मंगलवार को डॉ. भीमराव अंबेडकर के 125वें जन्म समारोह पर एक तरफ राजनीतिक पार्टियां उन्हें फूलों से श्रद्धांजलि देंगी, लेकिन कोई भी शायद यह देखने की जरूरत महसूस नहीं करेगा कि उनका एक सपना किस तरह अभी भी अधूरा पड़ा है। उनके एक महत्वपूर्ण विषय पर राज्य सरकारों की नींद टूटने का नाम नहीं ले रही है। डॉ. अंबेडकर ने दलित समाज पर थोपी गई मैला ढुलाई प्रथा का सदा विरोध किया, लेकिन आजादी के 68 साल बाद भी हमारा समाज इन कमजोर तबके के लोगों को इस कुप्रथा से आजाद नहीं करा पाया है। यह महज एक सामाजिक बुराई भर नहीं है, बल्कि हमारे लोकतंत्र पर भी सवाल उठाता है। डॉ. अंबेडकर ने एक बार यह कहा था कि भारत में किसी व्यक्ति के लिए मैला ढुलाई का कार्य उसके कर्म से नहीं जन्म से तय होता है, चाहे वह यह कार्य करे या न करे।
मैला ढुलाई मानव मल-मूत्र को हाथों से साफ करने का कार्य है, जिसमें सफाई कामगार शौचालय से मल-मूत्र को झाड़ू या टिन प्लेट से टोकरी में डालकर सामाजिक कलंक के इस प्रतीक को सिर पर ढोते हैं। भारत में जातिगत कायरें के विभाजन की परंपरा सदियों से चली आई है। विभाजन में शूद्र समुदाय के लोगों को निम्न स्तर के काम दिए जाते थे और मैला ढुलाई उसमें से ही एक कार्य था। इस कुप्रथा को खत्म करने की दिशा में पहल आजादी के बाद से शुरू हुई। 1949 में बर्वे समिति, 1955 में काका कालेकर समिति और बाद में मलकानी और पंड्या समिति ने अपने सुझाव सरकार को समय-समय पर दिए। परंतु इस दिशा में ठोस कदम 1993 में उठे जब सरकार ने एक एक्ट पास किया। इसके अंतर्गत शुष्क शौचालय बनाने या मैला ढुलाई कर्मचारी को नौकरी देने पर सजा या आर्थिक दंड का कड़ा प्रावधान था। इसके बाद भी नगर पालिका, नगर निगम, भारतीय रेलवे और रक्षा कंपनियों एवं ग्रामीण विभागों में भी यह कार्य चलता रहा। वर्तमान में भी विभिन्न सरकारी और गैर सरकारी सर्वे के अनुसार करीब 8 से 10 लाख लोग मैला ढुलाई का काम कर रहे हैं। यह आंकड़ा उन राच्य सरकारों के लिए भी शर्म का विषय है जो अभी तक मैला ढुलाई की परंपरा से पूरी तरह इन्कार कर रही थीं।
1993 के एक्ट की विफलता का एक मुख्य कारण सरकार का लघु दृष्टिकोण रहा, जो कि मैला ढुलाई को सफाई का मुद्दा मानती रही, जबकि यह सामाजिक प्रथा और जातिगत पहलू से जुड़ा मुद्दा था। सामाजिक दबाव के चलते लोग यह कार्य मजबूरी में करते रहे और जो लोग वैकल्पिक रोजगार के कार्य करने लगे उन्हें भी सामाजिक बहिष्कार झेलना पड़ा। परिणामस्वरूप वे वापस मैला ढुलाई का कार्य करने लगे। ह्यूमन राइट वाच के भी एक अध्ययन में माना गया कि दलित समाज की महिलाओं पर थोपा गया मैला ढुलाई और सफाई का कार्य सामाजिक बहिष्कार के डर से बंद नहीं हो रहा है।
