Saturday, 4 April 2015

गांधीकथा के एक पात्र की गाथा @रामचन्द्र गुहा

नारायण देसाई हमें महात्मा गांधी से जोड़ने वाली आखिरी जीवित कड़ी थे। उनका गांधीजी से बहुत घनिष्ठ संपर्क रहा था। नारायण देसाई गांधीजी के प्रतिभावान सचिव महादेव देसाई और उनकी पत्नी दुर्गा की अकेली संतान थे। उनका जन्म दिसंबर 1924 में हुआ था। सन 1936 में जब सेवाग्राम आश्रम की स्थापना हुई, तो महादेव देसाई सपरिवार वहीं बस गए और नारायण भाई सेवाग्राम आश्रम में ही बढ़े-पले। सन 1933-34 की सर्दियों में गांधीजी ने दक्षिण और पूर्व भारत का अस्पृश्यता विरोधी दौरा किया। जब वह उड़ीसा (अब ओडिशा) पहुंचे, तो गांधीजी और महादेव भाई की पत्नियां भी वहां आ गईं। दिन भर पुरुष छुआछूत के खिलाफ प्रचार करते, ग्रामीण इलाकों में घूमते और रात में शिविरों में आते, जहां उनकी पत्नियां उनका इंतजार कर रही होतीं।

एक दिन कस्तूरबा और दुर्गा को यह पता लगा कि पुरी का जगन्नाथ मंदिर उनके शिविर से कुछ ही मील दूर है। उन्होंने मंदिर जाने का फैसला किया। जब कस्तूरबा गांधी और दुर्गा देसाई पुरी के लिए निकल रही थीं, तो नौ साल के नारायण ने उन्हें रोकने की कोशिश की। नारायण देसाई ने कहा कि उनके मंदिर जाने से बापू बहुत नाराज होंगे, क्योंकि मंदिर के पुजारी अछूतों को मंदिर नहीं आने देते। वे फिर भी चली गईं। जब वे जगन्नाथ के दर्शन करके शिविर लौटीं, तो नारायण ने गांधीजी को बताया कि क्या हुआ था। गांधीजी कस्तूरबा से बहुत नाराज हुए। उन्होंने कहा कि वे हिंदुओं की छुआछूत छोड़ने को कैसे कह सकते हैं, जबकि खुद उनकी पत्नी छुआछूत का पालन करने वाले मंदिरों में जाती हों? महादेव देसाई ने एक बार मजाक में कहा था कि किसी संत के साथ स्वर्ग में रहना दिव्यता और आनंद की बात है, लेकिन उनके साथ धरती पर रहना अलग मामला है। गांधीजी का सचिव होना बहुत मुश्किल काम था और गांधीजी की पत्नी होना उससे भी ज्यादा मुश्किल। अगर कस्तूरबा जगन्नाथ मंदिर जाने का इकलौता मौका नहीं छोड़ना चाहती थीं, तो उनसे सहानुभूति हो सकती है।

दूसरी तरफ,  गांधीजी से भी सहानुभूति होती है, क्योंकि वह चाहते थे कि पहले उनका परिवार सामाजिक सुधारों को स्वीकार करे। अगस्त 1942 में गांधीजी ने भारत छोड़ो का नारा दिया। उन्हें गिरफ्तार करके अपनी पत्नी और सचिव के साथ आगा खां महल में बंद कर दिया गया। एक हफ्ते बाद 15 अगस्त को दिल के दौरे से महादेव भाई की मौत हो गई। इस बीच उनके 18 साल के बेटे ने लाखों दूसरे भारतीयों की तरह आजादी के लिए गिरफ्तारी दी थी। जब भारत आजाद हुआ, तो कई जेल यात्री मंत्री और सांसद हो गए। नारायण देसाई उन चंद स्वतंत्रता सेनानियों में शामिल थे, जिन्होंने रचनात्मक कार्य करने का फैसला किया। उनकी पत्नी उत्तरा उड़ीसा के महान गांधीवादी नवकृष्ण और मालती चौधरी की बेटी थीं। पति-पत्नी ने दक्षिण गुजरात के वेडछी में आदिवासी बच्चों के लिए एक स्कूल स्थापित किया। सामाजिक कार्यकर्ता की तरह नारायण देसाई ग्रामीण शिक्षा और भूदान में सक्रिय रहे। वह भारत के परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम के बहुत शुरुआती आलोचकों में से एक थे। परमाणु बम बनाने की क्षमता की वजह से परमाणु ऊर्जा आयोग से राजनेता बहुत प्रभावित रहते हैं।

