सुप्रीम कोर्ट ने 55 साल बाद अभिव्यक्ति की आजादी से संबंधित किसी कानून को निरस्त किया है। इससे पहले 1960 में दिग्गज समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया की पहल पर यूपी विशेष अधिकार एक्ट की धारा 3 को सुप्रीम कोर्ट ने निरस्त किया था।
मामला : 1954 में उत्तर प्रदेश की कांग्रेस सरकार ने किसानों द्वारा खेतों में सिंचाई के लिए सरकारी नहरों से लिए जाने वाले पानी की दरों को बढ़ा दिया। उस वक्त फायरब्रांड समाजवादी नेता और कांग्रेस के मुखर विरोधी राम मनोहर लोहिया ने इसका विरोध शुरू किया। सोशलिस्ट पार्टी के जनरल सेक्रेट्री लोहिया फर्रुखाबाद पहुंचे। उन्होंने सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू किया और किसानों से बढ़ी हुई सिंचाई दरों को अदा करने से मना कर दिया। इस तरह के सविनय अवज्ञा आंदोलन से निपटने के लिए अंग्रेजों ने संयुक्त प्रांत विशेष अधिकार एक्ट की धारा 3 को पास किया था। इसके तहत यदि कोई व्यक्ति देनदारी को चुकाने से मना करने के लिए यदि उकसाता है तो वह आपराधिक मामला माना जाएगा। 1932 में कांग्रेस पार्टी द्वारा टैक्स अदायगी से मना करने वाले आंदोलनों को रोकने के लिए अंग्रेजों ने यह कानून बनाया था। 1954 में उत्तर प्रदेश की जीबी पंत सरकार ने लोहिया के खिलाफ इसी कानून का इस्तेमाल किया।
आरोप-प्रत्यारोप : लोहिया ने इसके खिलाफ कोर्ट में याचिका दायर करते हुए कहा कि एक्ट की धारा 3 असंवैधानिक है क्योंकि यह उनकी अभिव्यक्ति की आजादी का हनन करती है। सरकार ने तर्क दिया कि यह जनहित में संविधान द्वारा 19(2) के तहत दी गई ‘तार्किक प्रतिबंध’ के दायरे में आता है। उनके भाषणों के कारण कानून व्यवस्था बिगड़ने का खतरा है और अशांति फैलने के साथ हिंसक प्रदर्शन हो सकते हैं।
फैसला : 1960 में सुप्रीम कोर्ट ने लोहिया के पक्ष में फैसला देते हुए कहा कि इस तरह के काल्पनिक विचारों के आधार पर व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का हनन नहीं किया जा सकता। साथ ही कोर्ट ने यह भी जोड़ा कि धारा 3 के तहत लागू किए जाने वाले प्रतिबंध का कानून व्यवस्था से कोई संबंध या करीबी लेना-देना भी नहीं है। इसलिए 19 (2) के तहत यह तार्किक प्रतिबंध लागू किए जाने की श्रेणी में नहीं आता और विवादित धारा 3 को असंवैधानिक ठहरा दिया गया।
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