चौहद अप्रैल 2015. डॉक्टर भीम राव अंबेडकर की 125 वीं जयंती है. और अपने 125 वें जन्मदिन पर डॉक्टर अंबेडकर कई राजनैतिक समीकरणों में उलटफेर कर सकते हैं.
डॉक्टर अंबेडकर की विरासत को लेकर नए सिरे से रस्साकशी होनी है. मुकाबला तिकोना है. बीजेपी, कांग्रेस और बसपा. सवाल यह है कि यह युद्ध देश की राजनीति को किस तरह प्रभावित करेगा?
सतही तौर पर देखें, तो टक्कर बीजेपी और बसपा में होगी. क्योंकि बीजेपी और संघ डॉक्टर अंबेडकर के इतिहास की चर्चा करेंगे, और वहां कांग्रेस के पास कोई ख़ास जवाब नहीं होगा.
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संगठनात्मक कमजोरी और अन्य कारणों से भी कांग्रेस के अभियान से कोई विशेष परिणाम निकलने की उम्मीद नहीं है. लेकिन गहराई से देखें, तो इस घटनाक्रम के परिणाम दूरगामी हो सकते हैं.
पहले नजर डालते हैं संघ-बीजेपी की रणनीति पर. बीजेपी ही नहीं, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी डॉक्टर अंबेडकर की 125 वीं जयंती बड़े पैमाने पर मनाने की तैयारी कर चुका है.
संघ के मुखपत्रों- 'पाञ्चजन्य' और 'ऑर्गनाइज़र' ने डॉक्टर अंबेडकर पर विशेषांक तैयार किए हैं, जिन्हें 14 अप्रैल को प्रकाशित किया जाएगा.
संघ को लगता है कि डॉक्टर अंबेडकर को जातियों की सीमा में बांधना और उन्हें मात्र दलित मसीहा के तौर पर पेश किया जाना, उनके साथ अन्याय है.
अंबेडकर प्रेम
संघ का अंबेडकर प्रेम नया नहीं है. संघ के एक प्रमुख नेता और विचारक रहे दत्तोपंत ठेंगड़ी स्वयं डॉक्टर अंबेडकर के करीबी रहे हैं.
वे उनके चुनाव एजेंट भी रहे और उन्होंने डॉक्टर अंबेडकर पर एक किताब भी लिखी थी, जो दस साल पहले प्रकाशित हुई थी.
इसी तरह संघ के मौजूदा सह सर कार्यवाह डॉक्टर कृष्ण गोपाल और संघ के कुछ अन्य बड़े नेताओं ने भी डॉक्टर अंबेडकर पर किताबें लिखी हैं.
वास्तव में संघ ने डॉक्टर अंबेडकर से जुड़ी सामग्री के संकलन का फ़ैसला कई साल पहले कर लिया था. अंतर बस यह है कि इसके पहले डॉक्टर अंबेडकर के प्रति संघ के विचार अनसुने कर दिए जाते रहे हैं.
सोशल इंजीनियरिंग
सरकार ने भी डॉक्टर अंबेडकर का एक स्मारक बनाने के लिए पिछले साल दिसम्बर में ही 100 करोड़ रुपये आवंटित कर दिए थे.
बीजेपी भी डॉक्टर अंबेडकर की जयंती बड़े पैमाने पर मनाने जा रही है. ब्लॉक स्तर पर और साल भर. सरकारी कार्यक्रमों और योजनाओं की झड़ी लगाई जाएगी, सो अलग.
इसका क्या असर होगा? संघ-बीजेपी का अभियान डॉक्टर अंबेडकर को दलित आइकॉन के बजाए एक हिन्दू आइकॉन या राष्ट्रप्रेमी आइकॉन के रूप में स्थापित करने की दिशा में है.
सरल शब्दों में कहें, तो यह विचारधारा के स्तर पर सोशल इंजीनियरिंग है. यह स्थिति संघ की विचारधारा को दो ढंग से जंचती है.
प्रतीक पुरुष
इससे एक तो उन जातिवादी धारणाओं को कमज़ोर करने में मदद मिलती है, जो हिन्दू एकता के संघ के लक्ष्य में बाधा बनती है. और दूसरे इसे जितनी ज़्यादा चुनौती दी जाएगी, सामाजिक मंथन उतना ही संघ के अनुकूल होता जाएगा.
अब देखें कांग्रेस का कार्यक्रम. बीजेपी के इस अभियान के जवाब में कांग्रेस भी साल भर डॉक्टर अंबेडकर की जयंती मनाएगी.
शुरुआत डॉक्टर अंबेडकर की जन्मस्थली महू (मध्यप्रदेश) से कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी करेंगी. अगर राहुल गांधी तब तक छुट्टी से लौट आए, तो वो भी महू पहुंचेंगे.
कांग्रेस ने इसके लिए 21 सदस्यों की समिति बनाई है, जिसकी अध्यक्ष सोनिया गांधी हैं और सह-अध्यक्ष राहुल गांधी हैं.
