Wednesday, 15 April 2015

नरेंद्र मोदी, सेक्युलरिज़्म और संस्कृत @सिद्धार्थ वरदराजन

नरेंद्र मोदी ने मई में जबसे प्रधानमंत्री का कार्यभार ग्रहण किया है, तबसे उन्होंने दो मौकों पर भारत के धर्मनिरपेक्ष लोगों और धर्मनिरपेक्षता की आलोचना की है या हंसी उड़ाई है.
हैरानी की बात है कि उन्होंने ऐसा हर बार विदेशी ज़मीन पर प्रवासी भारतीयों के बीच किया.
पिछले साल टोक्यो में उन्होंने कहा था कि जापान के किंग को उनके द्वारा गीता दिए जाने से भारत में विवाद पैदा होने की संभावना है.
उन्होंने दवा किया था, “हमारे सेक्युलर दोस्त तूफ़ान खड़ा कर देंगे कि मोदी खुद को क्या समझते हैं?...वो अपने साथ गीता ले गए, इसका मतलब है कि उन्होंने इसे भी साम्प्रदायिक बना दिया!”
अब बर्लिन में प्रधानमंत्री ने ख़बरों की भाषा संस्कृत होने को नज़रअंदाज़ किए जाने के लिए सेक्युलरवाद को ज़िम्मेदार ठहराया है.

पढ़ें पूरा विश्लेषण

नरेंद्र मोदी
एनडीटीवी ने प्रधानमंत्री के हवाले से कहा है, “एक समय था जब जर्मन रेडियो अक्सर संस्कृत में बुलेटिन प्रसारित करता था...लेकिन भारत में ये नहीं हुआ...यहां सेक्युलरिज़्म पर इतना हो हल्ला है कि संस्कृत तक को विवादों में घसीट डाला गया.”
मोदी यहां तक सुझाव देने चले गए कि, “संस्कृत और सेक्युलरिज़्म का साथ साथ सम्मान नहीं हो सकता. भारत का सेक्युलरिज़्म इतना कमजोर नहीं है कि यह केवल भाषा को लेकर हिल जाएगा.”
इस साल की शुरुआत में उनकी सरकार ने ग्रीनपीस की प्रिया पिल्लई को रोकने के लिए सारे हथकंडे अपना डाले. पिल्लई लंदन जाने वाली थीं और वहां एक भारतीय खनन परियोजना की विदेशी श्रोताओं के बीच आलोचना करने वाली थीं.
तो क्या विदेश में रहते हुए सेक्युलरिज़्म को निशाना बनाना मोदी का पाखंड नहीं है? जबकि सेक्युलरिज़्म भारतीय राजनीति और संविधान के मूल सिद्धांत हैं.

बहस हो पर...

ग्रीन पीस
यदि एक खनन परियोजना की आलोचना या विकास की नीति की आलोचना करना ‘भारत विरोधी’ है तो सेक्युलरिज़्म की आलोचना करना क्यों ‘भारत विरोधी’ नहीं है?
ट्विटर पर यह दावा करते हुए, मोदी भक्त उनके बचाव में दौड़ पड़े कि प्रधानमंत्री ने सेक्युलरिज़्म पर हमला नहीं बोला है, बल्कि छद्म सेक्युलरिज़्म और सिक-ल्यूरिस्टों (sickularists) की ख़बर ली है.
लेकिन ग्रीनपीस भी आसानी से कह सकता था कि वो भी 'छद्म-विकास' और 'कार्पोरेट ठगी' को निशान बना रहा है, न कि देश के असली विकास के नज़रिए को, जैसा कि सरकार ने आरोप लगाया है.
जहां तक मेरा विचार है, मैं हर स्वस्थ बहस का स्वागत करता हूँ, चाहे वो कहीं पर भी हो. यदि प्रधानमंत्री और प्रिया पिल्लई महान खनन परियोजना या संस्कृत और सेक्युलरिज़्म के संबंधों पर लंदन, बर्लिन या दिल्ली में बहस करना चाहते हैं तो, तो होने दीजिए.

रेडियो पर संस्कृत

बीबीसी रेडियो
लेकिन ज़रा तथ्यों की बात कर ली जाए. जर्मनी ने 1950 के दशक में गैर जर्मन भाषी लोगों के लिए डॉयचे वेले नामक एक भाषाई प्रोग्राम शुरू किया था. 1960 के दशक में उसने अपने प्रसारणों में संस्कृत को भी शामिल कर लिया, जिसे भारत में कुछ जगहों पर प्रसारित किया गया था.
उसने ऐसा क्यों किया? शायद वो ऐसे समय में अपनी विशेषता में वृद्धि करना चाह रहा था, जब भारतीय श्रोता अक्सर बीबीसी, रेडियो मॉस्को या यहां तक कि रेडियो सीलोन को ही सुनते थे.
यह तथ्य है कि संस्कृत में अकादमिक काम में जर्मनी का एक लंबा अनुभव रहा है और इसलिए इस काम को करने में उसे आसानी हुई.
अब आईए भारत को देखें. यहां 1956-57 में सेक्युलर नेहरू सरकार ने एक आधिकारिक संस्कृत आयोग का गठन किया, जिसने निजी और सार्वजनिक तौर पर संस्कृत को बढ़ावा देने के लिए कई सारे सुझाव दिए थे.

सेक्युलरवाद और कांग्रेस

नेहरू और इंदिरा गांधी
ऑल इंडिया रेडियो के पुराने लोगों के अनुसार, हालांकि, सरकारी मीडिया में संस्कृत बुलेटिन 1974 में शुरू हो पाया और उस समय इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं.
यह लगभग वही समय है जब कांग्रेस के नेता संविधान की प्रस्तावना में ‘सेक्युलर’ शब्द जोड़ने के लिए संशोधन कराने में व्यस्त थे.
सेक्युलरिज़्म या छद्म सेक्युलरिज़्म जब अतीत में संस्कृत प्रसारणों को रोक सका या नहीं रोक पाया, तो हम कुछ हद तक ये यक़ीन के साथ कह सकते हैं कि ऐसा नहीं लगता कि 1974 के बाद से इस बारे में कोई रुकावट रही है.
तो वो क्या था जिसने मोदी को ऐसी विदेश यात्रा के दौरान सेक्युलरिज़्म और संस्कृत पर बहस को शुरू करने के लिए प्रेरित किया, जिसका मुख्य उद्देश्य था ‘मेक इन इंडिया’ को प्रमोट करना?

मोदी को कितनी चिंता?

मोदी को कितनी चिंता
क्या यह इसलिए हुआ कि पिछले साल उन्हीं की सरकार ने आनन फानन में केंद्रीय विद्यालयों में शिक्षा सत्र के बीच ही जर्मन की जगह संस्कृत पढ़ाने का आदेश जारी कर दिया था और इसकी वजह से बहुत विवाद खड़ा हुआ था.
क्लासिकल भाषाएं हमारी राष्ट्रीय विरासत के खजाने का हिस्सा हैं. संस्कृत भले ही अब न बोली जा सके, लेकिन इस भाषा का साहित्य विशाल है जबकि, अभी तक इसके एक हिस्से का ही अनुवाद हो पाया है.
लेकिन मोदी को इस अहम राष्ट्रीय लक्ष्य को हिंदुत्व और सेक्युलरिज़्म के साथ लड़ाई के साथ घालमेल बिल्कुल नहीं करना चाहिए.
आप जंग में हर तरीक़े अख़्तियार करें, लेकिन कृपया संस्कृत को मोहरा न बनाएं.

No comments:

Post a Comment