पर है.
जनवरी में ही गांधी ने अपने जीवन का आख़िरी उपवास किया. जनवरी ख़त्म होने को ही थी कि गाँधी की ज़िंदगी ख़त्म कर दी गई. इसलिए गांधी और भारत के बीच के रिश्ते को समझने के लिहाज़ से जनवरी एक महत्वपूर्ण महीना है.
इसकी शुरुआत भारत और गांधी के प्रेम प्रसंग से हुई जो बत्तीस साल तक चला. उसके बाद शुरू हुआ गांधी के साथ भारत का संघर्ष. वे अपने ही मुल्क से लड़ रहे थे और हारा हुआ महसूस कर रहे थे.
इसका अंत हुआ गाँधी की भारत से निराशा के साथ.
कम से कम भारत के बड़े हिस्से के हिंदू उनसे अधिक निराश हो चुके थे. उनके मुताबिक़ गांधी उनके लिए न सिर्फ़ ग़ैरज़रूरी हो गए थे, बल्कि उनको लगने लगा था कि गांधी का जीवित रहना भारत के लिए ख़तरनाक हो सकता था.

चूल्हा नहीं जला

महात्मा गांधी
इसलिए जब नाथूराम गोडसे ने उन्हें गोली मारकर उनकी इहलीला समाप्त कर दी तो एक तरफ़ कई घरों में चूल्हा नहीं जला, लेकिन दूसरी ओर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सदस्यों और समर्थकों ने मिठाइयाँ बांटी और दीवाली मनाई.
आज जब वह संघ भारत की सत्ता पर क़ाबिज़ है. तो यह एक मौक़ा हो सकता है यह विचार करने का कि क्या अंतिम रूप से गाँधी के विचारों को विदाई दे दी गई है.
12 जनवरी,1948 को गांधी ने अपनी शाम की प्रार्थना सभा में अगले दिन से बेमियादी उपवास का ऐलान किया. गाँधी 78 साल के हो चुके थे.
वे उपवास करने में माहिर थे, लेकिन इस थकी देह और उम्र में इस फ़ैसले ने पूरे देश को चिंता और हैरानी में डाल दिया.
गांधी की मांग इस बार अपने ही लोगों से थी और वे भी ख़ासकर हिंदुओं से. वे हिंदुओं, सिखों और मुसलमानों के दिलों के मिलने की मांग कर रहे थे.

दो मुल्क

महात्मा गांधी
1946-47 गाँधी ही नहीं देश के सभी नेताओं के लिए बेहद थकान भरे साल थे. आज़ादी क़रीब आ रही थी, लेकिन यह दो मुल्कों के बनने का वक़्त भी था. पूरे देश में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच अकल्पनीय हिंसा भड़क उठी थी. दोनों ही अमानवीयता की चरम को छूने को बेताब थे.
जिन्ना के डायरेक्ट एक्शन (सीधी कार्रवाई) के ऐलान ने कलकत्ते में क़त्लोग़ारत की शुरुआत कर दी थी. गांधी वहां गए और उपवास पर बैठ गए. तभी हिंसा के दोषी माने जाने वाले सुहरावर्दी वहां आए और उन्होंने माफ़ी माँगी. इस प्रकार कलकत्ते में अमन क़ायम हुआ.
12 जनवरी को गांधी ने कहा, “जब मैं नौ सितंबर को कलकत्ते से दिल्ली लौटा तो इरादा पश्चिम पंजाब जाने का था, लेकिन ऐसा न हो सका. उस समय ख़ुशदिल दिल्ली मुर्दों का शहर लग रही थी. मैं जब ट्रेन से उतरा तो हर चेहरे पर उदासी पुती थी. सरदार प्लेटफ़ॉर्म पर मौजूद थे. उन्होने बिना वक़्त गँवाए मुझे इस महानगर की गड़बड़ियों के बारे में बताया. मैंने फ़ौरन समझ लिया कि मुझे दिल्ली में ही रहना है और ‘करना है या मरना है'. उन्होंने आगे कहा, "हालांकि फ़ौज और पुलिस की वजह से ऊपरी अमन था, लेकिन दिलों में तूफ़ान था. वह कभी भी फूट सकता था. "इससे मेरा ‘करने’ का संकल्प पूरा नहीं होता था और वही मुझे मौत से अलग रख सकता था, मौत जो अतुलनीय मित्र है. जिस दिल्ली में ज़ाकिर हुसैन इत्मीनान से न चल-फिर सकें, वह उनकी नहीं हो सकती थी.

