खबरें हैं कि करीब दो महीनों से 'ग़ायब' कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी जल्द ही वापस आ सकते हैं.
एक तरफ़ जहां भारत में राहुल गांधी के नेतृत्व और भविष्य पर सवाल उठ रहे हैं, तो दूसरी ओर पड़ोसी देश पाकिस्तान में बिलावल भुट्टो की राजनीतिक क्षमताओं पर भी सवाल उठाए जा रहे हैं.
दक्षिण एशिया के दो बड़े राजनीतिक परिवारों के इन दो 'युवराजों' का राजनीतिक भविष्य क्या है?
पढ़ें विशेष रिपोर्ट
भारत में राहुल गांधी और पाकिस्तान में बिलावल भुट्टो का राजनीतिक भविष्य क्या है?
एक तरफ़ जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा और राजीव गांधी के खानदान के राहुल गांधी तो दूसरी ओर ज़ुल्फ़िकार और बेनज़ीर भुट्टो खानदान के बिलावल भुट्टो.
दक्षिण एशिया के दो बड़े राजनीतिक परिवार लेकिन अपने अपने देशों में दोनो ही राजनीतिक दलों की हालत अच्छी नहीं है.
दोनो पार्टियों को करिश्माई नेतृत्व की ज़रूरत है. लेकिन दोनों दलों के कई समर्थक अगली पीढ़ी की नेतृत्व क्षमताओं से निराश दिखते हैं.
पाकिस्तान की राजनीति
एक तरफ़ जहां राहुल गाँधी के आलोचक उन्हें अनिच्छुक राजनेता मानते हैं तो दूसरी ओर बिलावल के आलोचक उन्हें नौसिखिया कहते हैं जिन्हें मां की अचानक मौत से राजनीति में आना पड़ा.
पहले बिलावल की बात करें. पाकिस्तान की राजनीति में उनका क्या भविष्य है?
इस सवाल पर पाकिस्तान में राजनीतिक और सैन्य मामलों की विश्लेषक आएशा सिद्दीका कहती हैं, "शुरू में आसिफ अली ज़रदारी ने चाहा यही था कि बिलावल को खड़ा करके भुट्टो ब्रांड को कायम रखेंगे. लेकिन बिलावल ने भुट्टो ब्रांड को संभालने के बजाय पार्टी की सियासत में कूद पड़े."
कांग्रेस की मजबूरी!
आएशा बताती हैं, "बिलावल ने उसमें ज़्यादा दिलचस्पी लेनी शुरू कर दी जिसकी वजह से उनके पिता ज़रदारी नाराज हो गए. ये भी सुनने में आ रहा है कि कुछ सालों में बिलावल के बजाय उनकी छोटी बहन आसफा को शायद सियासत में लाया जाए."
उन्होंने कहा, "आसफा को इसलिए लाया जाएगा क्योंकि भारत की कांग्रेस की तरह पीपुल्स पार्टी को एक भुट्टो ब्रांड की जरूरत है. ये अभी साफ नहीं है कि इन्हें पीपुल्स पार्टी के फोरम में फिर से लॉन्च किया जाएगा या नहीं."
इधर करीब दो महीनों से राहुल गांधी के 'ग़ायब' होने के बावजूद क्या कांग्रेस की मजबूरी नहीं है कि वो राहुल की ओर ही उम्मीद से देखे?
नज़रिया
टीवी चैनल हेडलाइंस टुडे के कार्यकारी संपादक जावेद अंसारी कहते हैं, "पहले से ही लोग ये मानते थे. एक धारणा बनी थी कि राहुल गांधी का दिलोदिमाग राजनीति में नहीं लगता. बीच में ये मुंह उठाकर चल दिए. कांग्रेस के संकट के समय उनको बाहर गए हुए 50 दिन हो गए हैं."
