Tuesday, 21 April 2015

ईरान को प्रोत्साहन की जरूरत @फरीद ज़कारिया

ईरान के साथ चल रही सौदेबाजी के केंद्र में सीधा-सा सवाल है : क्या ईरान तर्कपूर्ण ढंग से बातचीत करेगा? परमाणु कार्यक्रम को लेकर ईरान से समझौते के आलोचकों का उत्तर क्या होगा, यह कहने की जरूरत नहीं है। इजरायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू प्राय: कहते रहे हैं कि ईरानी तेवर तो सर्वनाश लाने वाले ही हैं। उन्होंने कई बार चेतावनी दी है कि आप ईरानियों की तर्कसंगतता पर कोई बाजी नहीं लगा सकते। सीनेटर लिंडसे ग्राहम कहते हैं, ‘मुझे तो वे सनकी लगते हैं।’ इजरायल के रक्षा मंत्री मोशे यालोन ने हाल ही में अपने मत की पुष्टि की कि ईरानी नेताओं का अंदाज मसीहाई है और वे विनाशक बातें ही करते हैं। और इसके बाद भी ये ही आलोचक जिस नीति को प्राथमिकता देते हैं, वह ईरान के तर्कसंगत व्यवहार की उम्मीद पर ही आधारित है। वे जोर देकर कहते हैं कि छह महाशक्तियों और ईरान के बीच जो समझौता हुआ है, उसका विकल्प युद्ध नहीं है, बल्कि दबाव बढ़ाकर तेहरान से और रियायतें झटकना है। इस प्रकार सनकी मुल्लाओं का यह समूह, जब कुछ और प्रतिबंधों का सामना करेगा, तो फिर ठंडे दिमाग से जोड़-घटाव लगाएगा कि किसमें कितना फायदा-नुकसान है और फिर दबाव के आगे उम्मीद के मुताबिक झुक जाएगा।

वास्तविकता तो यह है कि केनेथ पोलाक ने अपनी किताब, ‘अनथिंकेबल: ईरान, बम और अमेरिकी रणनीति’ में बड़ी ही सावधानी से कई दशकों में अपनाई ईरानी विदेश नीति की समीक्षा की है। उन्होंने यह बताया है कि ईरान की नीति न सिर्फ तर्कपूर्ण है, बल्कि दूरदर्शितापूर्ण भी है। जब उसे कोई अवसर नजर आया है, तो वह आगे बढ़ा है और खतरा देखकर उसने कदम पीछे भी खींचे हैं। उन्होंने इजरायली सेना के पूर्व चीफ ऑफ स्टाफ को उद्‌धृत किया है, जिसमें उन्होंने कहा था कि ईरानी सत्ता कट्‌टरपंथी तो है, लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि तर्क से उसका कोई वास्ता नहीं है। तर्कपूर्ण का मतलब यह है कि ईरानी सत्ता बढ़ना चाहती है। फलना-फूलना चाहती है। इसकी कसौटी पर वह लाभ-हानि का हिसाब लगाती है और उसके अनुरूप कार्रवाई करती है। अपने फैसले लेती है। किंतु यहां एक वृहद सवाल पूछना औचित्यपूर्ण होगा : क्या ईरान समझबूझ भरा व्यवहार कर रहा है? तेहरान की जो भी गतिविधियां हैं, उसे इसकी भू-राजनीतिक स्थितियों के संदर्भ में समझा जा सकता है। पिछले दिनों टाइम वाॅर्नर से सार्वजनिक चर्चा में अमेरिका के पूर्व विदेश मंत्री जेम्स बेकर ने टिप्पणी की कि समझौता-वार्ताओं की कुंजी यह है कि आप खुद को प्रतिद्वंद्वी की स्थिति में रखें और उससे मिले दृष्टिकोण से दुनिया को देखें। मध्य-पूर्व के मानचित्र को देखें। शिया ईरान चारों तरफ शत्रुता रखने वाले सुन्नी देशों से घिरा हुआ है। सऊदी अरब उसका कट्‌टर शत्रु है। हर तरह के अस्त्र-शस्त्र के जखीरे के साथ शिया विरोध में अंधा (2014 में सऊदी अरब विश्व में हथियारों का सबसे बड़ा आयातक रहा है)। इराक और सीरिया में ईरान बड़े पैमाने पर सुन्नी विद्रोह का सामना कर रहा है, जिसमें विद्रोही शियाओं के कत्लेआम पर तुले हुए हैं। इन सारी स्थितियों को परमाणु आयाम से जोड़कर देखिए। ईरान के आसपास परमाणु हथियार वाले कई देश हैं- पाकिस्तान, भारत, रूस, चीन और इजरायल। इसके अलावा ईरान को दुनिया की महाशक्तियों की ओर से तीन दशकों से ज्यादा समय से सक्रिय विरोध का सामना करना पड़ा है। इस्लामी क्रांति के तुरंत बाद जब इराक ने ईरान पर हमला किया था, तो अमेरिका ने बड़ी फुर्ती से सद्‌दाम हुसैन का समर्थन कर दिया था, जबकि सद्‌दाम ने तब ईरानियों के खिलाफ रासायनिक हथियारों तक का इस्तेमाल किया था। सेमूर हर्ष ने द न्यूयॉर्कर के लिए अपनी व्यापक रिपोर्टों में विस्तार से बताया था कि किस तरह अमेरिका ने ईरान में मौजूद ऐसे गुटों को दबे-छिपे समर्थन दिया था, जो न सिर्फ ईरानी सत्ता को उलटना चाहते थे, बल्कि देश को तोड़ना भी चाहते थे। इनमें से कुछ गुट जैसे मुजाहिदीन-ए-खलक और जुंदाल्लाह को कुछ लोगों ने बहुत ही खतरनाक आतंकी गुट करार दिया है। 2001 में शुरू हुए दशक में तेहरान को इसकी पूर्वी और पश्चिमी सीमा पर 2 लाख अमेरिकी सेना को तैनात होते देखना पड़ा। बुश प्रशासन तो खुलेतौर पर ईरान में ‘सत्ता बदलने की जरूरत’ की बात करता था। ईरान को तो उसने दुनिया के ‘दुष्ट देशों की धुरी’ ही करार दे दिया था। यहां मेरे कहने का मतलब यह नहीं है कि इनमें से कोई भी नीतियां बदली जानी चाहिए थी, क्योंकि अंतरराष्ट्रीय राजनीति जटिल व कठोर मामला है। किंतु इन वास्तविकताओं के चलते ईरान ने अब तक जिस तरह का व्यवहार किया है, उससे किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए? उसने ऐसा परमाणु उद्योग विकसित करना चाहा, जो परमाणु हथियारों का रास्ता खोल सकता है, तो इसे भी उसी पृष्ठभूमि में देखा जाना चाहिए। यदि किसी धर्मनिरपेक्ष और अत्यधिक तर्क आधारित देश के सामने इस तरह के विभिन्न खतरे होते तो क्या वह कुछ अलग तरह से व्यवहार करता?