मौत की ओर क़दम

महात्मा गांधी
गांधी ने अपने प्रयासों को नाकाफ़ी मानकर मौत की तरफ़ क़दम बढ़ाने का फ़ैसला किया. गांधी ने कहा, "जब तक आज तक मिलकर रहने वाले हिंदू और मुसलमान उन्हें यक़ीन न दिला दें कि उन्होंने आपसी रंजिश मिटा दी है और साथ-साथ रहने को तैयार हैं, तब तक वे उपवास नहीं तोड़ेंगे."
दिल्ली पाकिस्तान से आए शरणार्थियों से भरी हुई थी. उनके साथ पाकिस्तान में हिंदुओं पर हुए ज़ुल्म की भयानक कहानियां भी आ रहीं थीं. यहाँ मुसलमानों पर हमले हो रहे थे, वे अपने इलाक़ों को छोड़ने पर मजबूर थे. मस्जिदों को तोड़ा और मंदिरों में बदला जा रहा था. महरौली के ख़्वाजा क़ुतुबुद्दीन के मज़ार पर हिन्दुओं का क़ब्ज़ा हो गया था.
गांधी की मांग थी कि शरणार्थी हिंदू और सिख, मुस्लिम घरों और पूजा स्थलों से निकलें. ये पाकिस्तान से अपना सब कुछ खो कर आए थे और यहाँ उनसे जनवरी की कड़ाके की ठंड को झेलने को कहा जा रहा था. वे गाँधी के उपवास से बेहद नाराज़ थे. दिल्ली में ‘मरता है तो मरने दो’ के नारे लग रहे थे. गाँधी अविचलित थे.
वे पाकिस्तान जाना चाहते थे और वहां मुसलमानों को वही कहना चाहते थे जो यहाँ हिन्दुओं को कह रहे थे. आख़िर नोआखाली के हमलावर मुसलमानों की नफ़रत झेलकर भी उन्होंने उन्हें हिंसा के रास्ते से अलग कर लिया था, लेकिन अगर यहाँ मुसलमानों पर हमले होते रहे तो वे किस मुंह से पाकिस्तान जाएंगे.

इंसाफ़ और उदारता की माँग

महात्मा गांधी
उन्होंने बँटवारे की वजह से संसाधनों के बँटवारे में भी भारत से इंसाफ़ और उदारता की माँग की और पाकिस्तान को उसका हिस्सा देने को कहा.
गाँधी के बेटे ने कहा कि वे उपवास करके ग़लत कर रहे थे. उनके जीवित रहने पर लाखों जानें बच सकती थीं. गाँधी ने बेटे की अपील भी ठुकरा दी.
गाँधी का यह उपवास सत्रह तारीख़ तक चला. दिल्ली और भारत ही नहीं पूरी दुनिया की निगाहें इस विचित्र उपवास पर लगी थीं. एक सनातनी हिंदू अपने ही धर्मवालों से इस उपवास के ज़रिए बहस कर रहा था. वह उन्हें अपने ह्रदय को जागृत करने को कह रहा था. यह तक़रीबन नामुमकिन माँग थी.
गाँधी मुसलमानों से किसी भी वफ़ादारी के ऐलान की मांग के ख़िलाफ़ थे. जिन मुसलमानों ने यहाँ रहने का फ़ैसला किया था, उनपर शक करना गुनाह था. भारत को धर्म-निरपेक्ष होना था. क्या यह प्रयोग नाकामयाब हो जाएगा? फिर गाँधी के बचे रहने का भी कोई मतलब न था.
17 जनवरी को राजेन्द्र प्रसाद के घर पर करोल बाग़, पहाडगंज, सब्ज़ी मंडी और दूसरे इलाक़ों के अगुओं की बैठक हुई. शरणार्थी शिविरों के हिन्दुओं और सिखों ने इस वादे पर दस्तख़त किए कि वे मुस्लिम मिल्कियत वाली जगहों को और मस्जिदों को ख़ाली कर देंगे.

तोड़ा उपवास

महात्मा गांधी
18 जनवरी की सुबह सब फिर राजेन्द्र प्रसाद के घर इकठ्ठा हुए और दुबारा संकल्प पर ग़ौर किया. फिर सब गांधी के पास पहुँचे.
राजेंद्र बाबू ने उनकी ओर से गाँधी को विश्वास दिलाया कि सबने सच्चे ह्रदय से हिंसा और दुराव ख़त्म करने का निर्णय किया है. महरौली के ख़्वाजा का सालाना उर्स भी पहले जैसे ही मिल कर मनाया जाएगा.
18 तारीख़ को भारत में यह अनोखी घटना हुई. सांप्रदायिक सौहार्द का घोषणा पत्र हिंसा के बीच सबने क़बूल किया. गाँधी ने इसके बाद दिन के पौन बजे अपना उपवास तोड़ा.
गाँधी के इस उपवास ने धर्मनिरपेक्ष भारत की नींव रखी. ज़ाहिर है, इससे वे उन लोगों की नज़र में सबसे बड़े दुश्मन हुए जो इसे पाकिस्तान की तर्ज़ पर हिंदू राष्ट्र बनाना चाहते थे.

गोलियाँ दाग़ीं

महात्मा गांधी
शपथ तोड़ना किसी भी धर्म में पाप माना जाता है. लेकिन उनकी नज़रों में गांधी ने भारत में मुसलमानों की इज़्ज़त, हिफ़ाज़त और बराबरी का इंतज़ाम करके सबसे बड़ा पाप किया था. इसके लिए उन्हें सज़ा दी ही जानी थी.
उपवास ख़त्म होने के बाद गाँधी की प्रार्थना सभा पर बम विस्फोट हुए और मदन लाल पहवा नाम का व्यक्ति गिरफ़्तार हुआ.
नाथूराम गोडसे, जो अपने दल के साथ दिल्ली में डेरा डाले हुए थे, इसके बाद यहाँ से निकल गए, लेकिन वह फिर लौटे.
30 जनवरी को वह प्रार्थना सभा की ओर जाते हुए गांधी के आगे रुके, उन्हें प्रणाम किया और फिर उनपर गोलियाँ दाग़ दीं.

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