Thursday, 26 February 2015

क्यों आज अलग से रेल बजट की जरूरत नहीं है?

करीब एक सदी पहले रेल बजट को आम बजट से अलग करने का फैसला हुआ था. लेकिन आज क्या इसका कोई औचित्य बचा है?
जब इतना बड़ा आम बजट है तो अलग से एक रेलवे बजट की क्या जरूरत है? यह सवाल अक्सर पूछा जाता है. इसके जवाब की तलाश के तार करीब एक सदी पीछे तक जाते हैं. दरअसल 1921 में विलियम एकवर्थ की अध्यक्षता में बनी एक समिति ने सिफारिश की थी कि भारत सरकार और भारतीय रेलवे के खाते अलग-अलग कर दिए जाएं. वह भारत में अंग्रेजी शासन का दौर था. एकवर्थ जाने-माने रेलवे विशेषज्ञ और ब्रिटेन की कंजरवेटिव पार्टी के समर्पित सदस्य थे. तब सरकार के बजट का तीन चौथाई अकेले रेलवे पर खर्च होता था. लोगों और सामान की आवाजाही मुख्य रूप से रेल के जरिये ही होती थी इसलिए हिसाब-किताब और बजट के मामले में इसे अलग करने की सिफारिश तर्कसंगत थी. सरकार ने एकवर्थ की यह सिफारिश मान ली.+
लेकिन आज भारतीय रेलवे उस जमाने के अपने रसूख से बहुत दूर दिखता है. लोगों और सामान की आवाजाही के मामले में अब सड़क परिवहन का दबदबा है. 1950 में यात्री परिहवन का 35 फीसदी हिस्सा सड़कों पर निर्भर था. आज यह आंकड़ा करीब 85 फीसदी है. इसमें अहम भूमिका इस तथ्य की रही है कि बीते कुछ दशक के दौरान भारत में सड़कों का जाल खूब फैलता गया है. दूसरी तरफ, रेलवे विस्तार के मोर्चे पर सड़क परिवहन से काफी पीछे है.+
उस दौर में लोगों और सामान की आवाजाही मुख्य रूप से रेल के जरिये ही होती थी इसलिए हिसाब-किताब और बजट के लिहाज से रेलवे को अलग करने की सिफारिश तर्कसंगत भी थी.
खर्च के मामले में भी देखें तो सब्सिडी और रक्षा मंत्रालय जैसे मोर्चों पर सरकार रेलवे से कहीं ज्यादा खर्च करती है. 1921 में भले ही सरकार के कुल खर्च का तीन चौथाई रेलवे पर खर्च होता रहा हो, लेकिन आज यह आंकड़ा चार फीसदी से भी कम है. भारतीय रेलवेइन तथ्यों के बावजूद रेलवे बजट लगभग उतनी ही सुर्खियां बटोरता है जितना आम बजट. जबकि बहुत से लोग मानते हैं कि रेल बजट से कहीं महत्वपूर्ण भारत सरकार का आर्थिक सर्वेक्षण अक्सर इन दोनों के शोर में दब जाता है.
बहुत से लोग मानते हैं कि रेलवे मंत्रालय और उसके बजट की यह अहमियत उस राजनीति का नतीजा है जो देश ने बीते दो दशक के दौरान देखी. इससे पहले लंबे समय तक केंद्र में गठबंधन सरकारें रहीं. रेल मंत्रालय उनके सबसे अहम सहयोगी के पास रहा. रेलवे मंत्रालय गठबंधन के अहम सहयोगियों को तुष्ट करने का जरिया होता था और रेलवे बजट क्षेत्रीय पार्टियों के नेताओं को राष्ट्रीय स्तर पर प्रासंगिकता देता था. राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव और तृणमूल कांग्रेस की मुखिया ममता बनर्जी इसके उदाहरण हैं.

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