Saturday, 28 February 2015

बजट से जुड़ी कुछ मज़ेदार बातें

संसद भवन
भारत का बजट ब्रितानी बजट की परंपरा पर ही काफ़ी समय तक चलता रहा है.
ब्रिटिश वित्त मंत्री ह्यूज़ डॉल्टन ने 1947 में एक पत्रकार से बात करते हुए कुछ बातें कहीं, जिन्हें उस पत्रकार ने अपने अख़बार में छाप दिया और बजट में वे बातें सही पाई गईं. वित्त मंत्री पर यह आरोप लगा कि उन्होंने बजट लीक कर दिया है. उनसे सीख लेते हुए आज़ाद भारत का पहला बजट पेश करते समय आरके शनमुखम ने पूरी गोपनीयता बरती और किसी को इसकी भनक तक नहीं लगने दी.
शनमुखम के उत्तराधिकारी सीडी देशमुख बड़े परेशान थे कि पैसे का इंतज़ाम करने के लिए वे नया कर कैसे लगाएं. उन्होंने अपने बजट भाषण में कहानी सुनाई कि उन्हें एक ग़रीब किसान ने चिट्ठी लिखकर पांच रुपए देने की पेशकश की है. देशमुख ने लोगों से कहा कि जब ग़रीब हमारी मदद करने को तैयार हैं तो आप क्यों नहीं. पता नहीं लोगों को यह कैसा लगा.
वित्त मंत्री अरुण जेटली
बजट का भला देश की विदेश नीति से क्या ताल्लुक़? पर कई बार ताल्लुक़ रहा है. 1950 के दशक में रूस से मिलने वाला आर्थिक अनुदान बजट के पैसोें का बड़ा हिस्सा रहा है इसलिए इसकी छाप बजट पर साफ़ दिखती थी. देश की आर्थिक नीतियों का झुकाव रूस की ओर था, यह कई बार साफ़ साफ़ दिखता भी था. भिलाई इस्पात संयंत्र परियोजना की व्यवस्था 1959 के बजट में थी और यह रूस से मिले पैसों से ही हुआ था.
मोरारजी देसाई
टीटी कृष्णमाचारी ख़ुद उद्योगपति थे, पर वे नया कर लगाने को लेकर काफ़ी उत्साहित रहा करते थे. उन्होंने दो नए कर ईज़ाद किए- संपत्ति कर और खर्च पर लगने वाला कर. उन्होंने लोगों से देशप्रेम दिखाने को कहा और बताया कि किस तरह सब लोग मिल कर ही अर्थव्यवस्था को मज़बूत कर सकते हैं.
मोरारजी देसाई को भी नया कर लगाना अच्छा लगता था. उन्होंने एक बार संसद में साफ़ शब्दों में कह दिया कि वे प्लास्टिक सर्जरी करेंगे और यहां का मांस काट कर वहां लगा देंगे, जिसके लिए सदस्य उन्हें माफ़ करें. वे पहले वित्तमंत्री थे जिसने बजट का काफ़ी प्रचार-प्रसार किया और सरकार की नीतियों का ऐलान करने में इसका इस्तेमाल किया.
पी चिदंबरम
पी चिदंबरम ने तो बजट पेश किया ही था, पर ऐसा करने वाले वे पहले चिदंबरम नहीं थे. उनके पहले हुए थे चिदंबरम सुब्रमण्यम. वे पहले वित्तमंत्री थे, जिसने बजट भाषण ख़त्म करते हुए कहा था, "मैं अब संसद से इस बजट को स्वीकार करने की गुज़ारिश करता हूं." उनके बाद से लगभग सभी वित्त मंत्रियों ने थोड़े बहुत बदलाव के साथ ये बात कही है.
बजट भाषण के दौरान हंसी मज़ाक कर वातावरण को हल्का बनाने की शुरूआत मधु दंडवते ने की थी. उन्होंने कहा कि मैं अचार पर उत्पाद कर ख़त्म करता हूं ताकि बजट के लिए मुझे कुछ मसाला मिल जाए. उनकी इस परंपरा को तमाम वित्त मंत्रियों ने आगे बढ़ाया.
मनमोहन सिंह
मनमोहन सिंह ने अपना पहले बजट पेश करते हुए निजी बातें की थीं. उन्होंने कहा कि मेरा जन्म सूखे इलाके के एक ग़रीब परिवार में हुआ था और मैं सरकारी स्कॉलरशिप के बल पर ही पढ़ पाया. मैं अपना यह कर्ज़ उतारने की कोशिश करूंगा.

नेताओं और अफ़सरशाहों की अजब-ग़ज़ब कहानियाँ @रेहान फ़ज़ल

भारत की राजनीतिक और प्रशासनिक मशीनरी के कामों पर जितनी बहस पिछले कुछ सालों में हुई है, उतनी शायद आज़ादी के 67 सालों में पहले कभी नहीं हुई.
भारत के पूर्व कैबिनेट सचिव टीएसआर सुब्रहमण्यम पहले भी अफ़सरशाहों और नेताओं के संबंधों पर एक बेबाक पुस्तक 'जरनीज़ थ्रू बाबूडम एंड नेतालैंड' लिख कर नाम कमा चुके हैं.
अब उनकी एक नई पुस्तक 'इंडिया एट टर्निंग प्वाइंट, द रोड टू गुड गवर्नेंस' प्रकाशित हुई है, जिसमें उन्होंने भारतीय शासन तंत्र, नेताओं और अफ़सरों के संबंधों से जुड़े विभिन्न पहलुओं पर अपनी बारीक नज़र दौड़ाई है.
हाल के वर्षों में नीतियों और उनके क्रियान्वन में भेद न कर पाना सबसे बड़ा मुद्दा बनकर उभरा है. टीएसआर उदाहरण देते हैं कि किस तरह तीन साल पहले तत्कालीन कैबिनेट सचिव गुप्त रूप से दो कैबिनेट मंत्रियों के साथ बाबा रामदेव से मिलने दिल्ली हवाई अड्डे पहुंचे थे और फिर उनको ख़ुफ़िया तौर पर 'बातचीत करने के लिए' एक होटल में ले गए थे.
उसी तरह जब एक बार सरकार संसद में अविश्वास प्रस्ताव का सामना कर रही थी तब पेट्रोलियम सचिव और प्रधानमंत्री कार्यालय के एक बहुत वरिष्ठ अधिकारी को मुलायम सिंह और अमर सिंह के पास उनका राजनीतिक समर्थन लेने के लिए भेजा गया था.

दुर्घटना और नेता

टीएसआर का मानना है कि कोई दुर्घटना होने पर भारतीय नेता की सबसे बड़ी फ़ितरत है वहाँ सबसे पहले पहुंच कर तस्वीर खिंचवाना.
यह पूरी तरह भुला दिया जाता है कि दुर्घटनास्थल पर वीआईपी की उपस्थिति से राहत कार्यों पर बुरा असर पड़ता है.
न्यूयॉर्क में 9/11 के हादसे के दौरान राष्ट्रपति बुश पूरे सात दिनों तक वहाँ नहीं पहुंचे थे और सारी व्यवस्था की ज़िम्मेदारी वहाँ के मेयर पर थी. उस घटना के कुछ दिनों बाद जब मियामी में तूफ़ान आया था तो गवर्नर ने इस आधार पर उप राष्ट्रपति अल गोर को वहाँ जाने की इजाज़त नहीं दी थी कि इससे राहत कार्यों में व्यवधान आएगा.
भारत में कहीं हादसा हुआ नहीं कि घंटे भर में मुख्यमंत्री या केंद्रीय मंत्री हेलिकॉप्टरों से वहाँ पहुंचने लगते हैं और कई बार तो इससे पहले कि स्थानीय प्रशासन एंबुलेंस और राहत सामग्री के साथ वहाँ पहुंचे, इन नेताओं की हाज़िरी वहाँ लग चुकी होती है.
प्रशासन का पूरा ध्यान उनकी देखरेख और आव-भगत में लग जाता है और राहत कार्य बुरी तरह से प्रभावित होते हैं.

