1990 में भारत प्रशासित कश्मीर में जब हथियारबंद आंदोलन शुरू हुआ तो घाटी के हज़ारों युवा उसका हिस्सा बने और जब 1993 में सैकड़ों कश्मीरी चरमपंथी इससे पीछे हटे तो जो बंदूक़ सुरक्षाबलों के ख़िलाफ़ चलती थी, उसकी नोक अब उन्होंने सक्रिय चरमपंथियों के ख़िलाफ़ मोड़ दी.
पीछे हटने वाले ये वो चरमपंथी थे, जिन्होंने भारतीय सुरक्षाबलों के सामने आत्मसमर्पण कर दिया था और चरमपंथियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई में हिस्सा लेना शुरू कर दिया था.
कश्मीर घाटी में सरकारी बंदूक़ उठाने वालों का पहला गुट मोहम्मद यूसुफ़ उर्फ़ कोका परे की अगुवाई में हाजन इलाक़े में शुरू हुआ जिसके बाद पूरे कश्मीर में सरकारी एजेंसियों की मदद से इनका दायरा बढ़ा दिया गया और हर ज़िले में इनके लिए कैंप खोल दिए गए.
ख़ुफ़िया समझौता
ऐसे चरमपंथियों को कश्मीर में या तो सरकारी बंदूक़ उठाने वाले या फिर इख़्वानी के नाम से जाना जाने लगा. उनका पहला दस्ता इख़्वानी उल मुस्लिमीन चरमपंथी संगठन का हिस्सा था.
यह वह ज़माना था जब कश्मीर में हथियारबंद आंदोलन चरम पर था. भारत सरकार ने इसे कुचलने के लिए सक्रिय चरमपंथियों की एक टुकड़ी से ख़ुफ़िया समझौता किया, जिसे वहां सुरक्षाबलों ने करवाया.
कोका परे और दूसरे कमांडर जावेद शाह की हत्या के साथ ही इनका दबदबा कम होने लगा और इनकी तादाद कम होती गई. कुछ चरमपंथी हमलों में मारे गए तो कुछ को भारतीय सेना या जम्मू कश्मीर पुलिस में विशेष पुलिस अफ़सर के बतौर भर्ती किया गया. वहीं कुछ अपने घर वापस लौट गए.
कोका परे कुछ समय के लिए जम्मू-कश्मीर विधानसभा के विधायक भी बने. साल 2003 में इनके कैंप सरकारी स्तर पर बंद किए गए.
कश्मीर में जिन पत्रकारों ने इनके बारे में लिखा है, वे मानते हैं कि भारत सरकार ने इनका इस्तेमाल कर इन्हें छोड़ दिया.
वहीं इनका ये भी कहना है कि उन्होंने ऐसे काम भी किए कि स्थानीय समाज इनसे नफ़रत करने लगा.
कांटों भरा सफ़र
जम्मू कश्मीर पुलिस के पूर्व डायरेक्टर जनरल और विजिलेंस कमिश्नर अशोक बान कहते हैं कि सुरक्षा एजेंसियों को ऐसा उग्रवाद ख़त्म करने के लिए एक समय तक ज़रूरत रहती है.
वह कहते हैं, "जिन चरमपंथियों ने उस वक़्त हथियार छोड़े थे उनसे सुरक्षा एजेंसियों ने अपना काम लिया और अब उनकी ज़रूरत नहीं थी. रही बात उनके अपराधों की, तो जिन्होंने ऐसा किया था उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई की गई. कुछ उनमें से आज भी जेलों में हैं."
कश्मीर के वरिष्ठ पत्रकार हारुन रेशी कहते हैं, "जब इन सरकारी बंदूक़ उठाने वालों के बड़े-बड़े कमांडर मारे गए तो इनके मातहत काम करने वालों को जान के लाले पड़ गए. कई को मौत के डर और समाज में ज़लालत और सरकार की बेरुखी ने कुछ और सोचने पर मजबूर किया."
वहीं मज़ीद कहते हैं, "भारतीय सुरक्षा एजेंसियों ने इन्हें लालच दिया कि उनको वह अच्छी नौकरियां देगी, जो वादा पूरा नहीं किया गया. जब कश्मीर में चरमपंथियों का ज़ोर कम हुआ तो इन सरकारी बंदूक़धारियों को फिर किसी ने नहीं पूछा."
जिन सरकारी बंदूक़ उठाने वालों ने आम ज़िंदगी गुज़ारनी शुरू की उनके लिए यह कोई आसान काम नहीं था बल्कि कांटों भरा सफ़र साबित हुआ.
