त्रिकालदर्शियों, मनीषियों और भारत के विधिवेत्ताओं ने जब भी 'भारत रत्न" के लिए सोचा होगा तो उनके मनोमस्तिष्क में अटल बिहारी वाजपेयी जरूर रहे होंगे। वाजपेयी का व्यक्तित्व वास्तव में अब 'भारत रत्न" से कहीं ज्यादा विराट हो गया है। वे दल विशेष, क्षेत्र विशेष, वर्ग विशेष, जाति या धर्म के राजनेता मात्र नहीं रहे। वे देश या काल विशेष के नेता हो गए हैं। वे जितने कोमल, सरल, सरस, सहृदय हैं, समय आने पर उतने ही दृढ़ और सख्त भी दिखे।
वाजपेयी आजीवन दलगत राजनीति से ऊपर उठकर रहे। अपने दल और विचारधारा के प्रति प्रतिबद्धता को उन्होंने कभी भी दलगत या विरोधी के प्रति द्वेष की सियासत में तब्दील नहीं होने दिया। इसीलिए वे सर्वस्वीकार्य नेता और अजातशत्रु के तौर पर जाने गए। स्वीकार्य क्यों न भी हों, जो व्यक्ति बलरामपुर की तपती दोपहरी से लेकर ग्वालियर की कड़कड़ाती ठंड में साइकिल पर निकल पड़ता हो, जिसने भारत की आत्मा को आत्मसात किया हो, चेन्न्ई में मरीना बीच में उसी जोश से, उसी भावात्मा के साथ मिलता हो, उसके लिए भारत में कोई बंधन नहीं था।
वह जितने वज्र रहे हैं, उतने ही सरस भी। जब दृढ़ता की जरूरत पड़ी तो पोखरण-2 था। उनको मालूम था कि प्रतिबंध आएंगे। मगर डरे नहीं। कश्मीर गए तो उन्होंने कहा कि इंसानियत से ही काम चलेगा। वास्तव में लोकतंत्र के असली वाहक वे ही हैं। लोकतंत्र उन्हीं जैसी जिजीविषा शक्ति का परिचायक है। नेता और राजनेता तो बहुत हैं, लेकिन अटल जैसा व्यक्तित्व पैदा करने में नियति को भी युग लगेंगे।
उनकी सदाशयता पर कोई संदेह नहीं किया जा सकता। वाजपेयी की इस विरासत को शायद कोई भी हासिल नहीं कर सकता। उनके ऊपर कोई प्रतिद्वंद्विता का प्रहार भी नहीं किया जा सकता। व्यक्तिगत संबंधों को भी सम्मान देने का सबसे बड़ा उदाहरण उनके धुरविरोधी रहे चंद्रशेखर के लिए बलिया सीट से कभी भाजपा प्रत्याशी न खड़ा करना है। दोस्तों के वे दोस्त हैं, यह बात सभी दलों के नेता बिना किसी हिचक के कहते हैं।
राष्ट्रीय मुद्दों पर कभी उन्होंने दल या विचार को आड़े नहीं आने दिया। यही कारण था कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ या जनसंघ के विरोधी रहे देश् के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरूहों या फिर इंदिरा गांधी या फिर नरसिंह राव, सभी ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जब देश के प्रतिनिधित्व की बात आई तो अटल को अनदेखा कभी नहीं किया। यहां तक कि अब जब केंद्र में भाजपा की ही सरकार है तो उसको भी आईना दिखाने के लिए विरोधी दल सिर्फ अटलजी से ही तुलना करते हैं। यह सब इस बात का द्योतक है कि गैरभाजपा दलों के नेताओं के दिलों में भी अटल बिहारी वाजपेयी कितने गहरे उतरे हुए हैं।
वाकपटु और बिना किसी आक्रामकता के राजनीतिक मुद्दों पर संसद से लेकर सड़क तक वाजपेयी जितने प्रभावशाली और शक्तिशाली वार करते थे, उसकी मिसाल हर दल का सियासतदां देता है। ओजस्वी वक्ता होने के साथ-साथ उनके 'वन लाइनर" यानी एक लाइन में ही बड़ी-बड़ी बातें कह देने की उनकी अद्वितीय क्षमता और अदा का पूरा हिंदुस्तान ही नहीं, दुनिया कायल रही है। जटिल या तनावपूर्ण हालात में भी तर्कशील और कम शब्दों में दिल तक पैवस्त करने वाली उनकी पंक्तियां पूरा माहौल बदलने की क्षमता रखती थीं।
कारगिल युद्ध के अरसे बाद भारतीय क्रिकेट टीम जब पाकिस्तान में टेस्ट और वनडे श्रृंखला खेलने जा रही थी तो दोनों ही देशों के बीच भावनाएं चरम पर थीं। मगर वाजपेयी ने अपने दो जुमलों से ही पूरा माहौल हल्का कर दिया। उन्होंने खुद से मिलने आई भारतीय टीम से कहा कि 'क्रिकेट खेलने जा रहे हैं, युद्ध के मैदान में नहीं। मैच भी जीतो, दिल भी जीतो।"
उनके विशाल हृदय और साफगोई का गवाह मैं खुद भी हूं। पहली बार जब 13 दिन की सरकार बनी तो मैंने अपने आईएनएस दफ्तर से उनको फोन किया। मैंने कहा कि 'बधाई और मिठाई..।" वाक्य पूरा भी नहीं कर पाया था कि अटल ने इसे पूरा किया 'बधाई, मिठाई और विदाई..।" कुल मिलाकर वे इस ताजपोशी का अंजाम जानते थे और उससे जरा-भी चिंतित नहीं थे। ऐसे कई क्षणों के मेरे समेत तमाम लोग गवाह बने हैं। इसीलिए, जब मोदी सरकार उनको 'भारत रत्न" दे रही है तो लगता है कि वास्तव में 'भारत रत्न" का ही सम्मान हो रहा है।
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