दौरों का शौक
टीएसआर बताते हैं कि किस तरह तत्कालीन रक्षा मंत्री जॉर्ज फ़र्नांडीस ने अपने कार्यकाल के दौरान 18 बार सियाचिन का दौरा किया था. टीएसआर पूछते हैं- क्या फ़र्नांडीस जब भी बोर हो जाते थे, टैक्स-पेयर के ख़र्चे पर सियाचिन का रुख़ कर लेते थे, या फिर उन्हें हिमालय की चोटियों को देखने का शौक था या साउथ ब्लॉक में उनके पास कुछ काम नहीं था?
टीएसआर का कहना है कि इसी तरह अस्सी के दशक में तत्कालीन वाणिज्य मंत्री प्रणव मुखर्जी को शॉर्ट-नोटिस पर मध्यपूर्व के देशों में जाने का शौक था. जब भी वो कैबिनेट बैठकों में किसी मुद्दे को टालना चाहते थे, वो दुबई या अबूधाबी का रुख़ करते थे और वहां के भारतीय राजदूतों के लिए सबसे बड़ी समस्या ये रहती थी कि मंत्री महोदय के वहाँ गाहे-बगाहे पहुंचने का कोई औचित्य तैयार रखा जाए.
टीएसआर याद करते हैं कि उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी की भी आदत थी कि बात-बात पर पंतनगर विश्वविद्यालय का दौरा किया जाए. जब भी वो वहाँ पहुंचते थे, पूरा गेस्ट हाउस खाली कराया जाता था और पूरे इलाके की नाकेबंदी कर दी जाती थी.

विदेश मंत्री का भाषण

पूर्व विदेश मंत्री एस एम कृष्णा ने एक बार संयुक्त राष्ट्र संघ में पुर्तगाली विदेश मंत्री का भाषण पढ़ दिया था.
टीएसआर पूछते हैं कि कौन कहता है कि सार्वजनिक जीवन में हास्य के लिए कोई जगह नहीं है? वो तत्कालीन विदेश मंत्री एस एम कृष्णा का उदाहरण देते हैं कि किस तरह उन्होंने एक बार संयुक्त राष्ट्र संघ में पुर्तगाली विदेश मंत्री का भाषण पढ़ दिया.
हुआ ये कि उनसे पहले भाषण देने वाले पुर्तगाली विदेश मंत्री के भाषण की एक प्रति उनके सामने रखी हुई थी. उन्होंने उसे ही उठा कर पढ़ना शुरू कर दिया और एक पेज तक न तो उन्हें और न ही किसी और को अंदाज़ा हुआ कि वो दूसरे का भाषण पढ़ रहे हैं.
वो यहाँ तक कह गए कि "मैं अध्यक्ष महोदय को पुर्तगाल की सरकार और जनता की तरफ़ से धन्यवाद देता हूँ."
टीएसआर कहते हैं, "बाद में मैंने संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थाई प्रतिनिधि हरदीप पुरी से पूछा कि आप तो मंत्री के बगल में बैठे हुए थे. आप के रहते इतनी बड़ी गलती कैसे हो गई."
इस पर हरदीप हंसे और बोले "तीसरी या चौथी लाइन के बाद ही मुझे अंदाज़ा हो गया था कि कहीं कुछ ग़लत हो रहा है. मैंने दो बार मंत्री की जैकेट पकड़ कर उन्हें इशारा करने की कोशिश की लेकिन उन्होंने मेरी तरफ देखा तक नहीं और पुर्तगाली मंत्री का भाषण पढ़ना जारी रखा."
आख़िरकार पुरी को ज़बरदस्ती वो भाषण कृष्णा के सामने से हटाना पड़ा. उन्होंने उनके सामने उनका असली भाषण रखा और मज़े की बात कि कृष्णा ने वो भाषण फिर से पहले पेज और पहली लाइन से पढ़ना शुरू किया.

ग़रीबी की परिभाषा

भारत की अधिकतर जनता आज भी ग़रीबी रेखा से नीचे रहती है.
टीएसआर कहते हैं कि सरकार की खाद्य गारंटी योजना जिसके तहत 75 फ़ीसदी ग्रामीण और 50 फ़ीसदी शहरी लोगों को रियायती दाम पर अनाज उपलब्ध कराया जाएगा, इस बात की स्वीकारोक्ति है कि भारत की अधिकतर जनता ग़रीबी रेखा से नीचे रहती है.
वो कहते हैं कि ये भारत में ही हो सकता है कि ग़रीब कहलाने की परिभाषा 27 रुपए प्रति दिन तय की जाए, जबकि पूरी दुनिया में ये मापदंड दो डॉलर यानि 120 रुपए प्रतिदिन हैं.
उनका कहना है कि लगता है यहाँ के शासक वर्ग को इसका अहसास ही नहीं है कि गरीब लोगों को खाने के अलावा विटामिन, दवाओं, कपड़ों और जूतों की भी ज़रूरत होती है. वो साल भर अनाज की एक कटोरी से गुज़ारा कर सकते हैं या कभी-कभार उनका भी जी चाहता होगा कि उनके भोजन में प्याज़ न सही मिर्ची का छौंक तो लग ही जाए.
अगर प्याज़ बहुत महंगा है तो उसे दोगुनी कीमत पर उपलब्ध कराया जा सकता है. भारतीय शासन तंत्र की सोच यही है कि अगर भारतवासियों को रोटी मयस्सर नहीं है तो उन्हें खाने के लिए केक दीजिए.

तानाशाहों के पांच सबसे बदनाम 'सफ़ाए'/ BBC

उत्तर कोरिया के शक्तिशाली नेता चांग सोंग-थाएक को मृत्युदंड दिए जाने और उसके बाद सरकारी अभिलेखों से उनकी पहचान मिटाने ने पूरी दुनिया को स्तब्ध कर दिया. सोंग थाएक उत्तर कोरिया के वर्तमान नेता किम जोंग के फूफा थे.
इस घटना के बाद किम जोंग दुनिया के उन कुख्यात नेताओं में शामिल हो गए हैं जिन्होंने अपने विरोधियों की पहचान ही मिटा दी.

    पिछली सदी में किए गए पाँच कुख्यात राजनीतिक सफ़ाए इस तरह हैं.
    हिटलर, जर्मनी, 1934
    हिटलर ने वर्ष 1933 में जर्मनी की सत्ता में आने के लिए वोट और ताक़त दोनों का इस्तेमाल किया था.
    'ब्राउनशर्टस' नाम से मशहूर दी स्टरमैब्टीलंग (एसए) नाज़ी पार्टी के अर्ध-सैनिक बल के रूप में काम करता था.
    अपने करिश्माई नेता अर्नेस्ट रोएह्म के नेतृत्व में इस दस्ते ने 1920 के दशक और 1930 के दशक के शुरू के सालों में अपने सभी संभावित विरोधियों को मार-पीट और डरा-धमका कर रखा.

    साल 1934 तक यह बहुत ज़्यादा ताक़तवर हो चुका था.
    लेकिन वर्ष 1934 में 30 जून से दो जुलाई के बीच रोएह्म सहित एसए के दर्जनों नेताओं को गोली मार दी गई.
    इस घटना को दी नाइट ऑफ दी लॉन्ग नाइव्स के नाम से जाना जाता है. इस घटना के बाद भी एसए का अस्तित्व बना रहा लेकिन इस सफ़ाए ने इसे पंगु बना दिया था.
    स्टालिन, सोवियत संघ, 1934-1939

     स्टालिन ने नेतृत्व के लिए भयावह राजनीतिक सफ़ाए की भूमिका के तौर पर अपने दाहिने हाथ सर्जेई किरोफ को मरवा दिया.
    बहुत से इतिहासकारों का मानना है कि स्टालिन ने किरोफ को अपने राजनीतिक लाभ के लिए मरवाया.
    इसके बाद पार्टी के दर्जनों नेताओं को दिखावटी मुक़दमे के बाद मरवाया या निर्वासित किया गया.
    इन सभी पर लियोन ट्राट्स्की से मिले होने का आरोप लगाया गया था. स्टालिन के बरक्स नेतृत्व के संभावित दावेदार ट्राट्स्की वर्ष 1929 में सोवियत संघ से पलायन कर गए थे.
    उस दौर में देशद्रोही घोषित किए गए किसी भी व्यक्ति के मित्रों, दोस्तों या सहानुभूति रखने वालों तक के संग बहुत ही क्रूरता से निपटा जाता था.
    वर्ष 1940 में मैक्सिको में ट्राट्स्की की हत्या कर दी गई थी. माना जाता है कि यह हत्या स्टालिन के आदेश पर की गई थी.

    सद्दाम हुसैन, इराक़, 1979

    सद्दाम ने अपनी ही पार्टी के कई नेताओं को ठिकाने लगाया था.
    जब सद्दाम हुसैन सत्ता में आए तो उन्होंने सत्ताधारी बाथ पार्टी के 60 से ज़्यादा वरिष्ठ नेताओं का सार्वजनिक सफ़ाया करा दिया था.
    जबकि वो बाथ पार्टी से इराक़ के राष्ट्रपति बने थे.
    उस समय का एक श्वेत-श्याम वीडियो है जिसमें सद्दाम सिगार पी रहे हैं और बहुत से नेताओं को देशद्रोही घोषित किया जा रहा है.
    उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया गया और केवल आधे ही सदस्य अंदर बच रह गए.
    इनमें से ज़्यादातर पर देशद्रोह का मुक़दमा चलाकर मृत्युदंड दे दिया गया.