नारायण देसाई का कहना था कि इसी वजह से शांतिपूर्ण परमाणु कार्यक्रम को जांच से अलग नहीं रखा जा सकता। वह मानते थे कि परमाणु ऊर्जा कतई किफायती नहीं है और वह इस जटिल तकनीक के स्वास्थ्य व पर्यावरण पर असर को लेकर आशंकित थे। जो सवाल उन्होंने 30 साल पहले उठाए थे, वे अब तक परमाणु ऊर्जा संस्थानों ने हल नहीं किए हैं। सन 1990 के दशक में उनके मित्र महेंद्र देसाई ने नारायण देसाई को सामाजिक कार्यों से छुट्टी लेने के लिए प्रेरित किया। हालांकि दोनों देसाई रिश्तेदार नहीं थे,  लेकिन दोनों ही साबरमती आश्रम में बढ़े-पले थे। महेंद्र के पिता वालजी देसाई महादेव भाई के भी पहले से गांधीजी के सहयोगी थे।

राजाजी, पटेल, नेहरू या आजाद के मुकाबले महादेव भाई गांधीजी के ज्यादा करीब थे, लेकिन उन्होंने अपने को प्रचार से दूर रखा था। महेंद्र के आग्रह पर नारायण देसाई ने अपने पिता की जीवनी लिखी। यह जीवनी लेखक, विद्वान,यायावर और देशभक्त महादेव देसाई के कई आयामों को उद्घाटित करती है। मूल गुजराती किताब को साहित्य अकादमी पुरस्कार भी मिला है। इसकी सफलता से प्रेरित होकर नारायण देसाई ने गांधीजी की भी एक जीवनी लिखी। यह गांधी को करीब से जानने वाले एक व्यक्ति के अनुभव तो हैं ही, लेकिन इसके आखिर में नारायण भाई ने हमारे वक्त में गांधीजी की प्रासंगिकता को व्यक्त किया है। वह लिखते हैं ‘जो नौजवान पुरुष व महिलाएं दुबचेक के नेतृत्व में चेकोस्लोवाकिया में रूसी टैंकों के सामने सीना तानकर खड़े हो गए थे, जो काले और गोरे लोग वियतनाम युद्ध के समय फूल लेकर पेंटागन के सामने खड़े हुए थे.. कर्नाटक में कायगा में एक परमाणु संयंत्र की नींव में कूदकर जान देने वाली बहादुर महिलाएं गांधीजी के सत्याग्रह के प्रतीक हैं।’

फरवरी-मार्च, 2002 में गुजरात के दंगे हुए। मुझे एक वयोवृद्ध गांधीवादी ने कहा कि यह गांधीजी की दूसरी बार हत्या हुई है। नारायण देसाई अपने राज्य में हुए इस नरसंहार से बहुत विचलित हुए। उन्होंने सोचा कि इस उम्र में वह किसी आंदोलन का नेतृत्व तो नहीं कर सकते, इसलिए उन्होंने इस दौर में गांधीजी के आदर्शों को फिर से कहने का फैसला किया। सन 2002 तक नारायण देसाई के चार स्वरूप थे: आश्रमवासी, स्वतंत्रता सेनानी, सामाजिक कार्यकर्ता और लेखक। अब उन्होंने एक पांचवां रूप धारण किया, कथावाचक का। उन्होंने गांधीकथा की रचना की। इसमें उन्होंने कविता, गीत और कहानियों के माध्यम से गांधीजी के जीवन और संदेश को श्रोताओं तक पहुंचाया।

उनकी यह कथा दूर-दूर तक लोकप्रिय हुई और अब डीवीडी पर भी उपलब्ध है। जैसे कि नारायण देसाई के घनिष्ठ सहयोगी और अनुवादक त्रिदीप सुहृद ने लिखा है कि गांधीकथा आस्था का ही दूसरा नाम है। वह सत्य, अहिंसा, सर्वधर्म समभाव और आधुनिक समाज में विवाद सुलझाने के लिए संवाद के महत्व में आस्था जगाती है। मैं एक व्यक्तिगत अनुभव के साथ इसे खत्म करना चाहता हूं। सन 2007 में मैंने सेवाग्राम में एक बैठक में हिस्सा लिया, जिसे संस्कृति मंत्रालय ने गांधी धरोहर को चिन्हित करने के उद्देश्य से बुलाया था। बैठक की अध्यक्षता नारायण देसाई कर रहे थे, तो मंत्रालय के एक अधिकारी ने हम सबको टीएडीए के लिए फॉर्म दिए। जब हम सब अपनी हवाई यात्राओं का ब्योरा लिख रहे थे, तब नारायण भाई ने फॉर्म किनारे खिसका दिए। उन्होंने उस अधिकारी से कहा कि वह अपने स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के पास से अहमदाबाद से मुंबई होते हुए सेवाग्राम आए हैं। जब उस अधिकारी ने उनसे कहा कि वह कम से कम वर्धा स्टेशन से सेवाग्राम तक का टैक्सी का किराया तो ले सकते हैं। नारायण भाई ने कहा कि यह यात्रा उन्होंने बस से की है और उन्होंने जोड़ा, ‘क्या किसी को अपने घर आने के लिए भुगतान लेना चाहिए?’

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