Monday, 20 April 2015

हाशिमपुरा हत्याकांड : एक फैसला जिसे ऐसा नहीं होना था! @प्रियम वर्मा

यदि कोर्ट में दिए गए बयानों और हाशिमपुरा हत्याकांड से जुड़े कुछ ही दस्तावेजों की गिरहें खोलें तो हर स्तर पर बरती गईं ऐसी लापरवाहियों का पता चलता है जो न की गई होतीं तो हाशिमपुरा का फैसला कुछ और ही आया होता.
कानून की किताब में गोल्डन जस्टिस की परिभाषा दर्ज है. इसके अनुसार भले ही हजार गुनाहगार छूट जाएं, लेकिन किसी भी निर्दोष को सजा न मिले. यह स्थिति तब बनती है जब मामला संदेहास्पद होता है. ऐसा ही कुछ मेरठ के हाशिमपुरा में 22 मई 1987 को हुए गोलीकांड के मुकदमे में भी हुआ. इस गोलीकांड में 42 लोग मारे गए थे. इस घटना के 27 साल बाद आए फैसले में दिल्ली की तीस हजारी अदालत ने पीएसी के 16 जवानों को सबूतों के अभाव में बरी कर दिया. इस मामले में कुल 19 पुलिसकर्मी आरोपी थे, जिनमे से तीन की मौत हो चुकी है.+
अब सवाल यह उठता है कि इस मामले में क्या स्थिति वाकई इतनी संदेहास्पद थी कि नतीजे पर पहुंचना असंभव था? क्या वाकई कोर्ट में मौजूद सबूत फैसला सुनाने के लिए नाकाफी थे? और अगर स्थिति संदेहास्पद थी भी तो ऐसी क्यों थी? क्या अभियोजन पक्ष ने केस के सारे पहलुओं पर ठीक से ध्यान दिया और उन्हें अदालत के सामने रखा? क्या मामले की जांच ठीक से की गई? और अगर ऐसा नहीं किया गया तो अदालत ने इस पर ध्यान क्यों नहीं दिया?+
जब एफआईआर में घटना दोपहर दो बजे से दर्ज कराई गई और रात आठ बजे तक उसमें एक-एक मिनट का हिसाब दिया गया है तो गवाही में सिर्फ अंधेरा होने का हवाला देकर न पहचानने की बात कैसे कही गई?
यदि कोर्ट में दिए गए बयानों और इस मामले से जुड़े कुछ ही दस्तावेजों की गिरहें खोली जाएं तो इस मामले में हर स्तर पर बरती गई ऐसी लापरवाहियों का पता चलता है जो न की गई होतीं तो हाशिमपुरा का फैसला शायद कुछ और ही आया होता.+

आरोपियों को न पहचानने का तर्क

शुरुआत करते हैं गवाहों के बयानों से क्योंकि यह फैसला मुख्यतः इन्हीं के आधार पर हुआ. हाशिमपुरा हत्याकांड के पांच चश्मदीद गवाह थे – जुल्फिकार नासिर, मोहम्मद नईम, बाबूदीन, मुजीबुर्रहमान और मोहम्मद उस्मान. इन सभी ने बयान दिया कि जिस वक्त यह घटना घटी उस वक्त इतना अंधेरा था कि वे किसी को नहीं पहचान सके. ऐसे में सवाल उठता है कि जब एफआईआर में घटना दोपहर दो बजे से दर्ज कराई गई और रात आठ बजे तक उसमें एक-एक मिनट का हिसाब दिया गया है तो गवाही में सिर्फ अंधेरा होने का हवाला देकर न पहचानने की बात कैसे कही गई? तथ्यों के अनुसार दोपहर दो बजे के बाद छह घंटे तक पीएसी के जवान इन गवाहों के साथ थे तो फिर गवाहों ने उन्हें पहचाना क्यों नहीं? और अगर नहीं पहचाना तो उनकी इस बात में छिपे विरोधाभास पर जिन्हें ध्यान देना चाहिए था, उन्होंने ध्यान क्यों नहीं दिया?+

आधी रात को ट्रक क्यों धोया गया

हाशिमपुरा दंगे के वक्त आरोपी सुरेन्द्रपाल सिंह 41 वीं बटालियन के कमांडेट थे. घटना के वक्त गाजियाबाद के एसपी वीएन राय थे, जिनका बयान दर्ज है कि ‘रात साढ़े दस बजे के करीब मेरे पास सूचना आई कि पीएसी के जवानों ने कुछ लोगों को मारा है. मैंने तुरन्त डीएम जैदी साहब को सूचना दी. हम और डीएम साहब बाकनपुर पहुंचे जहां पर 41 वीं बटालियन रुकी हुई थी. वहां पर पता चला कि कुछ देर पहले ही कमांडेट सुरेन्द्रपाल सिंह आया हुआ था और उसने ट्रक की धुलाई कराई थी. मेंटीनेंस डिपार्टमेंट में जाकर देखा तो सारा फर्श गीला पड़ा था.’ ऐसे में सवाल उठता है कि रात को ग्यारह से बारह बजे के करीब ट्रक को धोने का क्या कारण था? आखिर आधी रात को ट्रक की धुलाई करने की ऐसी क्या जरूरत पड़ी? और आखिर मेरठ में पोस्टेड सुरेंद्रपाल सिंह की बटालियन बाकनपुर में क्या कर रही थी?+
आखिर आधी रात को ट्रक की धुलाई करने की ऐसी क्या जरूरत पड़ी? और आखिर मेरठ में पोस्टेड सुरेंद्रपाल सिंह की बटालियन बाकनपुर में क्या कर रही थी?