    डेंग शियाओपिंग, 1980, चीन

    माओ त्से तुंग की वर्ष 1976 में मृत्यु होने के बाद कम्युनिस्ट पार्टी में नेतृत्व के लिए तीखा टकराव शुरू हो गया.
    वर्ष 1978 तक माओ के घोषित उत्तराधिकारी हुआ गूफंग को हटाकर डेंग शियाओपिंग ने सत्ता से बेदख़ल कर दिया जबकि माओ ने शियाओपिंग को सत्ता से बाहर कर रखा था.
    वर्ष 1980 में माओ के सबसे करीबी लोगों में कुछ पर मुक़दमा चलाया गया. यह मुक़दमा पूर्णतया राजनीतिक था जिसमें राजनीतिक दुष्प्रचार का भरपूर इस्तेमाल हुआ.
    इसके तहत तथाकथित 'गैंग ऑफ फोर' (चौकड़ी) की निंदा की गई थी. इसका उद्देश्य था डेंग को ताक़तवर बनाना.
    मुक़दमे में चारों को दोषी पाया गया और उन्हें आजीवन कारावास की सज़ा दी गई.

    थान श्वे, बर्मा/ म्यांमार, 2004

    थान श्वे ने करीब दो दशकों के एकछत्र शासन के बाद पद से इस्तीफ़ा दिया.
    साल 2010 तक बर्मा (म्यांमार) में एक ही व्यक्ति का शासन चलता था, थान श्वे. इस सैनिक जनरल ने बर्मा में करीब दो दशक तक एकछत्र राज किया.
    हालाँकि बहुत ही थोड़े समय के लिए एक युवा करिश्माई नेता थकिन किन न्यून ने उन्हें चुनौती देने की कोशिश की थी.
    प्रधानमंत्री और सेना के ख़ुफिया विभाग के प्रमुख के रूप में किन ने अपनी शक्ति काफ़ी बढ़ा ली थी. उन्होंने अपना अख़बार भी शुरू कर दिया था.
    थान श्वे ने त्वरित कार्रवाई करते हुए उन्हें पद से हटा दिया और उन पर भ्रष्टाचार और घूसखोरी का मुक़दमा चलवाया.
    वर्ष 2005 में उन्हें 44 साल की सजा हो गई. लेकिन इस साल की शुरुआत में उन्हें अभयदान देते हुए उन्हें रिहा कर दिया गया.

    अकाल से मौतें या स्टालिन राज का नरसंहार? / BBC

    अस्सी साल पहले लाखों यूक्रेनवासी अकाल में भुखमरी से मारे गए थे. माना जाता है कि ये लोग जोसेफ़ स्टालिन के सोवियत राज में जानबूझकर मौत के मुंह में झोंके गए.
    यूक्रेनवासी हर साल इसकी याद में स्मृति दिवस मनाते हैं. बीबीसी के डेविड स्टर्न ने पाया कि उस दौर की धुंधली यादें अब भी कई लोगों के ज़ेहन में ताजा हैं.

      80 साल की ऊर्जा से भरपूर नीना केरपेंको बताती हैं कि होलोदोमोर यानी अकाल के उस तांडव के दौरान वे कैसे ज़िंदा रहीं.
      उस भयानक जाड़े में उन्होंने और उनके परिवार ने कुछ सस्ते भुट्टे के दाने, गेहूं की भूसी, सूखी पत्तियां और दूसरा घासफूस खाकर जीवन बचाया था. ये 1932-33 के डरावने जाड़े थे.
      जब केरपेंको अपनी कहानी बता रही थीं तो वे इस सामग्री को गूंथकर पानी और नमक मिलाकर दिखा भी रही थीं.
      उन्होंने जो बनाकर दिखाया, वह उनके अनुसार ब्रेड थी. हालांकि यह उसके मानकों में शायद ही फ़िट हो. इसके बाद उन्होंने पैन में बचा-खुचा मोम फैलाया ताकि इसे भून सकें और फिर ओवन में डाल सकें.
      केरपेंको के पिता की मौत उन्हीं दिनों बहुत जल्दी हो गई थी. उनके पैर फूल गए थे. वह कम खाना खाने की कोशिश करते थे- यह लक्षण उन सभी में पाया जाता था, जो भुखमरी के बेहद क़रीब थे.
      उनकी मां नौ मील चलकर पास के कस्बे में जातीं कि खाने की कोई चीज मिल जाए, जिससे वह और उनके भाई-बहन ज़िंदा रह सकें. उन्होंने दो किलो आटे के लिए अपनी संचित पूंजी और गले में पहना सोने का क्रॉस बेच दिया था.
      ओवन में ब्रेड तैयार हो चुकी है. केरपेंको उसे निकालती हैं. यह कड़ी और घास सरीखे स्वाद वाली है, लेकिन घासफूस की इसी तरह की पावरोटी ने उनके परिवार का जीवन बचाया था.
      इसके साथ उनकी मां घोड़े की खाल को कई टुकड़ों में काटकर सूप बनाती थीं. इस तरह उस वसंत में केरपेंको परिवार ज़िंदा रह पाया. वो चारे की तलाश में लगातार पास के जंगलों में जाते थे.

      मध्य यूक्रेन के उनके गांव मातस्विस्ति में दूसरे लोग शायद इतने भाग्यशाली नहीं थे.

      मरघटी सन्नाटा
      वह बताती हैं कि गांव में उन दिनों मरघटी सन्नाटा रहता था. लोग होशोहवास में नहीं थे. वो न तो कुछ बोलना चाहते थे और न कुछ देखना.
      वो यही सोचते कि आज इस शख़्स की मौत हो गई, हो सकता है कि कल मेरा नंबर आ जाए. हर कोई बस मौत के बारे में सोचता रहता था.
      यूक्रेन हर साल इस त्रासदी की याद में होलोदोमोर स्मृति दिवस मनाता है, जो नवंबर के चौथे शनिवार को मनाया जाता है.

      क्या यह इरादतन था
      येल यूनिवर्सिटी के इतिहासकार टिमोथी सिंडर की तरह कुछ इतिहासकारों ने यूक्रेन के इस हादसे पर सघन शोध किया है.
      उनका मानना है कि इस त्रासदी में करीब 33 लाख लोग मारे गए थे. मगर कुछ लोगों का कहना है कि यह संख्या कहीं ज़्यादा थी और 45 लाख तक हो सकती है.
      इस अकाल में गांव के गांव साफ़ हो गए. कुछ इलाक़ों में मौत की दर एक-तिहाई तक पहुंच गई. दुनियाभर में सबसे उर्वर यूक्रेन का देहाती इलाक़ा सन्नाटे भरी बंजर भूमि में बदल गया था.

      शहरें और सड़कें उन लोगों से पटी दिखाई पड़ती थीं, जिन्होंने खाने की तलाश में अपने गांव छोड़ दिए थे. कुछ लोग सड़क किनारे मरे दिखाई पड़ते थे. तब व्यापक तौर पर नरभक्षण की ख़बरें मिला करती थीं.
      केरपेंको जब दोबारा स्कूल खुलने के बाद वहां गईं, तो दो-तिहाई सीटें खाली पड़ी थीं.
      होलोदोमोर का दर्द केवल इसलिए नहीं था कि बड़े पैमाने पर लोगों की मौत हुई थी. बहुत से लोग मानते थे कि ये सब मानव सृजित और इरादतन किया गया संहार था.
      उनका कहना था कि स्टालिन चाहते थे कि विद्रोही यूक्रेनियन किसान भूखमरी से मर जाएं और उन्हें सामूहिक खेती के लिए बाध्य किया जाए.
      तब क्रेमलिन ने किसानों द्वारा उपलब्ध कराए अनाज से कहीं ज़्यादा की मांग की थी. विरोध करने पर कम्यूनिस्ट पार्टी कार्यकर्ता गांवों में आ गए और जो खाने लायक था, सब उठा ले गए.
      केरपेंको कहती हैं कि ब्रिगेड सारा गेहूं उठा ले गई. शायद ही कुछ हमारे लिए बचा हो. यहां तक कि लोगों ने जो बीज रखे थे, वो भी नहीं बचे.

