Saturday, 11 April 2015

एक स्थायी रहस्य@स्वप्न दासगुप्ता

नेताजी सुभाषचंद्र बोस के पारिवारिक सदस्यों की तकरीबन 20 वषरें तक खुफिया विभाग द्वारा निगरानी और पत्राचार पर नजर रखे जाने के खुलासे से राजनीतिक हलचल दो कारणों से तेज हो सकती है। पहली बात यही कि वर्तमान समय में फाइलों में दबी पड़ी कुछ सूचनाओं के बाहर आने से पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की विश्वसनीयता प्रभावित हो सकती है, क्योंकि उनके प्रति लोगों में भगवान जैसा भाव है। लोगों के अनुसार वह एक ऐसे व्यक्ति थे जो लोकतंत्र के प्रति वास्तव में प्रतिबद्ध थे और उन्होंने सर्वाधिक अच्छे तरीके से शासन का संचालन किया। हालांकि यह धारणा पूरी तरह से हास्यास्पद है, लेकिन ताजा खुलासे को लेकर कांग्रेस के कुछ बड़े नेताओं की तरफ से जो प्रतिक्त्रियाएं आई हैं वे समसामयिक राजनीतिक दशा-दिशा को अभिव्यक्त करती हैं।

नेहरू अथवा आजादी आंदोलन के दौरान के कुछ अन्य बड़े नेताओं को सम्मान देने का मतलब यह नहीं है कि वे भगवान थे। तमाम अन्य राजनेताओं की तरह ही वे भी छल-कपट करने वाले और दूसरी बुराइयों से युक्त थे। महात्मा गांधी पर भी सवाल उठते हैं। वर्ष 1939 में कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए सुभाष चंद्र बोस ने जब गांधी के पसंदीदा उम्मीदवार पट्टाभि सीतारमैया को हरा दिया तो उनका बर्ताव सुभाष के प्रति दुर्भावनापूर्ण था। इसी तरह सरदार वल्लभभाई पटेल की भी आलोचना की जा सकती है। वह एक कठोर प्रशासक थे, जो प्रभावी निर्णय लेने के लिए जाने जाते थे। उस समय देश में जो कुछ हो रहा था उससे वह बखूबी परिचित थे। स्वाभाविक रूप से उत्तार उपनिवेश काल में जो कुछ हो रहा था उसके प्रति उन्हें अपने विवेक का उपयोग करना चाहिए था। इस बात की पूरी-पूरी संभावना है कि भारत के प्रथम गृहमंत्री सरदार पटेल ने ही इंटेलिजेंस ब्यूरो यानी आइबी को सुभाष चंद्र बोस के परिजनों की गतिविधियों पर सतत रूप से नजर रखने के लिए अनुमति दी हो। 1923 में नेताजी को कोलकाता का प्रमुख चुने जाने के बाद से ही उनके परिवार पर खुफिया नजर रखने की शुरुआत ब्रिटिश सरकार द्वारा की गई थी, जिसे आजाद भारत सरकार ने भी जारी रखा। हालांकि यह अकल्पनीय प्रतीत होता है कि प्रधानमंत्री के रूप में नेहरू को इस निर्णय के लिए पक्ष नहीं बनाया जा सकता। पश्चिम बंगाल के प्रतिष्ठित मुख्यमंत्री डॉ. बीसी राय जैसे तमाम लोगों की तरह नेहरू इस बात को लेकर चिंतित अथवा सतर्क थे कि नेताजी के राजनीतिक उत्ताराधिकार को किस रूप में आगे बढ़ाया जाता जाता है। कहीं ऐसा तो नहीं कि इसी राजनीतिक ऐहतियात के तहत अनुचित निगरानी को आगे के लिए भी जारी रखा गया। वास्तव में ये सभी बातें इस मुद्दे पर लागू होती हैं। बावजूद इसके किसी नैतिक निर्णय पर पहुंचने के लिए यह जरूरी नहीं है कि हम नैतिक व्यवहार के स्थापित मानदंडों से निर्देशित हों। अपने जन्मकाल के समय भारतीय गणतंत्र के समक्ष मौजूद खतरे और चुनौतियां बहुत असमान थीं और आज की अपेक्षा तब माहौल अधिक डरावना था। निगरानी के संदर्भ में पूर्व की जानकारी के मुताबिक जो दूसरा निष्कर्ष निकलता है वह कुछ कम गंभीर प्रतीत होता है।