बड़ा सवाल. क्या बीजेपी की रणनीति कांग्रेस को उन सारे प्रतीक पुरुषों को अपनाने के लिए मजबूर करने की है, जिन्हें कांग्रेस बहुत पहले ही दफ़ना चुकी थी.
गांधी परिवार से इतर
अगर देर-सबेर कांग्रेस को नेहरू वंश से परे कई सारे ऐतिहासिक नेताओं को महान कह कर अपनाना पड़ जाता है, तो इससे उसकी एक परिवार पर आधारित राजनीति ही डगमगा जाती है.
कांग्रेस के दिल में झांक कर देखें, तो वह भूमि अधिग्रहण अध्यादेश के लिए मोदी सरकार की बेहद-बेहद शुक्रगुज़ार रही होगी.
इस आईपीएल युग में उसे खेलने के लिए आखिर एक तो ऐसी गेंद मिली, जिस पर आड़ा बल्ला लगाने से कांग्रेस का स्कोर बढ़ता था.
वरना अत्याचार की हद यह थी कि कांग्रेस को ऐसे लोगों को अपना नेता कहना पड़ रहा था जो न नेहरू थे, न गांधी और न ही परिवार के पूर्वज या वंशज.
लेकिन बात अगर पटेल और पंडित मदनमोहन मालवीय तक सीमित रहती, तो भी शायद चल जाता. अब तो बात पीवी नरसिंहराव और डॉक्टर बीआर अंबेडकर तक जा पहुंची है.
बसपा की मुश्किल
अंबेडकर और नेहरू के विरोध भावों को दिखाने वाला लंबा इतिहास है.
शायद इस कारण कांग्रेस की पूरी कोशिश होगी कि 19 अप्रैल को, माने जल्द से जल्द और राहुल गांधी के लौटते ही, देश का ध्यान डॉक्टर अंबेडकर से हटकर वापस भूमि अधिग्रहण अध्यादेश पर पहुंच जाए.
अगर ऐसा नहीं हुआ, तो इससे कांग्रेस की उस राजनैतिक जमीन का अधिग्रहण हो सकता है, जो कांग्रेस के किसी संभावित पुनर्जीवन के लिए बेहद ज़रूरी है.
लेकिन शायद कांग्रेस अपने पुनर्जीवन के लिए उतनी गंभीर नहीं है, और इसी कारण कांग्रेस से ज़्यादा डर बहुजन समाज पार्टी को है.
मायावती ने डॉक्टर अंबेडकर की जयंती बड़े पैमाने पर मनाने की कांग्रेस और बीजेपी की योजनाओं को 'बेईमानी' करार दिया है.
वोट बैंक
मायावती का कहना है कि यह सिर्फ 2017 में होने वाले उत्तरप्रदेश विधानसभा के चुनावों में उनके दलित वोट बैंक को हथियाने की कोशिश है.
दलित वोट बैंक दरकने के संकेत पहले ही दे चुका है. जवाब में मायावती भी 15 अप्रैल को लखनऊ में बड़ी रैली करने जा रही हैं.
अब देखते हैं, इस खींचतान का बसपा पर असर. बहुजन समाज पार्टी या मायावती न केवल स्वयं को दलित वोटों का एकमात्र स्वामी मानकर चल रही थीं.
बल्कि दीर्घकालिक रणनीति के तौर पर धीरे-धीरे डॉक्टर अंबेडकर के स्थान पर पहले कांशीराम और फिर खुद मायावती को सबसे बड़े दलित प्रतीक चिह्न के तौर पर स्थापित करने की कोशिश करती जा रही थीं.
सफल कोशिश
इरादा अपना स्थायी कैडर तैयार करने का और अपने वोट बैंक को दूसरे दलों की सेंध से बचाकर चलने का था.
अब उन्हें वापस डॉक्टर अंबेडकर की ओर लौटना पड़ेगा. "बाबा तेरा मिशन अधूरा..." अब कांशीराम या बहनजी नहीं, खुद बाबा की जयकार से ही पूरा होगा.
बसपा के लिए दूसरा ख़तरा भी है. बड़ी मुश्किल से वह तिलक-तराजू-तलवार विरोधी छवि से बाहर निकली थी और पिछले सालों में उसने ब्राह्मणों के एक वर्ग को अपने साथ लाने की सफल कोशिश भी की थी.
ऐसी कोशिश "कैप्टिव वोट बैंक" की मौजूदगी में ही सफल हो पाती है. अब, इस बार के लोकसभा चुनाव से, एक तो वोट बैंक उस तरह 'कैप्टिव' नहीं रह गया, और दूसरे उस पर भी हमले हो रहे हैं.
विरासत
अब अगर बसपा उसे बचाने के लिए वापस तिलक-तराजू-तलवार के स्तर पर उतरती है, तो उसके लिए अतिरिक्त वोट जुटाना मुश्किल हो जाएगा.
और अगर वह नहीं करती है, तो डॉक्टर अंबेडकर की विरासत पर उस अकेले का हक नहीं रह जाएगा.
तो बाबा का अधूरा मिशन कौन पूरा करेगा? 14 अप्रैल से 19 अप्रैल तक का समय इसके लक्षण दिखाने लगेगा. देखते हैं.
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