      उन्होंने बताया, ''ब्रिगेड के लोग हर ओर फैले थे और सब कुछ ले जा रहे थे. वो चाहते थे कि लोगों के पास कुछ न बचे और उनके पास मरने के अलावा कोई चारा न रहे.''

      संहार पर विवाद
      विशेषज्ञों का कहना है कि जब भुखमरी बढ़ी तो सोवियत अधिकारियों ने अतिरिक्त कदम उठाए. उन्होंने यूक्रेन की सीमाएं बंद कर दीं ताकि किसान कहीं जा न सकें और न खाना पा सकें. ये मौत की सज़ा की तरह था.
      कीएव होलोदोमोर मेमोरियल म्यूज़ियम की ओलेकसांद्रा मोनेतोवा कहती हैं, ''अधिकारियों का इरादा साफ़ था. मेरे लिहाज़ से तो ये नरसंहार था. इसमें मुझे कोई शक नहीं.''
      मगर दूसरों के लिए यह सवाल अभी अनुत्तरित है. रूस ने इसे नरसंहार कहे जाने पर हमेशा आपत्ति जताई और कहा कि यह अकाल की आपदा थी.
      क्रेमलिन अधिकारी जोर देते हैं कि होलोदोमोर केवल एक त्रासदी थी. यह इरादतन नहीं थी. तब सोवियत संघ के दूसरे इलाक़ों का भी यही हाल था.
      यूक्रेन के वर्तमान नेता विक्टर यानुकोविच क्रेमलिन की बातों को ग़लत ठहराते हैं. वे इसे तयशुदा तौर पर नरसंहार ही मानते हैं.
      विर्को बाली अमरीकी संगीतज्ञ हैं, जो यूक्रेन में पैदा हुए. वह चाहते हैं कि अंतरराष्ट्रीय तौर पर होलोदोमोर त्रासदी को मान्यता मिले. वह इसके लिए प्रयास में लगे हैं.

      'बोस की मौत दुर्घटना में नहीं हुई'/ BBC

      सुभाष चंद्र बोस ने आज़ाद हिंद फौज बनाई थी
      ताईवान के अधिकारियों ने कहा है कि भारत के स्वतंत्रता सेनानी सुभाष चंद्र बोस की मौत ताईवान में किसी विमान दुर्घटना में नहीं हुई.
      आज़ाद हिंद फौज के कुछ सदस्यों का मानना रहा है कि सुभाष चंद्र बोस की मौत 18 अगस्त, 1945 को ताईवान की राजधानी ताईपे में एक विमान दुर्घटना में हो गई थी.
      आज़ाद हिंद फौज का गठन बोस ने ब्रितानी साम्राज्य के ख़िलाफ़ लड़ाई के लिए किया था.
      ताईवान में अब भारतीय जाँचकर्ताओं को बताया है कि ताईपे में 14 अगस्त से 20 सितंबर 1945 के बीच कोई विमान दुर्घटना हुई ही नहीं थी.
      उनके एक साथी ने तो यहाँ तक दावा किया कि उस विमान दुर्घटना में वह ख़ुद बच गए और उन्होंने बोस को विमान के मलबे में मृत देखा था.
      हालाँकि बोस का शव कभी बरामद नहीं हो सका और ऐसी अटकलें जारी रहीं कि बोस उस विमान दुर्घटना में जीवित बच गए थे.
      कुछ ऐसी भी अफ़वाहें थीं कि सुभाष चंद्र बोस सोवियत रूस चले गए थे और वहाँ उन्हें जेल में रखा गया.
      सच्चाई क्या है?
      नेताजी के नाम से मशहूर सुभाष चंद्र बोस ने भारत में ब्रितानी साम्राज्य के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ी थी. उनका मानना था कि भारत से ब्रितानी साम्राज्य को ख़त्म करने के लिए सशस्त्र विद्रोह ही एक मात्र रास्ता हो सकता है.
      नेताजी ने सशस्त्र लड़ाई की हिमायत की थी
      बोस ने निर्वासन में रहकर आज़ाद हिंद फौज का गठन किया था जिसका लक्ष्य दूसरे विश्व युद्ध में ब्रितानी साम्राज्य के ख़िलाफ़ युद्ध करना था.
      अब ताईवान सरकार ने भारतीय जाँच दल को बताया है कि अगस्त में राजधानी ताईपे में कोई विमान दुर्घटना हुई ही नहीं थी.
      बोस पर एक क़िताब लिखने वाले कल्याण कुमार घोष ने इस ख़बर पर कहा, "जो लोग यह मानते हैं कि बोस की मौत विमान दुर्घटना में नहीं हुई, यह ताज़ा ख़बर उनकी दलील को मज़बूत बनाती है."
      बोस के बारे में हमेशा से ही रहस्य बना रहा है और यह साबित नहीं हो सका है कि उनकी मौत किस तरह हुई.
      जापान सरकार का कहना है कि उनकी अस्थियाँ वहाँ एक मंदिर में सुरक्षित रखी गई हैं.

      आसान नहीं रही पनडुब्बियों की राह @BBC

      पानी के अंदर छिपकर दुश्मन की टोह लेने वाली अनोखी विशाल मशीन पनडुब्बी के विकास की राह भारत के लिए कतई आसान नहीं रही और इसे कई तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ा.

      मंज़ूरी लेने में ही लग गए तीन साल

      स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी 1958 तक भारतीय नौसेना की कमान अंग्रेज अधिकारी के हाथों में ही रही. इसके बाद जाकर भारत के किसी अधिकारी को नौसेना की कमान मिली.

      भारतीय नौसेना की कमान भारतीय अधिकारी के हाथों में आने के बाद ही पनडुब्बी शाखा के गठन की दिशा में काम शुरू हो पाया. हालांकि तीन साल तो सरकार से मंज़ूरी लेने में ही लग गए.

      आखिर सरकार ने 1961 में इसके लिए अपनी मंजूरी दे दी. इसके बाद 1961 से 1963 तक भारतीय नौसेना के अधिकारी और नाविक छोटी-छोटी टुकडि़यों में प्रशिक्षण के लिए ब्रिटेन गए.

      इन अधिकारियों ने ब्रिटेन की शाही सेना में तीन महीने तट पर और नौ महीने समुद्र में गहन प्रशिक्षण लेकर विभिन्न श्रेणियों की पनडुब्बियों के संचालन की बारीकियों को सीखा.

      ब्रिटेन का पनडुब्बी देने से इनकार

      एक अप्रैल 1967 को विशाखापटनम में फ्लैग ऑफिस सबमरीन (एफओएसएम) का गठन किया गया. ब्रिटेन ने तब भारत को आधुनिक परपोइज/ओबेरोन श्रेणी की पनडुब्बी देने से इनकार कर दिया था लेकिन कठिन शर्तों पर द्वितीय विश्वयुद्ध के जमाने की ‘टी’ श्रेणी की पनडुब्बी को लीज़ पर देने पर सहमति जताई थी.

      सोवियत संघ ने 1964 में औने पौने दामों पर चार आधुनिक ‘‘प्रोजेक्ट 641’’ पनडुब्बियां देने की पेशकश की और इस संबंध में 1965 में करार पर हस्ताक्षर किए गए- उत्तर अटलांटिक संधि संगठन (क्लिक करेंनेटो) में इन पनडुब्बियों को ‘फॉक्सट्राट’ कूटनाम दिया था.
      इन पनडुब्बियों के संचालन का प्रशिक्षण लेने के लिए 20 अधिकारियों और 100 नाविकों का दल 1966 में रूस के व्लादीवोस्तोक रवाना हुआ जहां उन्होंने तीन महीने तक रूसी भाषा का प्रशिक्षण लिया और फिर 12 महीने पनडुब्बी संचालन का प्रशिक्षण लिया.

      पहली पनडुब्बी आईएनएस कलवारी का जलावतरण

      भारत की पहली पनडुब्बी आईएनएस कलवारी का आठ दिसंबर 1967 को यूक्रेन के रीगा (तत्कालीन सोवियत संघ) में जलावतरण किया गया और तबसे आठ दिसंबर को 'पनडुब्बी शाखा दिवस' के रूप में मनाया जाता है।

      उस दौरान अरब देशों और इसराइल के बीच संघर्ष के कारण स्वेज़ नहर में संचालन बंद होने के बाद कलवारी को भारत पहुंचने के लिए तीन महीने तक केप ऑफ गुड होप का चक्कर लगाना पड़ा था.

      इस तीन महीने की अवधि में तीन पनडुब्बियों (अमरीका की यूएसएस स्कॉरपियोन, सोवियत संघ की गोल्फ श्रेणी की एक पनडुब्बी और फ्रांस की यूरीडाइस) को समुद्र ने लील लिया था जो भारतीय नौसेना के लिए भी इस बात की चेतावनी थी कि पनडुब्बी संचालन आसान काम नहीं है.

