भारत का मध्यवर्ग, जो राजनीति में नैतिक शक्ति और सार्थक बदलाव का पक्षधर है, इस समय भारी सदमे में है। दिल्ली विधानसभा के हाल ही में संपन्न् हुए चुनावों में जिस तरह से दिल्ली की आम जनता ने भारतीय जनता पार्टी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अस्वीकार किया, उससे यह विश्वास बना था कि भारतीय मतदाता परिपक्व है, भारत में लोकतंत्र मजबूत है और लोग पारदर्शितापूर्ण और जिम्मेदार सरकार चाहते हैं। लेकिन आम आदमी पार्टी में जिस तरह से सार्वजनिक विवाद, गाली-गलौज और टीवी माध्यमों के सामने दोफाड़ हुई है, उससे दोनों धड़ों का नुकसान तो तय है, बदलाव की एक नई राजनीति की संभावनाओं को भी झटका लगा है। जनता एक बार फिर ठगी हुई और परास्त महसूस कर रही है।
क्या यह स्वराजवादियों बनाम कुजात-लोहियावादियों का वैचारिक मतभेद है? क्या यह शुभ की शक्ति बनाम अशुभ की शक्ति में चलने वाले निरंतर संघर्ष का रूप है? या एक आंदोलन से बने संगठन और बाद में बनी सरकार के ऐसे नेताओं-कार्यकर्ताओं की कहानी है, जिनमें एक-दूसरे के प्रति इतना अविश्वास था कि वे डंक मारने (स्टिंग ऑपरेशन) को हमेशा तत्पर रहते थे। गुप्त रिकॉर्डिंगों के इस दौर में सबसे खतरनाक रिकॉर्डिंग उमेश सिंह की साबित हुई, जिन्होंने दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के श्रीमुख से ऐसी भाषा का उपयोग देश के प्रबुद्धजनों को सुनवाया, जिसकी उन्हें आशा नहीं थी। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय और बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष प्रो. आनंद कुमार आम आदमी पार्टी के लोकसभा चुनाव प्रत्याशी भी थे। समाजशास्त्री प्रो. कुमार वह चुनाव हार गए थे। देश में समाजवादी आंदोलन के दौरान प्रासंगिक विचारों का प्रसार करने वाले इस मृदुभाषी के खिलाफ जिस भाषा का प्रयोग अरविंद केजरीवाल ने किया, उससे लगा कि वे 'जर्मनविंग्स" के उस सह-पायलट की तरह हैं, जिसने अपने विमान को ही गिराकर न केवल आत्मघात किया, बल्कि अनेक निर्दोष यात्रियों की भी नाहक ही जान ले ली।
आम आदमी पार्टी भारतीय राजनीति में विकल्प की पार्टी में रूप में उभरी थी। यह भ्रष्टाचार के खिलाफ गोलबंद हुए युवाओं, सेकुलरों और निम्न-मध्यवर्ग के सपनों की पार्टी बनी। दिल्ली के गरीब-गुरबे भी उसे अपनी पार्टी मानते हैं, क्योंकि वह उन्हें सुरक्षा और बिजली-पानी में राहत देने की बात करती है। यह भी माना गया था कि आंतरिक लोकतंत्र की वकालत करने वाली यह पार्टी लोकतांत्रिक है, पारदर्शी है और बुद्धिजीवियों को विशेष पसंद है।
भारत की राजनीति में सिद्धांतकार और बुद्धिजीवी अमूमन हाशिये पर ही रहे हैं। आजादी के आंदोलन में जरूर 'परदेस-पलट" वकीलों ने हिस्सा लिया था। समाजवादी आंदोलन में आचार्य नरेंद्र देव, डॉ. राममनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण ने उच्च शिक्षा ग्रहण की थी। पर कालांतर में 'सुप्रीमो-संस्कृति" विकसित होने के कारण बुद्धिजीवियों को केवल घोषणापत्र बनाने के लिए रखा जाने लगा। जनता पार्टी, जो आपातकाल के अत्याचारों के बाद विपक्षी दलों के तपे-तपाए नेताओं की पार्टी थी, बुद्धिजीवियों (वकील, प्राध्यापक, पत्रकार) को महत्ता देती थी, लेकिन सत्ता में आने के बाद इसी पार्टी ने मधु लिमये, सुरेंद्र मोहन और अरुण शौरी को दरकिनार कर दिया। किसी भी राष्ट्रीय पार्टी की कार्यकारिणी में सिर्फ अंतिम स्थान पर उन्हें बमुश्किल जगह मिलती। ऐसे में यूपीए-2 में फैले भ्रष्टाचार के खिलाफ जब नागरिक असंतोष बढ़ने लगा तो एनजीओ और थिंक टैंकों में चले गए बुद्धिजीवी फिर से मुख्यधारा में आने की कोशिश करने लगे।
