इतिहास मुर्दागाड़ी नहीं होता, जिस पर व्यक्तिगत क्षुद्रताओं और सियासी रंजिशों के शव ढोए जाएं। इतिहास अतीत से सबक लेकर भविष्य के निर्माण का आख्यान है। लेकिन, दुर्भाग्य से इतिहास को इस दृष्टि से देखना बंद कर दिया गया है। हाल के दिनों में, इतिहास के नायकों को आमने-सामने कर एक को महिमामंडित करने और दूसरे को नीचे गिराने की प्रवृत्ति तेजी से पनपी है। इस षड्यंत्रकारी प्रवृति के सबसे ज्यादा शिकार जवाहरलाल नेहरू हो रहे हैं।
पहले पटेल की बात करें। उन्होंने खुले मन से जवाहर लाल नेहरू को अपना नेता स्वीकार किया था। बात अगर पटेल के बतौर गृह मंत्री सख्त रवैया अपनाकर तमाम राजे-रजवाड़ों को भारत में शामिल करने की है, तो वाकई इसका श्रेय उन्हें दिया जाना चाहिए। दिया जाता भी है। मगर इससे नेहरू उनसे कमतर कैसे साबित हो जाते हैं? क्या इस तथ्य की उपेक्षा की जा सकती है कि देश को बनाने और तमाम लोकतांत्रिक संस्थाओं की नींव रखने में इस शख्स का अहम योगदान रहा है?
लेकिन यहां हमें यह भी याद रखना होगा कि नेहरू भी हाड़-मांस के साधारण मनुष्य ही थे। इसलिए निर्णय लेने में उनसे कभी-कभी गलतियां होना स्वाभाविक है। जम्मू-कश्मीर के मसले पर नेहरू के नरम रवैये को लेकर उनकी आलोचना करने वाले लोग संभवतः इस तथ्य को भूल जाते हैं। इसी तरह, नेहरू के विरोधी आलोचना के लिए कई बार उनका सिगरेट पीते हुए फोटो सामने रखते हैं, तो कई बार माउंटबेटन की पत्नी के साथ उनके रागात्मक संबंधों की बात उठाते हैं। सवाल है कि नेहरू का मूल्यांकन उनके सामाजिक योगदान से किया जाना चाहिए या फिर उनके व्यक्तिगत जीवन से।
पटेल की ही तरह सुभाष चंद्र बोस की महानता भी असंदिग्ध है। आईसीएस का इम्तहान पास करने के बावजूद अफसरशाही का मोह त्याग देना, कांग्रेस में सक्रियता दिखाना और शीर्ष तक पहुंचना, फिर देश से बाहर जाकर तमाम विपरीत परिस्थितियों से जूझते हुए आजाद हिंद फौज का निर्माण करना- ऐसे काम हैं, जो किसी काल्पनिक गाथा सरीखे लगते हैं। लेकिन यहां भी सवाल वही है कि क्या इससे नेहरू छोटे हो जाते हैं? महानता का क्या कोई निश्चित पैमाना होता है?
आज अगर यह कहा जा रहा है कि नेहरू ने सुभाष चंद्र बोस के परिजनों की जासूसी कराई थी और इसके मंतव्यों का पता लगाने के लिए एक कमेटी का गठन किया जा रहा है, तो इसके पीछे की मंशा पर सवाल उठना लाजिमी है। पहला सवाल तो यही है कि सुभाष चंद्र बोस अगर हवाई दुर्घटना में नहीं मारे गए, तो आजादी के बाद उन्हें देश के सामने आने में दिक्कत क्या थी। कहा जाता है कि उनकी जान को खतरा था। ऐसा कहने वाले नेहरू की ओर संकेत करते हैं। हम कैसे भूल सकते हैं कि नेहरू के प्रधानमंत्रित्व काल में उनके तमाम विरोधी सक्रिय थे और बेहिचक अपनी बात लोगों के सामने रख रहे थे। कई वैचारिक विरोधियों को तो नेहरू ने मंत्रिमंडल में भी स्थान दिया था। ऐसा शख्स बोस को राजनीतिक बिरादरी में स्थान क्यों नहीं देता? लिहाजा कहीं इस सारे हंगामे के पीछे पश्चिम बंगाल के आने वाले विधानसभा चुनाव तो नहीं हैं? पश्चिम बंगाल के लोगों के बोस के प्रति भावनात्मक लगाव को देखते हुए कहीं राजनीतिक रोटियां तो नहीं सेंकी जा रही हैं? जो लोग ऐसा कर रहे हैं, उन्हें याद रखना चाहिए कि हर वर्तमान का इतिहास हो जाना नियति है, और इतिहास का मूल्यांकन बेहद निर्मम होता है
पहले पटेल की बात करें। उन्होंने खुले मन से जवाहर लाल नेहरू को अपना नेता स्वीकार किया था। बात अगर पटेल के बतौर गृह मंत्री सख्त रवैया अपनाकर तमाम राजे-रजवाड़ों को भारत में शामिल करने की है, तो वाकई इसका श्रेय उन्हें दिया जाना चाहिए। दिया जाता भी है। मगर इससे नेहरू उनसे कमतर कैसे साबित हो जाते हैं? क्या इस तथ्य की उपेक्षा की जा सकती है कि देश को बनाने और तमाम लोकतांत्रिक संस्थाओं की नींव रखने में इस शख्स का अहम योगदान रहा है?