      दिल्ली में पनडुब्बी शाखा के लिए एक नए महानिदेशालय का गठन किया गया जबकि विशाखापट्टनम में पनडुब्बी अड्डे की आधारशिला रखी गयी जिसे बाद में 'आईएनएस वीरबाहु' नाम दिया गया.

      भारत-पाकिस्तान युद्ध

      1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में पूर्वी और पश्चिमी सीमा में पनडुब्बियों को अग्रिम इलाकों तक तैनात किया गया था. भारतीय नौसेना का दावा है कि इन पनडुब्बियों ने तब पाकिस्तानी नौसेना को कराची बंदरगाह से निकलने नहीं दिया था.

      किलो श्रेणी की आठ पनडुब्बियों को रीगा में कमीशन मिला और वे 1986 से 1990 के दौरान भारत पहुंची थीं. इनमें से चार को विशाखापट्टनम में और चार को मुंबई में रखा गया. इस श्रेणी की पहली पनडुब्बी का नाम 'आईएनएस सिंधुघोष' रखा गया.
      किलो श्रेणी की पनडुब्बियों को भारत की समुद्री परिस्थितियों के लिए डिज़ाइन नहीं किया गया था. इसलिए शुरुआत में डीज़ल जेनेरेटरों, बैटरियों, वातानुकूलित प्रणालियों और ताज़ा पानी को लेकर कई तरह की ख़ामियों को सीएजी ने अपनी रिपोर्ट में उजागर किया था.

      स्वदेशी नुस्खे

      भारतीय नौसेना के अधिकारियों ने स्वदेशी नुस्ख़े अपनाते हुए इन समस्याओं को दूर किया और इन पनडुब्बियों को भारतीय परिस्थितियों में संचालन के अनुकूल बना दिया.

      भारत की पहली परमाणु पनडुब्बी आईएनएस चक्र को पांच जनवरी 1988 में व्लादीवोस्तोक में कमीशन मिला और यह तीन साल की ली़ज़ पर विशाखापट्टनम पहुंची.

      विभिन्न तरह की पनडुब्बियों के कुशल संचालन और इनमें तालमेल के लिए एक अप्रैल 1987 को फ्लैग ऑफिस सबमरींस (एफओएसएम) विशाखापट्टनम में स्थापित किया गया.

      अथाह खर्च पर सवाल

      एसएसके श्रेणी की दो पनडुब्बियों आईएनएस शल्की और आईएनएस शंकुल का 1992 और 1994 में मुंबई की मडगांव गोदी में निर्माण किया गया.

      लेकिन कई विवादों के उठने से यह कार्यक्रम प्रभावित हुआ. पनडुब्बी निर्माण के लिए आधारभूत ढांचे के विकास और पनडुब्बीकर्मियों के प्रशिक्षण पर अथाह खर्च पर सवाल उठने लगे. इससे इस दौरान मिला अनुभव बेकार चला गया और भारत को अब फिर से परंपरागत पनडुब्बियों के निर्माण का ककहरा सीखना पड़ा.

      साल 1991 में सोवियत संघ के विघटन से भारत को कई तरह की दिक्कतों का सामना करना पड़ा क्योंकि इससे पनडुब्बियों के कलपुर्ज़ों की आपूर्ति प्रभावित हुई. हालांकि इससे एक फायदा यह हुआ कि इनमें से कई कलपुर्ज़ों का स्वदेश में ही निर्माण होने लगा.
      26 जुलाई 2009 को स्वदेश निर्मित पहली परमाणु पनडुब्बी आईएनएस अरिहंतको लांच किया गया.

      मशहूर लेखक रुडयार्ड किपलिंग ने कभी पनडुब्बियों के बारे में कहा था ‘‘पनडुब्बियों ने अपनी तरह के अधिकारी और जवान तैयार किए हैं जिनकी भाषा और परंपराएं नौसेना की दूसरी शाखाओं से अलग हैं लेकिन उनका दिल नौसेना का ही है."

      'हक्सर दूर हटे और इंदिरा गाँधी की आफ़तें शुरू हो गईं' - 1

      धानमंत्री इंदिरा गॉंधी के प्रधान सचिव पीएन हक्सर अपने कार्यकाल में फ़ाइलें निबटाते हुए.
      इंदिरा गाँधी के ज़माने में मशहूर ‘कश्मीरी माफ़िया’ का सबसे महत्वपूर्ण सदस्य कोई कैबिनेट मिनिस्टर या चुना हुआ प्रतिनिधि नहीं बल्कि एक वरिष्ठ नौकरशाह था.
      उनका नाम था परमेश्वर नारायण हक्सर. हक्सर को मई क्लिक करें1967 में इंदिरा ने अपना प्रधान सचिव बनाया. उस समय उनकी उम्र 54 साल की थी.


        इलाहाबाद विश्वविद्यालय से डिग्री लेने के बाद वो तीस के दशक में इंग्लैंड गए थे जहाँ उन्होंने दुनिया के मशहूर एंथ्रोपॉलोजिस्ट ब्रोनिसलॉ मेलीनोस्की की देखरेख में एंथ्रोपॉलॉजी की पढ़ाई की थी. इसके बाद उन्होंने वकालत भी पढ़ी और इंदिरा के पति फ़िरोज़ गाँधी के पहले दोस्त और फिर हैम्पस्टेड में उनके पड़ोसी भी बन गए.
        दूसरे विश्व युद्ध के दौरान जब हिटलर के विमान लंदन पर बम गिराते थे तो हक्सर इंदिरा और फ़िरोज़ के लिए स्वादिष्ट कश्मीरी खाने बना रहे होते थे.
        लंदन से वापस आ कर हक्सर ने इलाहाबाद में वकालत करनी शुरू कर दी. आज़ादी के बाद नेहरू ने उन्हें भारतीय विदेश सेवा में शामिल होने की पेशकश की.
        हक्सर की पहली पोस्टिंग लंदन में थी जहाँ कृष्ण मेनन भारत के उच्चायुक्त हुआ करते थे. इसके बाद उन्हें नाइजीरिया में भारत का पहला राजदूत बनाया गया.फिर वो ऑस्ट्रिया में भी भारत के राजदूत बने.

        जॉन्सन के साथ भोज
        साठ के दशक में वो ब्रिटेन में भारत के उपउच्चायुक्त थे जब इंदिरा गाँधी ने अपना प्रधान सचिव या कहें अपना दाहिना हाथ बनाने के लिए उन्हें तलब किया. इससे पहले 1966 में वो ब्रिटेन में उप उच्चायुक्त के पद पर रहते इंदिरा के साथ अमरीका की सरकारी यात्रा पर भी गए थे.
        उस समय की बहुत दिलचस्प घटना का ज़िक्र प्रणय गुप्ते ने अपनी किताब मदर इंडिया में किया है. प्रणय लिखते हैं कि अमरीकी राष्ट्रपति लिंडन जॉन्सन इंदिरा गाँधी से इस क़दर प्रभावित थे कि जब भारतीय राजदूत बीके नेहरू ने उप राष्ट्रपति ह्यूबर्ट हंफ़्री के सम्मान में अपने घर पर भोज दिया तो जॉन्सन भोज से एक घंटे पहले बिना बताए और बिना किसी पूर्व सूचना के, सारे प्रोटोकॉल तोड़ते हुए वहाँ आ पहुँचे.
        "अमरीकी राष्ट्रपति लिंडन जॉन्सन इंदिरा गाँधी से इस क़दर प्रभावित थे कि जब भारतीय राजदूत बी के नेहरू ने उप राष्ट्रपति ह्यूबर्ट हंफ़्री के सम्मान में अपने घर पर भोज दिया तो जॉन्सन भोज से एक घंटे पहले बिना बताए और बिना किसी पूर्व सूचना के, सारे प्रोटोकॉल तोड़ते हुए वहाँ आ पहुँचे."
        प्रणय गुप्ते, अपनी किताब मदर इंडिया में