लेकिन चुनावों का गणित एक अलग समीकरण है। आम आदमी पार्टी को मान्यता आंदोलन के जरिये मिली और जिस तरह से नामी वकील प्रशांत भूषण ने सुप्रीम कोर्ट में जन अधिकार अपीलों को माध्यम बनाकर टेलीकॉम, कोयला जैसे क्षेत्रों में होने वाले सरकारी भ्रष्टाचार को सार्वजनिक किया, उससे आम आदमी पार्टी बुद्धिजीवियों में, खासतौर पर स्वतंत्र वामपंथियों में चर्चित हो गई। चुनाव के लिए नेता के रूप में अरविंद केजरीवाल का चेहरा सामने लाया गया। आंदोलन से जन्मे संगठन और चुनावी जरूरतों के लिए बने नेता ने पुरानी और जमी-जमाई राजनीति को दिल्ली में एक नहीं, दो बार सफलतापूर्वक चुनौती दी। हिंदी पट्टी की सहानुभूति भी इस पार्टी को मिली।
केजरीवाल ने अंग्रेजी के प्रयोग से दूरी बनाए रखी, लेकिन तकनीक को अपनाने में कभी कोई शर्म नहीं दिखाई। सोशल मीडिया, स्टिंग ऑपरेशन, टीवी डिबेट को उन्होंने नए राजनीतिक हथियार बना दिया। लेकिन राजनीति के पुराने घिसे-पिटे तरीकों से वे खुद को आखिरकार बचा नहीं पाए। पार्टी में अकेले वे ही सुप्रीमो हों, उनके बराबर के नेता न हों, केवल अनुयायी हों, भक्त हों, यह दिखने लगा। दिल्ली में टिकट बेचे जाने की खबरें भी आईं। कई आपराधिक इतिहास रखने वाले उम्मीदवार भी चुनाव जीत गए। फर्जी डिग्रीधारी को ही कानून मंत्री बना दिया गया। ऐसे में पार्टी में तो फूट होना ही थी। आंतरिक लोकपाल और उम्मीदवारों के चयन से लेकर चुनावी चंदा तक पार्टी के भीतर और बाहर चर्चाओं में रहा।
दिल्ली चुनावों में जीत के बाद आम आदमी पार्टी का शीर्ष नेतृत्व एक नई वैकल्पिक संरचना बनाने में जुट गया था। पहले विचारवादी पत्रकार राजनीतिक गतिविधियों से जुड़कर पार्टी में रहते थे, फिर पार्टी से हट जाने पर फिर पत्रकार बन जाते। लेकिन आम आदमी पार्टी में आने से पहले पत्रकार खासे अमीर बने और बाद में पार्टी के सदस्य। आम आदमी पार्टी ने नौकरशाहों, टीवी एंकरों व वकीलों को शीर्ष नेतृत्व दिया और अभी तक तो यह प्रयोग नाकाम रहा है।
क्या योगेंद्र यादव ने भारत में शोषण के खिलाफ चल रहे जनांदोलन को तितर-बितर किया? जिस तरह मेधा पाटकर को मुंबई में चुनाव लड़ाया गया, क्या वह सही था? क्या आम आदमी पार्टी की कोई वैचारिक प्रतिबद्धता है भी? क्या हर समस्या का निदान भ्रष्टाचार-रहित समाज है? आम आदमी पार्टी में भूषण परिवार के तीन सदस्यों (पिता-पुत्र एवं पुत्री) की संदिग्ध भूमिका नहीं थी? क्या इस दल में सत्ता-संघर्ष शुरू से ही नहीं था?
आम आदमी पार्टी में जारी सार्वजनिक तमाशे से खफा होकर नर्मदा बचाओ आंदोलन की नेत्री मेधा पाटकर ने तो पार्टी से त्यागपत्र दे दिया, लेकिन दिल्ली के विधायक कोई बड़ी बगावत नहीं कर पाएंगे। केजरीवाल समर्थक यह सोच सकते हैं कि यदि सरकार सुशासन से चले तो मतदाता पांच वर्ष बाद यह उठापटक भूल जाएंगे, लेकिन आम आदमी पार्टी की नैतिक शक्ति अब निस्तेज हो गई है। पार्टी के कार्यकर्ता निराश हैं और एक-दूसरे के प्रति अविश्वास चरम पर है। ऐसी स्थिति में यदि नए आंदोलन से उपजी नई पार्टी एक और पुरानी स्थापित पार्टी में बदल सकती है तो उसका हाल उन क्षेत्रीय दलों जैसा ही हो सकता है, जो लोकप्रियता के चलते शिखर पर पहुंचे, लेकिन आपसी अविश्वास, सत्ता-संघर्ष, अहंकार के कारण फिर से शून्य पर आ गए। केजरीवाल यदि एकछत्र होकर ही अपनी पार्टी और सरकार चलाना चाहते हैं तो देश के लोकतंत्र के लिए यह शुभ नहीं होगा। यह आम आदमी पार्टी के बुरे दिनों की शुरुआत है।
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