जावेद बताते हैं, "सोनिया गांधी राजनीतिक नेतृत्व प्रदान कर रही हैं. पिछले दिनों उन्होंने दिखा दिया कि उनमें अभी भी बहुत दम-खम बाक़ी है. मैं नहीं मानता कि राहुल गांधी के अलावा कांग्रेस के पास और कोई विकल्प नहीं है. हो सकता प्रियंका गांधी का नजरिया कल कोई बदले."
आएशा सिद्दीका के अनुसार लोगों को लगता है कि बिलावल के पास कहने को कुछ नहीं है, जिससे उनके समर्थक निराश हुए हैं.
पीपीपी की कुर्बानी!
आएशा कहती हैं, "जबकि आप बिलावल की सारी तस्वीरें देखें, उसमें पीपीपी की कुर्बानी की बात तो होती है कि हमने मुल्क के लिए अपना खून बहाया है, कुर्बानियां दी हैं, मेरे नाना, मेरे मामू, मेरी मां, हमने सबको कुर्बान किया, हम कुर्बानी देने के लिए तैयार हैं."
वे बताती हैं, "लेकिन इस बात का कोई एजेंडा सामने नहीं आया कि पीपुल्स पार्टी के साथ आगे करना क्या है. उनके भाषणों में ये बात देखने को नहीं मिली."
उन्होंने कहा, "मुल्तान में बाढ़ आई तो वहां ये गए और बिना किसी वजह से कश्मीर की बात छेड़ दी. पंजाब में कश्मीर को लेकर किसको क्या दिलचस्पी हो सकती है, जाहिर उन्होंने ये बात फौज को सुनाने के लिए की थी."
नेतृत्व क्षमता
आखिर ये दोनों नेता अपने समर्थकों की उम्मीदों पर खरे क्यों नहीं उतर पाए.
जावेद अंसारी कहते हैं, "दोनों के ऊपर बड़े प्रश्नचिह्न हैं. सुना जाता है कि बिलावल भी तुनक कर चले गए हैं. सुनते हैं कि कभी लंदन में हैं, कभी दुबई में हैं. राहुल गांधी भी अक्सर ये कर चुके हैं."
जावेद बताते हैं, "इसलिए दोनों की नेतृत्व क्षमता और दोनों पर ही एक बड़ा सवाल है कि क्या उनमें राजनीति करने लायक माद्दा हैं या नहीं. कि वे अपनी पार्टियों को नेतृत्व प्रदान कर सकें या सिर्फ ये थोपे जा रहे हैं."
भुट्टो परिवार
आएशा सिद्दीका निराशा के सवाल पर इतिहास में जाती हैं.
वे कहती हैं, "जैसे नेहरू ने अपनी बेटी को आगे किया या उन्हें साथ लेकर चले उसी तरह से ज़ुल्फिकार अली भुट्टो अपनी बेटी बेनज़ीर भुट्टो को लेकर चले. बल्कि जुल्फ़िकार तो जब अपनी बेटी बेनज़ीर की ओर देखते थे तो उनके दिमाग में इंदिरा गांधी की इमेज आती थी."
उन्होंने कहा, "भुट्टो ने तो अपनी बेटी को ट्रेन किया था. इन दोनों को आप चाहें हिचकते हुए राजनेता कहें या मैं बिलावल को हादसे की वजह से सियासत में आया शख्स कहूं लेकिन सच तो ये है कि इन दोनों की ट्रेनिंग नहीं हुई है."
दबदबा
"इंदिरा गांधी चाह रहीं थीं कि संजय गांधी गद्दी संभालें. संजय की हादसे में मौत के बाद राजीव को आना पड़ा. राजीव भी अचानक चले गए. इनकी ट्रेनिंग ही नहीं हो पाई है."
वक्त के साथ साथ दक्षिण एशिया में लोकतंत्र में परिवारों का दबदबा घटा है और नए चेहरे राजनीति में आए हैं.
क्या ये दोनों नेता इस चुनौतीपूर्ण वक्त में अपने अपने परिवारों की प्रासंगिकता बरकरार रख पाएंगे? ये बड़ा सवाल होगा.
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