        बीके नेहरू की पत्नी ने तकल्लुफ़न उनसे पूछा,"मिस्टर प्रेसिडेंट आप खाने तक तो रुकेंगे न ?" जॉन्सन का जवाब था, "माई डियर लेडी आप क्या समझती हैं मैं यहाँ आया किस लिए हूँ." उप प्रधानमंत्री हंफ़्री ने मज़ाक किया, "मुझे मालूम था कि राष्ट्रपति महोदय मुझे इन सुंदर महिलाओं की बग़ल में नहीं बैठने देंगे."
        आनन फानन में सारे सीटिंग अरेंजमेंट को बदला गया. लेकिन असली दिक्कत ये थी कि भारत के राजदूत के घर में अमरीकी राष्ट्रपति के लिए कोई अतिरिक्त कुर्सी मौजूद नहीं थी. बहरहाल हक्सर ने उनकी मुश्किल दूर की और ख़ुद ही पेशकश की कि मैं भोज से हट जाता हूँ. अंतत: हक्सर की कुर्सी जॉन्सन को दी गई और अमरीकी राष्ट्रपति ने इंदिरा गाँधी के साथ रात का खाना खाया.
        उस समय हक्सर का मानना था कि क्लिक करेंइंदिरा गाँधी अक्लमंद तो हैंलेकिन उनमें गहराई नहीं है. लेकिन उनकी नज़र में उनकी सबसे बड़ी ख़ूबी थी आम लोगों से जुड़ने की क्षमता.(कैथरीन फ़्रैंक, लाइफ़ ऑफ़ इंदिरा नेहरू गाँधी)

        बैंकों का राष्ट्रीयकरण

        इंदिरा गॉंधी के तमाम अहम फ़ैसलों में पीएन हक्सर की भूमिका बेहद अहम थी.
        इंदिरा के सचिव बनने के कुछ ही दिनों के अंदर हक्सर सरकार के सबसे प्रमुख नीति निर्धारक बन गए. वामपंथी विचारधारा के बौद्धिक हक्सर ने बैंकों के राष्ट्रीयकरण और राजाओं के प्रिवी पर्स को समाप्त करने के लिए इंदिरा गाँधी को तैयार किया.
        उससे बढ़ कर 1969 के कांग्रेस विभाजन के समय उनका सलाह पर ही इंदिरा गाँधी ने महत्वपूर्ण फ़ैसले लिए. उनकी ही सलाह पर इंदिरा ने ये बहाना करते हुए मोरारजी देसाई से वित्त मंत्रालय ले लिया कि वो बैंक राष्ट्रीयकरण का विरोध कर रहे थे.
        चार दिनों के बाद इंदिरा गाँधी ने राष्ट्पति अध्यादेश के ज़रिए बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया हांलाकि उसके कुछ दिनों बाद ही संसद का अधिवेशन शुरू होने वाला था. हक्सर की राय थी कि अध्यादेश के ज़रिए बैंकों के राष्ट्रीयकरण से ये संदेश जाएगा कि ये इंदिरा गाँधी का निजी फ़ैसला है.

        सबसे ताकतवर नौकरशाह
        हक्सर एक चुम्बकीय व्यक्तित्व के मालिक थे. पढ़े लिखे थे, मज़ाकिया थे और उनमें बातचीत करने का ग़ज़ब का सलीका था.
        मेनस्ट्रीम के संपादक निखिल चक्रवर्ती उनके सबसे प्रिय दोस्त थे. हक्सर की बेटी नंदिता हक्सर ने एक दिलचस्प बात मुझे बताई कि मेनस्ट्रीम के कई संपादकीय पी एन हक्सर लिखा करते थे लेकिन उनका नाम कभी भी पत्रिका में नहीं छपा.
        इंदिरा गाँधी को हक्सर के घर के बने कोफ़्ते बहुत पसंद थे. अक्सर जब उनका दिल चाहता तो वो इसकी फ़रमाइश करतीं. उनका ख़्याल था कि ये कोफ़्ते हक्सर का ख़ानसामा तैयार करता था. वास्तव में ये कोफ़्ते हक्सर अपने हाथों से इंदिरा गाँधी के लिए खुद बनाया करते थे.

        पीएन हक्सर अपने पत्नी और बेटियों के साथ.

        उनका रौब ऐसा था कि कई बार तो उनके कमरे में घुसते ही मंत्री भी उठ कर खड़े हो जाते थे. उनकी याद्दाश्त का भी कोई जवाब नहीं था.
        दुनिया भर की घटनाएं और तारीख़ें उन्हें इस तरह से याद रहती थी जैसे वो उनकी डायरी में लिखी हों.
        किसी भी चीज़ का विष्लेषण हक्सर से अच्छा कोई कर नहीं सकता था. हिंदी और अंग्रेज़ी दोनों पर उन्हें बराबर की महारत थी. वो उन गिने चुने नौकरशाहों मे थे जो संस्कृत में भी बात कर सकते थे. अल्लामा इक़बाल का ये शेर वो अक्सर गुनगुनाया करते थे-
        यूनान- ओ- मिस्र ओ- रूमा सब मिट गए जहाँ से
        अब तक मगर है बाक़ी नामोनिशाँ हमारा
        कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी
        सदियों रहा है दुश्मन दौरे ज़मां हमारा

        कमिटेड ब्यूरोक्रेसी
        ये उन्हीं की बूता था कि उन्होंने साठ के दशक में प्रधानमंत्री कार्यालय के कैबिनेट सचिव के कार्यालय से भी महत्वपूर्ण बना दिया था. 1967 से 1973 तक वो संभवत: सरकार के सबसे प्रभावशाली और ताकतवर शक्स थे.
        उन्होंने ही पहली बार ‘कमिटेड ब्यूरॉक्रेसी ’ की विवादास्पद परिकल्पना दी थी जिस पर उनकी काफ़ी आलोचना भी हुई. 1971 के युद्ध से पहले सोवियत संघ के साथ हुए समझौते में भी हक्सर की छाप साफ़ दिखाई देती थी.
        वो 1971 मे ही इंदिरा गाँधी के साथ अमरीका यात्रा पर गए. उन्होंने तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन के व्यक्तित्व का बहुत बारीक आकलन इंदिरा गाँधी के सामने पेश किया.
        "जब तक इंदिरा गाँधी ने हक्सर की बात सुनी वो जीत पर जीत अर्जित करतीं गईं, चाहे वो बांगलादेश हो, निक्सन हों, ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो हों या परमाणु परीक्षण हो. लेकिन जैसे ही उन्होंने हक्सर को हटा कर अपने छोटे बेटे की बात सुननी शुरू कर दी, उनकी आफ़ते वहीं से शुरू हो गईं."
        राजा रामन्ना, मेमोरीज़ ऑफ़ पीएन हक्सर में
        उन्होंने ही इंदिरा गाँधी को बताया कि जब निक्सन दबाव में होते हैं तो उनको बेतहाशा पसीना आता है.

        संजय से अलग रहने की सलाह
        इंदिरा गाँधी के आसपास के लोगों में से कई लोग क्लिक करेंउनके बेटे संजय गाँधी की हरकतों से ख़ुश नहीं थे लेकिन उनमें से किसी की हिम्मत नहीं थी कि वो इस बारे में उनसे बात कर पाएं.
        ये हक्सर का ही बूता था कि उन्होंने इंदिरा गाँधी को सलाह दी थी कि वो संजय को दिल्ली से कहीं दूर भेज दें ताकि उनसे जुड़े सारे विवाद अपने आप मर जाएं.
        इंदर गुजराल अपनी आत्मकथा मैटर्स ऑफ़ डिसक्रेशन में लिखते हैं, "हक्सर इस हद तक गए कि उन्होंने इंदिरा से कहा कि आप संजय से अलग रहना शुरू कर दें. इस पर उनका जवाब था कि हर कोई संजय पर हमला कर रहा है. कोई उसके बचाव में नहीं आ रहा है. उसके बारे में हर तरह की गलत कहानियाँ फैलाई जा रही हैं. हक्सर ने कहा कि इसी लिए तो मेरा मानना है कि आपको कुछ समय के लिए संजय से कोई वास्ता नहीं रखना चाहिए क्योंकि इसकी वजह से आपको नुकसान हो रहा है."