लेकिन यहां हमें यह भी याद रखना होगा कि नेहरू भी हाड़-मांस के साधारण मनुष्य ही थे। इसलिए निर्णय लेने में उनसे कभी-कभी गलतियां होना स्वाभाविक है। जम्मू-कश्मीर के मसले पर नेहरू के नरम रवैये को लेकर उनकी आलोचना करने वाले लोग संभवतः इस तथ्य को भूल जाते हैं। इसी तरह, नेहरू के विरोधी आलोचना के लिए कई बार उनका सिगरेट पीते हुए फोटो सामने रखते हैं, तो कई बार माउंटबेटन की पत्नी के साथ उनके रागात्मक संबंधों की बात उठाते हैं। सवाल है कि नेहरू का मूल्यांकन उनके सामाजिक योगदान से किया जाना चाहिए या फिर उनके व्यक्तिगत जीवन से।
पटेल की ही तरह सुभाष चंद्र बोस की महानता भी असंदिग्ध है। आईसीएस का इम्तहान पास करने के बावजूद अफसरशाही का मोह त्याग देना, कांग्रेस में सक्रियता दिखाना और शीर्ष तक पहुंचना, फिर देश से बाहर जाकर तमाम विपरीत परिस्थितियों से जूझते हुए आजाद हिंद फौज का निर्माण करना- ऐसे काम हैं, जो किसी काल्पनिक गाथा सरीखे लगते हैं। लेकिन यहां भी सवाल वही है कि क्या इससे नेहरू छोटे हो जाते हैं? महानता का क्या कोई निश्चित पैमाना होता है?
आज अगर यह कहा जा रहा है कि नेहरू ने सुभाष चंद्र बोस के परिजनों की जासूसी कराई थी और इसके मंतव्यों का पता लगाने के लिए एक कमेटी का गठन किया जा रहा है, तो इसके पीछे की मंशा पर सवाल उठना लाजिमी है। पहला सवाल तो यही है कि सुभाष चंद्र बोस अगर हवाई दुर्घटना में नहीं मारे गए, तो आजादी के बाद उन्हें देश के सामने आने में दिक्कत क्या थी। कहा जाता है कि उनकी जान को खतरा था। ऐसा कहने वाले नेहरू की ओर संकेत करते हैं। हम कैसे भूल सकते हैं कि नेहरू के प्रधानमंत्रित्व काल में उनके तमाम विरोधी सक्रिय थे और बेहिचक अपनी बात लोगों के सामने रख रहे थे। कई वैचारिक विरोधियों को तो नेहरू ने मंत्रिमंडल में भी स्थान दिया था। ऐसा शख्स बोस को राजनीतिक बिरादरी में स्थान क्यों नहीं देता? लिहाजा कहीं इस सारे हंगामे के पीछे पश्चिम बंगाल के आने वाले विधानसभा चुनाव तो नहीं हैं? पश्चिम बंगाल के लोगों के बोस के प्रति भावनात्मक लगाव को देखते हुए कहीं राजनीतिक रोटियां तो नहीं सेंकी जा रही हैं? जो लोग ऐसा कर रहे हैं, उन्हें याद रखना चाहिए कि हर वर्तमान का इतिहास हो जाना नियति है, और इतिहास का मूल्यांकन बेहद निर्मम होता है
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