ख़्वाहिश
कश्मीर घाटी के ज़िला अनंतनाग के सीपनी इलाक़े के जावेद अहमद शेख एक ज़माने में हिज़बुल मुजाहिदीन के चरमपंथी भी थे और इख़्वानी भी.
जावेद अब अनंतनाग क़स्बे में सब्ज़ी बेचते हैं. उनके मुताबिक़ वे 1994 में हिज़बुल मुजाहिदीन के चरमपंथी बने पर कुछ ही महीने बाद वे बंदूक़ और बारूद की राह छोड़ना चाहते थे.
वे कहते हैं, "हिज़बुल मुजाहिदीन ने घर पर बैठने नहीं दिया और कहा कि घर पर बैठने की क़ीमत एक लाख है. मेरे पास एक लाख नहीं था, जिसके बाद मैं इख़्वानी बना."
जावेद ने कुछ समय इख़्वानी के तौर काम किया जिसके बाद उन्होंने ज़िंदगी को आम नागरिक की तरह गुज़ारने की ख़्वाहिश की.
जावेद कहते हैं,"वह एक भयानक भूल थी. मेरे साथ काम करने वालों ने आम जनता पर ज़ुल्म की सारी सीमाएं पार की थीं जिसकी वजह से समाज ने हमारा बहिष्कार किया तो मुझे लगा कि ये ग़लत रास्ता है."
अपना खून
जावेद पिछली ज़िंदगी को याद करते हुए कहते हैं कि उन्हें चरमपंथी होकर मरना पसंद था.
उनका कहना है,"चरमपंथी होकर मुझे मरना पसंद था, वह इसलिए कि वहां एक ही बार मरना था."
जावेद का कहना है कि चरमपंथियों के ख़िलाफ़ ऑपरेशन पर जब वह जाते थे, तो बहुत परेशान रहते थे. किसी चरमपंथी को मारा जाता था तो जावेद को लगता था कि ये उनका अपना ख़ून है.
जावेद के मुताबिक़ उनको कई साल तक किसी ने शादी करने के लिए हां नहीं की.
वे कहते हैं, "जब कोई ये सुनता था कि मैं इख़्वानी हूं तो लोग शादी से इनकार कर देते थे."
जहांगीर ख़ान एक दूसरे इख़्वानी कमांडर हैं जो अनंतनाग क़स्बे में रहते हैं.
जहांगीर सरकारी बंदूक़ उठाने से पहले अल-उम्र संगठन के साथ काम करते थे. जहांगीर के मुताबिक़ उनके 175 साथी चरमपंथी हमलों में मारे गए.
अनंतनाग क़स्बे में जहांगीर एक निजी इमारत में साथियों के साथ रहते हैं. उनके मुताबिक़ उनके साथ रहने वाले लड़के जम्मू कश्मीर पुलिस में अब स्पेशल पुलिस अफसर हैं और उन्हें हर माह 3000 रुपए तनख़्वाह मिलती है.
ज़िल्लत
सरकार ने जहांगीर को रहने के लिए खानबल सरकारी कॉलोनी में एक कोठीनुमा मकान दिया है.
जहांगीर कहते हैं कि उन्होंने भारत सरकार के लिए चरमपंथियों के बड़े-बड़े कमांडर मारे पर बदले में सरकार उन्हें सिर्फ़ 3000 की तनख्वाह देती है. "
वे कहते हैं, "सरकार ने हमारे साथ धोखा किया है. समाज में ज़िल्लत, घर में ज़िल्लत और अपनी नज़रों में भी. हमारा इस्तेमाल हुआ और फिर फेंक दिया गया."
जहांगीर मानते हैं कि उनके साथियों ने इस दौरान ताक़त का ग़लत इस्तेमाल किया.
वह कहते हैं, "समाज में हमारी ऐसी हालत हो गई है कि कभी-कभी सोचता हूं कि मैं ज़हर खाकर मर जाऊं. हम एक बेलगाम टुकड़ी थे जो जिसका जी चाहता वह करता था. इस वजह से हम आम लोगों की नज़रों में गिर गए."
ये पूछने पर कि कौन सी ज़िंदगी बेहतर थी चरमपंथी की या फिर सरकारी बंदूक़ उठाने वाले की, तो जहांगीर का कहना है," न ये ज़िंदगी अच्छी है न वह ज़िंदगी अच्छी थी. मैं तो सोचता हूं कि मैं इस आग में कूदा क्यों? "
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