        पीएन हक्सर को इंदिरा गॉंधी के मामलों में संजय गॉंधी का दखल पसंद नहीं था.
        ज़ाहिर है कि क्लिक करेंइंदिरा ने हक्सर की बात नहीं मानीऔर ये बातचीत बहुत अप्रिय परिस्थतियों में समाप्त हुई और इसकी उन्हें बड़ी कीमत भी चुकानी पड़ी.
        1973 में उन्हें इंदिरा गांधी के प्रधान सचिव के पद से हटा कर योजना आयोग का उपाध्यक्ष बना दिया गया. नेहरू के ज़माने में योजना आयोग की बहुत ठसक थी लेकिन हक्सर के समय तक सुनील खिलनानी के शब्दों में कहा जाए तो योजना आयोग ‘एक सॉफ़िस्टिकेटेड अकाउंट दफ़्तर और हाशिए पर लाए गए लोगों का घर बन गया था.’
        महान परमाणुक्लिक करेंवैज्ञानिक राजा रामन्ना ने उनके बारेमें एक दिलचस्प बात लिखी थी, "जब तक इंदिरा गाँधी ने हक्सर की बात सुनी वो जीत पर जीत अर्जित करतीं गईं, चाहे वो बांगलादेश हो, निक्सन हों, ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो हों या परमाणु परीक्षण हो. लेकिन जैसे ही उन्होंने हक्सर को हटा कर अपने छोटे बेटे की बात सुननी शुरू कर दी, उनकी आफ़ते वहीं से शुरू हो गईं. इसे मात्र संयोग ही नहीं कहा जा सकता कि हक्सर के जाने के बाद ही भिंडरावाला आए, ऑप्रेशन ब्लू स्टार हुआ, संजय की मौत हुई और खुद उनकी हत्या हुई."(मेमोरीज़ ऑफ़ पीएन हक्सर)

        नरसिम्हा राव को प्रधानमंत्री बनवाने में भूमिका
        पूर्व विदेश मंत्री नटवर सिंह ने एक बहुत दिलचस्प बात मुझे बताई. राजीव गाँधी की मौत के बाद ये सवाल उठ खड़ा हुआ कि उनका उत्तराधिकारी कौन हो.
        नटवर सिंह ने सोनिया गाँधी को सलाह दी कि इस बारे में उन्हें पी एन हक्सर से मशवरा करना चाहिए. हक्सर को 10 जनपथ बुलाया गया. उन्होंने सलाह दी कि तत्कालीन उप राष्ट्रपति शंकरदयाल शर्मा इस पद के लिए सबसे उपयुक्त हैं.
        नटवर सिंह और अरुणा आसफ़ अली को ये ज़िम्मेदारी दी गई कि वो शंकरदयाल शर्मा का मन टटोलें. शंकरदयाल ने इन दोनों की बात सुनने के बाद कहा,’मैं इस बात से बहुत अभिभूत हूँ कि सोनिया जी ने मुझमें इतना विश्वास प्रकट किया. लेकिन भारत का प्रधानमंत्री होना एक फ़ुल टाइम जॉब है. मेरी उम्र और मेरा स्वास्थ्य मुझे इस देश के सबसे महत्वपूर्ण पद के साथ न्याय नहीं करने देगा.’
        अब हैरान होने की बारी नटवर सिंह की थी. एक बार फिर सोनिया गाँधी ने हक्सर को बुलाया. इस बार हक्सर ने नरसिम्हाराव का नाम सुझाया. आगे की घटनाएं इतिहास हैं.

        Friday, 27 February 2015

        दाढ़ी से लेकर आत्मा तक पर लग चुका है टैक्स @विकास बहुगुणा

        इतिहास बताता है कि सरकारी खजाने को भरने के लिए सत्ताएं अनोखे टैक्स लगाती रही हैं.
        बजट पर होने वाली कोई भी बात टैक्स की चर्चा के बिना अधूरी रहती है. जनता पर टैक्स लगता है तो सरकार की जेब में पैसा आता है और उससे देश चलता है. व्यवस्था चलाने के लिए पैसा जुटाने की यह जुगत बहुत पुरानी है जिसका इतिहास खंगालने पर कई मजेदार चीजें मिलती हैं.+
        उदाहरण के लिए 1535 में इंग्लैंड के सम्राट हेनरी अष्टम ने दाढ़ी पर टैक्स लगा दिया था. उनकी भी दाढ़ी थी, लेकिन यह पता नहीं चलता कि वे दाढ़ी टैक्स देते थे या नहीं. वैसे यह टैक्स आदमी की सामाजिक हैसियत के हिसाब से लिया जाता था. हेनरी अष्टम के बाद उनकी बेटी एलिजाबेथ प्रथम ने नियम बनाया कि दो हफ्ते से बड़ी हर दाढ़ी पर टैक्स लिया जाएगा.+
        टैक्स वसूली का वक्त हो और कोई घर से गायब मिले तो उसका टैक्स पड़ोसी को देना होता था. यानी आम लोगों के लिए एक काम यह भी बढ़ गया था कि टैक्स वसूली के वक्त वे अपने पड़ोसियों पर नजर रखें.
        1698 में रूस के शासक पीटर द ग्रेट ने भी दाढ़ी पर टैक्स लगाया था. पीटर की इच्छा थी कि रूस का समाज भी यूरोपीय देशों के समाज की तरह आधुनिक हो और लोग नियम से दाढ़ी मुंडवाते रहें. तब रूस में दाढ़ी टैक्स चुकाने वालों को एक टोकन मिलता था जिसे उन्हें हर समय साथ लेकर चलना पड़ता. टोकन तांबे या चांदी का होता था और उस पर लिखा होता था कि उस शख्स ने दाढ़ी कर चुका दिया है. कहने की जरूरत नहीं कि कोई दाढ़ी वाला शख्स अगर बिना टोकन पाया गया तो उसकी शामत आ सकती थी.+
        आत्मा पर टैक्स
        इन्हीं पीटर द ग्रेट ने 1718 में सोल यानी आत्मा पर भी टैक्स लगाया. यह उन लोगों को देना होता था जो यह यकीन करते थे कि उनके पास आत्मा जैसी कोई चीज है. बच वे भी नहीं सकते थे जो यह यकीन नहीं करते थे. कहते हैं कि उनसे धर्म में आस्था न रखने का टैक्स लिया जाता था. चर्च और पहुंच वाले वर्ग से ताल्लुक रखने वालों को छोड़कर यह सबको देना होता था. टैक्स वसूली का वक्त हो और कोई घर से गायब मिले तो उसका टैक्स पड़ोसी को देना होता था. यानी आम लोगों के लिए एक काम यह भी बढ़ गया था कि टैक्स वसूली के वक्त वे अपने पड़ोसियों पर नजर रखें. पीटर द ग्रेट ने यह टैक्स इसलिए लगाया था कि इससे रूस की सेना को शक्तिशाली बनाने के लिए जरूरी भारी रकम जुटाई जा सके. वे इन दोनों कामों में सफल रहे.+
        खिड़की टैक्स
        1696 में इंग्लैंड और वेल्स के राजा विलियम तृतीय ने खिड़कियों पर टैक्स लगाया. क्यों लगाया, इसकी भी कहानी दिलचस्प है. उस समय राजा के खजाने की हालत खस्ता चल रही थी. इसकी हालत सुधारने के लिए पहले इन्कम टैक्स का रास्ता था लेकिन उन दिनों वहां पर इसका भारी विरोध हो रहा था. इन्कम टैक्स चुकाने के लिए अपनी कमाई सार्वजनिक करना जरूरी था. लोगों का मानना था कि यह उनके मामलों में सरकार का दखल है. वे इसे व्यक्तिगत आजादी पर खतरा करार दे रहे थे.+
        यह टैक्स उनको देना होता था जो यकीन करते थे कि उनके पास आत्मा जैसी कोई चीज है. बच वे भी नहीं सकते थे जो यह यकीन नहीं करते थे. कहते हैं कि उनसे धर्म में आस्था न रखने का टैक्स लिया जाता था.
        तो आखिर में प्रजा भी संतुष्ट रहे और खजाने की हालत भी दुरुस्त हो जाए, इसके लिए विंडो टैक्स का रास्ता निकाला गया. माना गया कि आदमी के पास अगर पैसा ज्यादा है तो घर भी बड़ा होगा और इसलिए खिड़कियां भी ज्यादा होंगी. तो टैक्स खिड़कियों की संख्या के हिसाब से लगाया गया. हालांकि बहुत से लोगों ने इसका भी तोड़ निकाल लिया. उन्होंने टैक्स लगते ही अपने घरों की खिड़कियों को इस कारीगरी से ईंटें लगाकर बंद कर दिया कि टैक्स हटे तो तुरंत ही उन्हें हटाकर मकान की सुंदरता बहाल की जा सके.+
        कुंवारों की शामत
        नौवीं सदी में रोम के सम्राट ऑगस्टस ने बैचलर टैक्स लगाया था. इसका मकसद शादी को बढ़ावा देना था. ऑगस्टस ने उन शादीशुदा जोड़ों पर भी टैक्स लगाया जिनके बच्चे नहीं थे. यह 20 से 60 साल की उम्र तक के लोगों पर लागू होता था. बैचलर टैक्स 15वीं सदी के दौरान ओटोमन साम्राज्य में भी प्रचलित था. इटली के तानाशाह मुसोलिनी ने भी 1924 में 21से लेकर 50 वर्ष की आयु के बीच के अविवाहित पुरुषों पर बैचलर टैक्स लगाया. यानी कुंवारों की शामत थी.+
        20वीं सदी की शुरुआत में कनाडा में आने वाले हर चीनी पर हेड टैक्स लगाया जाता था. न्यूजीलैंड में भी कुछ इसी तरह का टैक्स चलन में था. बाद में दोनों ही देशों ने इस तरह के नस्लवादी व्यवहार के लिए माफी मांगी.+
        आज भी ऐसे विचित्र टैक्स जारी हैं. डेनमार्क और हंगरी जैसे देशों ने चीज, बटर और पेस्ट्री जैसी खाद्य सामग्री पर फैट टैक्स लगाया हुआ है. इस टैक्स के दायरे में वे सभी चीजें आती हैं, जिनमें 2.3 परसेंट से ज्यादा सेचुरेटेड फैट है. इस टैक्स का मकसद लोगों को मोटापे और उसके चलते होने वाली बीमारियों से बचाना है. ज्यादा टैक्स की वजह से चीजें महंगी होंगी, तो लोग कम खाएंगे और उनकी सेहत ठीक रहेगी. भारत में भी मोटापा, ब्लडप्रेशर, डायबिटीज जैसी समस्याएं लगातार बढ़ रही हैं जिनका रिश्ता कुछ विशेष तरह के खाने से भी जुड़ता है. कहीं वित्तमंत्री जी इस बार….