नेताजी के बड़े भाई शरत चंद्र बोस पश्चिम बंगाल में 1948 के बाद कांग्रेस विरोधी शक्तियों के मुख्य केंद्रबिंदु के रूप में उभर कर सामने आए थे और फरवरी 1950 में उनकी मृत्यु के समय तक उनके पुत्रों का राजनीतिक रूप से थोड़ा ही प्रभाव था। इस वजह से तत्कालीन समय में निगरानी का तभी कोई मतलब बनता यदि सरकार में शीर्ष स्तर पर अगस्त 1945 में जापान के आत्मसमर्पण करने के तत्काल बाद ही नेताजी के ताईपे में हवाई दुर्घटना में मारे जाने को लेकर कहीं कोई संदेह होता। इस तरह की बातों को पूरी तरह खारिज नहीं किया जा सकता, क्योंकि उनकी मृत्यु के संदर्भ में बहुत ठोस साक्ष्य नहीं मिल सके थे।
एक विचार यह भी था कि नेताजी ने अपनी मौत की झूठी खबर खुद ही फैलाई थी ताकि खुफिया एजेंसियों को चकमा देते हुए वह कहीं अन्यत्र जा सकें फिर चाहे वह रूस हो अथवा अधिक सुरक्षित अन्य स्थान। जो भी हो, 1940 में कोलकाता से भाग निकलने की घटना और 1942 में पनडुब्बी से यूरोप से जापान पहुंचने की नेताजी की पूर्व की गतिविधियों के आधार पर यह संभावना सदैव बरकरार रही। मेरे विचार से ताईपे में नेताजी की मौत के रहस्य को मौजूदा उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर संतोषजनक तौर पर सुलझा लिया गया है। इस मामले में निडर लेखक अनुज धर ने अपनी पुस्तक में मौजूद सभी साक्ष्यों के संदर्भ में भारत के सबसे बड़े रहस्य के बारे में क्रमवार तरीके से वर्णन किया है और किसी भी ठोस साक्ष्य के अभाव की तरफ इशारा किया है। उन्होंने अपनी पुस्तक में संभावित विकल्पों को भी बताया है, जैसे कि नेताजी रूस से गायब हो गए और 1960 में फैजाबाद में एक साधु के रूप में लोगों के सामने आए। लेकिन इन धारणाओं के पीछे भी कोई बहुत ठोस साक्ष्य अथवा प्रमाण नहीं हैं और नेताजी के संबंध में आकर्षण के रूप में रहस्य बरकरार ही रहता है।

इसमें भी संदेह नहीं कि नेहरू सरकार भी भ्रमित थी और आश्वस्त होना चाहती थी कि नेताजी के परिवार को भी वो बातें नहीं मालूम जिस बारे में सरकार जानना चाहती थी। वास्तव में आइबी की निगरानी और एल्गिन रोड पर स्थित नेताजी के पैतृक घर और पड़ोस के वुडबर्न पार्क में स्थित शरत बोस के आवास पर पहुंचने वाले सभी पत्रों के प्रति सरकार की असाधारण रुचि के पीछे यह सर्वाधिक उपयुक्त कारण हो सकता है। खुफिया जानकारी इकट्ठा करने के पीछे मुख्य आशय यही हो सकता है कि सरकार खुद आश्वस्त होना चाहती थी। इस आधार पर खुफिया निगरानी को समझा जा सकता है। हालांकि 1968 तक चले इस खुफिया आपरेशन के खुलासे को लेकर तमाम राजनीतिक विवाद खड़े किए जा सकते हैं। इसका तब तक कोई अधिक मूल्य नहीं जब तक कि इस विषय में कोई अतिरिक्त जानकारी सामने नहीं आती। वर्तमान खुलासे को लेकर लोगों की रुचि इस कारण से बनी है कि नेताजी से जुड़ी कुछ फाइलों को सार्वजनिक उद्देश्यों से राष्ट्रीय संग्रहालयों में भेजने से मना कर दिया गया। ऐसा इसलिए किया गया, क्योंकि इससे कुछ देशों से भारत के संबंध प्रभावित हो सकते थे। इससे तमाम भ्रम फैले। परंतु पूर्ववर्ती सरकार के फैसलों के लिए मोदी सरकार को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। राष्ट्रीय वीरों को सम्मानित करने के कुछ और तरीके हो सकते हैं। उन्हें नोट पर जगह देना अथवा मूर्तियों के रूप में सम्मानित करना ही एकमात्र तरीका नहीं है। गोपनीय फाइलों के सामने आने से नेताजी के रहस्य पर लोग संतुष्ट हो जाएं यह जरूरी नहीं, लेकिन उनके खुलासे के बिना भारतीयों को यह अधिकार है वे इतिहास से शिकायत करते रहें।

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