मोहकम सिंह था ट्रक ड्राइवर

हाशिमपुरा केस में पीएसी के जवान रामचन्द्र गिरी की पेशी हुई. जब हाशिमपुरा कांड हुआ उस समय रामचन्द्र गिरी पीएसी में ही थे और उनका काम था पीएसी के जवानों को गाड़ियां उपलब्ध कराना. कोर्ट में रामचन्द्र गिरी ने बताया कि ‘ट्रक नंबर यूआरयू 1493 को पहले इफ्तकार अहमद नाम का ड्राइवर लेकर गाजियाबाद से निकला. बीच में पीएसी के जवानों से इफ्तकार अहमद का झगड़ा हो गया और इफ्तकार ट्रक लेकर वापस गाजियाबाद चला आया. फिर वहां से मोहकम सिंह को वही ट्रक लेकर भेजा गया.’ इससे यह साफ़ है कि मोहकम सिंह ही पूरे समय ट्रक में था. ऐसे में उसके जरिये आरोपित जवानों की पहचान से संबंधित जांच-पड़ताल क्यों नहीं की गई.+
(बाएं से) जुल्फिकार, उस्मान, आरिफ, मुजीबुर्रहमान और बाबूदीन
(बाएं से) जुल्फिकार, उस्मान, आरिफ, मुजीबुर्रहमान और बाबूदीन

एक जवान को गोली क्यों लगी थी?

कोर्ट में एलएलआरएम मेडिकल कॉलेज की उस समय की रिपोर्ट के अनुसार लीलाधर नाम का पीएसी का एक जवान शाम के बाद इलाज के लिए अस्पताल आया था. रिपोर्ट के अनुसार उसकी आंख में गोली लगी थी. ऐसे में सवाल उठता है कि हाशिमपुरा में ऐसा क्या हुआ था कि उसकी आंख में गोली लगी. हालांकि लीलाधर ने बाद में बयान दिया कि दंगे के समय उसे चोट लगी थी. लेकिन यदि वह पहले ही चोटिल था तो वह शाम तक ड्यूटी पर क्या कर रहा था? और यदि उसे दंगे में चोट लगी थी तो इस घटना की कोई भी एफआईआर दर्ज क्यों नहीं कराई गई.+
इससे यह साफ़ है कि मोहकम सिंह ही पूरे समय ट्रक में था. ऐसे में उसके जरिये आरोपित जवानों की पहचान से संबंधित जांच-पड़ताल क्यों नहीं की गई.

ट्रक में मिले खून की छींटें

हाशिमपुरा दंगे की पडताल के दौरान ट्रक की भी जांच की गई. इसमें यूआरयू 1493 नंबर के ट्रक से दो साल बाद भी जांच अधिकारियों को खून के छींटे मिले. जब लैब में इनकी जांच की गई तो पता चला कि यह खून इंसानों का निकला. इस दौरान यह भी सामने आया कि इस ट्रक की वेल्डिंग भी कराई गई. ऐसे में सवाल उठता है – जोकि अदालत और जांच अधिकारियों के मन में भी उठना चाहिए था – कि क्या छुपाने के लिए सिर्फ यूआरयू 1493 नंबर के उस ट्रक की ही वेल्डिंग कराई गई जिस पर खून के छींटे भी थे. इस मामले की जांच और सुनवाई के दौरान कई तथ्यों से यह बात स्थापित हुई थी कि यूआरयू 1493 नंबर के इस ट्रक का इस्तेमाल घटना के दौरान किया गया था. जांच में यह भी सामने आ चुका था कि घटना के वक्त मोहकम सिंह ही इस ट्रक को चला रहा था. ऐसे में क्या जांचकर्ताओं और कोर्ट के लिए यह पता लगाना वाकई नामुमकिन था कि घटना के दौरान इस ट्रक में सवार वे कौन लोग थे जिन्होंने इस भीषण नरसंहार को अंजाम दिया.+
ऐसे तमाम बिंदुओं पर गौर करें तो यह साफ़ पता चलता है कि इस मामले में दोषियों को सजा देने की नियत शुरुआत से ही नहीं थी. जांचकर्ताओं पर अपने ही साथियों की जांच की जिम्मेदारी थी. वह भी एक सांप्रदायिक हिंसा के मामले में. ऐसे मामलों में अक्सर यही देखने को मिलता है कि पुलिस वाले भी तमाम शहर के माहौल की तरह सांप्रदायिक होने से नहीं बच पाते. ऐसे में जांचकर्ताओं ने कई साल बाद जब जांच की औपचारिकता पूरी की तो यह मामला अभियोजन के पास पहुंचा. आम तौर पर अभियोजन पक्ष का काम कोर्ट में पुलिस की पैरवी करने का होता है. लेकिन इस मामले में तो दोषी भी पुलिसकर्मी ही थे. ऊपर से जांच भी बेहद कमजोर थी. इसलिए अभियोजन की दोषी को सजा दिलाने की इच्छाशक्ति को टूटते हुए भी इस मामले में कई बार देखा जा सकता है. इस सबके बाद न्यायालय के पास करने को ज्यादा कुछ नहीं था. हां, न्यायालय यदि चाहता तो मामले की नए सिरे से जांच के आदेश जरूर दिए जा सकते थे. लेकिन 28 साल बाद हुए फैसले में शायद तब 28 ही साल और लग गए होते. शायद इसीलिए ऐसा कुछ नहीं हुआ. इसके बाद जब एक-एक कर गवाह मुकरने लगे तो नतीजा वही हुआ जो हमारे सामने है. सभी आरोोपित यह बयान देते हुए बरी हो गए कि ’28 साल बाद आखिर न्याय हो ही गया.

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