        काला बकरा, बाढ़..सुने हैं इन स्टेशनों के नाम @वंदना

        भारतीय रेल यात्री
        आँकड़ों के अंबार से भरा रेल बजट हर साल आता है और फिर उस पर होती है रिवायती राजनीतिक बयानबाज़ी, इस बार भी यही सब हुआ.
        मगर 'आंकड़ेबाज़ी' और बयानबाज़ी से परे एक आम रेल यात्री के लिए रेलगाड़ी के और भी कई मायने हैं.
        दरअसल भारत में रेल का सफ़र केवल यात्रा नहीं बल्कि भारत की बदलती तस्वीर देखने का बेहतरीन ज़रिया है और यादों का पिटारा भी.

        पढ़ें विस्तार से

        भारतीय रेल यात्री
        चौथी या पाँचवी कक्षा में हिंदी की किताब में चैप्टर था 'राजीव की बंगाल यात्रा'.. इसमें गर्मियों की छुट्टियों में नन्हा राजीव अपनी दीदी के साथ ट्रेन में बंगाल के एक गांव घूमने निकला है.
        छोटे-छोटे स्टेशनों पर रुकती रेलगाड़ी, प्लेटफ़ॉर्म पर 'डाब' बेचने वाले का खोमचा और उसे देख प्लेटफॉर्म पर उतरने का बालहठ, उतर जाने पर गाड़ी छूट जाने का डर... उस चैप्टर में ट्रेन के ज़रिए लिखा दिलचस्प सफ़रनामा शायद रेल के प्रति मेरे आकर्षण का पहला पड़ाव बना.
        रेल सफ़र में पड़ने वाले अजीबो-ग़रीब स्टेशनों के नाम मुझे काफ़ी दिलचस्प लगते थे.
        पंजाब में आने वाला काला बकरा स्टेशन, महाराष्ट्र का चिंचपोकली, सबसे छोटे स्टेशन के नामों में से एक उड़ीसा का ईबी (IB), उड़ीसा में सिंगापुर रोड, तो बिहार में बाढ़ रेलवे स्टेशन.. और Venkatanarasimharajuvaripeta रेलवे स्टेशन को ठीक से हिंदी में लिखने की मेरी कोशिशें बेकार ही गई हैं.

        खट्टी-मीठी यादें

        भारतीय रेल यात्री
        कोई 15 साल पहले के रेल सफ़र को याद करूँ तो याद आता है कि जब स्पीलर क्लास में टिकट लेकर आप ठाठ से बैठे हों और कोई बिना टिकट वाला आराम से आपकी सीट पर तशरीफ़ धर दे. और टोकिए तो बोले.. हियां ही तो उतरना है अगले टेशन पर, सीट पर बैठ जाएँगे तो सीट घिस थोड़े जाएगा..
        अगर आप लंबी दूरी के सफ़र पर हों तो रेलगाड़ी में भूख लगने पर पॉलीथिन या पोटली में बंद घर के पराठे-सब्ज़ियाँ और आचार-मुरब्बे निकलते हैं और सीट पर अख़बार बिछाकर शुरू होता है भोज...और रेल का डिब्बा महक सा उठता है.
        इसी स्पीलर क्लास में किसी के खिलाए कश्मीरी सेब का स्वाद और ख़ुशबू आज भी याद है.
        इसी बीच ट्रेन की खिड़की के पास बैठने के लिए भाई-बहन का झगड़ा भी चलता रहता है...मानो रेल सफ़र में खिड़की वाली सीट से ज़्यादा अहम चीज़ कोई होती ही नहीं.
        तब हाथ में न मोबाइल होता था न टैबलेट. ऐसे में लंबी दूरी के सफ़र में साथ यात्रा करने वाले के साथ देर-सबेर बस यूं ही गुफ़्तगू का सिलसिला शुरू हो जाता था.
        अगर नेशनल इंटिग्रेशन को कोई ब्रैंड एंबेसेडर चाहिए तो भारतीय रेल अपनी दावेदारी ज़रूर पेश कर सकती है.

        रेलवे की बदलती तस्वीर

        भारतीय रेल यात्री
        लेकिन ये कोई 15 साल पुरानी बात है- छात्र जीवन की. नौकरी लगने के बाद एसी क्लास और शताब्दी में भी सफ़र करने का मौका मिलने लगा. यह एसी रेलगाड़ी न तो हर छोटे स्टेशन पर रुकती है, न लोगों का रेला सीट से धकेलता हुआ अंदर आता है और न कोई खोमचे वाला सामान बेचने वाला यहां आता है.
        इन ट्रेनों में परांठे की पोटली नहीं निकलती बल्कि आपकी टेबल पर फ़ॉर्क और स्पून के साथ खाना सर्व किया जाता है. एक अजीब सी ख़ामोशी के बीच सफ़र निकल जाता है.
        कानों में हेडफ़ोन लगाए और हाथ में मोबाइल फ़ोन, स्मार्टफ़ोन और लैपटॉप लिए ट्रेन में सफ़र करते लोग भारत की एक अलग तस्वीर पेश करते हैं और रेल टिकट ख़रीदने के लिए घर बैठे माउस का एक क्लिक ही काफ़ी है ..

        पीछे छूटे लोग..

        रेल का सफ़र कई मायनों में बदला ज़रूर है लेकिन आज भी कई मायनों में भारतीय रेल ज्यों की त्यों है- कई गांवों-क़स्बों में रेलवे फ़ाटक न होने से बेवजह मरते लोग, ट्रेन में भीख माँगकर गुज़ारा करते बच्चे, रेलवे स्टेशनों के अंदर की गंदगी..
        'भारतीय रेल यात्री
        एसी क्लास वाली शताब्दी जब दिल्ली से बस 10-15 मिनट के बाद बाहरी इलाक़ों में पहुंचती है तो सुबह-सुबह पटरी के किनारे कतार में लोग शौच करते दिख जाएंगे. शायद विकास की रेलगाड़ी ने इनके यहां कभी अपना स्टॉप बनाया ही नहीं.
        यानी रेल सफ़र के बहाने, बिना किसी शोध के या किताब और रसाले का पन्ना पलटे, आप बता सकते हैं कि भारत कहां और कैसे बदला है और कहां नहीं.
        अगर इतिहास के पन्ने पलटें तो बरसों दक्षिण अफ़्रीका रहने के बाद जब मोहनदास करमचंद गांधी भारत लौटे थे तो भारत को क़रीब से देखने और समझने के लिए उन्होंने लंबी रेल यात्राएं की थीं..
        भारत के जानने-परखने का यह मूल मंत्र इतने सालों बाद भी बदला नहीं है.
        भारतीय रेल यात्री
        वैसे इन दिनों ट्रेन में सफ़र करते हुए अक्सर सोचती हूं कि पांचवी क्लास में पढ़ी राजीव की बंगाल यात्रा वाली कहानी आज के दौर में लिखनी हो तो कितनी अलग होगी..
        क्या ट्रेन में बैठा नन्हा राजीव बड़ी-बड़ी अंचभित आंखों से वैसे ही सवाल पूछेगा.. या उसका सफ़र किसी वीडियो गेम में ही गुज़र जाएगा..
        और हां, अगर आपको रेलवे स्टेशनों के कुछ अजीबोग़रीब नाम पता हों तो ज़रूर बताइएगा.