अंतत: नेशनल एडवाइजरी काउंसिल के हस्तक्षेप के बाद तत्कालीन संप्रग सरकार ने माना कि यह मसला सफाई और स्वच्छता का नहीं, अपितु सामाजिक न्याय का है और तब 2013 में मैन्युअल स्कैवेंजर एक्ट पारित किया गया। 2013 का एक्ट 1993 के एक्ट से कुछ बेहतर था, क्योंकि इसमें मैला ढुलाई की परिभाषा का विस्तार कर उन सफाई कर्मचारियों को भी जोड़ा गया जो मानव मल-मूत्र को शुष्क शौचालय के अलावा इनसैनेटरी टॉयलेट, खुले गटर, सैप्टिक टैंक, रेलवे की पटरी इत्यादि जगह पर साफ करते हैं। इस परिभाषा में नगर निगम, रेलवे, आदि जगह पर भी मैला उठाने का कार्य करने वाले शामिल हो गए। इसके अलावा 2013 के एक्ट में इन लोगों की पुनर्वास योजना का एक ठोस कार्यक्त्रम भी जोड़ा गया जिसमें राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी वित्तीय विकास निगम के माध्यम से स्वरोजगार, मकान और अन्य सुविधाएं भी मुहैया कराई गईं। ऐसा इसलिए किया गया ताकि मैला ढोने वाले वर्ग को राहत मिल सके।
2013 में यह एक्ट आने के बाद भी राच्य सरकारों की उदासीनता की स्थिति जस की तस बनी हुई है। पिछले साल केंद्र सरकार ने राच्य सरकारों को 2013 मैन्युअल स्कैवेंजर एक्ट को सख्ती से लागू करने और मैन्युअल स्कैवेंजर और अस्वच्छ शौचालय का व्यापक सर्वे करने को कहा। विडंबना यह है कि जो राच्य सरकारें 1993 से अपने हलफनामे में मैन्युअल स्कैवेंजर की गिनती को छुपाती आ रही हैं तो क्या वे आसानी से अपना झूठ सामने आने देंगी? अभी बेंगलूर अधिवेशन के पहले दिन भारतीय जनता पार्टी ने भी घोषणा की थी कि 2016 तक इस कुप्रथा को बंद करके इससे जुड़े 23 लाख परिवारों को मुक्त करवाएंगे। वैसे 23 लाख का यह आंकड़ा कहां से आया, यह भी एक विश्लेषण का विषय है।
अगर मान भी लिया जाए कि सरकार की इस पहल से मैला ढुलाई बंद हो जाएगी, लेकिन हमारे लिए यह च्यादा जरूरी होगा कि इन परिवारों को मुख्य धारा में लाकर समाज में इनकी स्वीकार्यता बढ़ाई जाए। आज भी बहुत जगह दलित समुदाय के लोग सामूहिक जलस्नोत से वंचित हैं तो मंदिरों में उनका प्रवेश वर्जित है। कहीं उनके चाय के कप और बर्तन अलग हैं तो दुकानों में उनका जाना प्रतिबंधित है। एक सर्वे में 27 प्रतिशत लोगों ने माना कि वे अभी भी छुआछूत का पालन करते हैं। यह प्रथा हिंदी भाषी राच्यों में सबसे जयादा है, जिसमें कि मध्य प्रदेश में इसका प्रतिशत 53 है तो उत्तर प्रदेश में 43। सवाल है कि क्या हम डॉ. अंबेडकर को सिर्फ उनकी जयंती के समारोह पर याद करेंगे या सच में उनके अधूरे सपनों को पूरा करेंगे? डॉ. अंबेडकर को हमारी सच्ची श्रद्धांजलि उनकी प्रतिमा पर फूल अर्पित करके नहीं, परंतु उनके सपनों के अनुसार दलितों को सशक्त बनाकर और उन्हें जात-पांत के दुश्चक्र से बाहर निकाल कर होगी।
[लेखक अनुरोध ललित जैन, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
No comments:
Post a Comment