वर्ष 1963 में जॉन एफ कैनेडी ने पूर्वानुमान व्यक्त किया था कि एक दशक के भीतर परमाणु हथियारों से लैस 15 से 25 नए देश सामने आ जाएंगे। उन्होंने यह बयान इस आधार पर दिया था कि परमाणु टेक्नोलॉजी ऐसी चीज थी, जो कोई भी ऐसा देश विकसित कर सकता था, जिसके पास गंभीर औद्योगिक व वैज्ञानिक आधार हो (यही कारण है कि 1970 के दशक में भारत और पाकिस्तान परमाणु देश बन गए)।

केनेडी की भविष्यवाणी इसलिए सही नहीं हुई, क्योंकि अमेरिका के नेतृत्व में अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने परमाणु आकांक्षा रखने वाले देशों को न सिर्फ प्रतिबंधों व कार्रवाइयों का डर दिखाया, बल्कि कई बार प्रलोभन व फायदे भी दिए ताकि वे इससे दूर रहें (यहां तक कि लीबियाई तानाशाह गद्‌दाफी ने अपना परमाणु कार्यक्रम बरसों तक धमकियों के बाद नहीं, बल्कि तब छोड़ा जब उन्हें कुछ फायदा पहुंचाया गया)। लाउसाने फ्रेमवर्क इसी तरह ईरान के साथ संतुलन कायम करना चाहता है। इसके मुताबिक नातनांज के अलावा ईरान में कोई परमाणु ठिकाना नहीं होगा। फर्दो को परमाणु ठिकाने से बदलकर परमाणु व भौतिक शोध केंद्र में बदल दिया जाएगा। इराक के भारी पानी के संयंत्र को इस तरह बदल दिया जाएगा कि वह हथियार श्रेणी का प्लूटोनियम बनाने लायक नहीं रहेगा। बदले में ईरान को प्रतिबंधों से भारी राहत दी जाएगी। इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि ईरान के सर्वोच्च नेता अयातुल्ला खमेनेई सौदेबाजी को स्वीकार कर ही लेंगे, जैसा कि हाल के ट्वीट में उन्होंने हमें याद दिलाया है, लेकिन यह प्रस्ताव उन्हें तर्कपूर्ण ढंग से नुकसान-फायदे का आकलन करने पर मजबूर करता है। साथ ही परिणामों के लिए भी खबरदार करता है।
> ईरानी सत्ता को अतार्किक माना जाता है। कहा जाता है कि उसका व्यवहार तर्कपूर्ण नहीं होता और परमाणु विनाश का स्वागत करने में भी उसे कोई हिचक नहीं होगी, लेकिन इतिहास बताता है कि फायदा हो तो ईरानी नेता तार्किक रवैया भी अपना लेते हैं।

> यह देश चारों तरफ शत्रुता रखने वाले सुन्नी देशों से घिरा है। खाड़ी के पास इसका कट्‌टर शत्रु सऊदी अरब है, जो गत वर्ष हथियारों का आयात करने वाला सबसे बड़ा देश था। फिर वह शियाओं के सफाए पर तुला हुआ है।

> पूर्व में परमाणु हसरतें रखने वाले देशों को दबाव व धमकियों से ही नहीं, उन्हें फायदा पहुंचाकर भी काबू में किया गया। दशकों की धमकियों के बाद लीबिया के गद्‌दाफी ने तभी परमाणु कार्यक्रम बंद किया, जब उन्हें फायदा पहुंचाया गया

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