हम मुख्यतः पश्चिमी कैलेंडर का ही रोजमर्रा के जीवन में उपयोग करते हैं। क्या हमारा अपना कोई कैलेंडर नहीं? यदि हमारा अपना स्वदेशी कैलेंडर है, तो उसे राष्ट्रीय कैलेंडर क्यों नहीं बनाया जाता? इस बार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अपील पर ओम का केसरिया पताका फहराकर राष्ट्रवादियों द्वारा स्वदेशी विक्रम सम्वत 2071 का प्रारंभ बड़ी धूमधाम से किया गया। यद्यपि विक्रम नववर्ष का उत्सव संघ द्वारा लंबे समय से प्रतिवर्ष मनाया जाता रहा है, किंतु इस वर्ष इसके आयोजन की ओर विशेष ध्यान दिया गया। चंद्रमा पर आधारित इस कैलेंडर का प्रारंभ चैत्र मास में नए चंद्रमा के उदय के अगले दिन से प्रारंभ होता है। माना जाता है कि विक्रम सम्वत का प्रारंभ शकों को उज्जियनी से निष्कासित करने के उपलक्ष्य में उज्जियनी नरेश विक्रमादित्य द्वारा किया गया था।
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स्वदेशी से किसको इन्कार होगा? विक्रम सम्वत को राष्ट्रीय कैलेंडर घोषित किया जाए, इसमें भी आपत्ति नहीं। पर अनगिनत स्वदेशी कैलेंडरों में से विक्रम सम्वत को ही राष्ट्रीय सम्वत क्यों माना जाए? विक्रम सम्वत यहां सर्वाधिक मान्य हो, ऐसा भी नहीं है। सृष्टि सम्वत, कृष्ण सम्वत, युधिष्ठिर सम्वत, कालयवन सम्वत, कलि सम्वत, बुद्ध निर्वाण सम्वत, महावीर निर्वाण सम्वत, शक सम्वत, कलचुरि चेदि सम्वत, गुप्त सम्वत, हर्ष सम्वत, चालुक्य सम्वत, तारीख इलाही सम्वत, फसली सम्वत जैसे अनेक सम्वतों का यहां प्रयोग होता रहा है। भारतीय कैलेंडरों पर अध्ययन के लिए केंद्र सरकार ने प्रो. मेघनाथ साहा की अध्यक्षता में एक कैलेंडर समिति 1954 में बनाई थी। व्यापक अध्ययन के बाद कमेटी ने कुल 55 कैलेंडर चिह्नित किए। इनमें 78 ई. से प्रारंभ शक सम्वत को सबसे वैज्ञानिक माना गया। कमेटी की संस्तुति पर 1957 में शक सम्वत को राष्ट्रीय सम्वत का दर्जा दिया गया। सूर्य पर आधारित शक सम्वत का प्रयोग विभिन्न धार्मिक, सामाजिक और खगोलशास्त्रीय कार्यों के लिए प्राचीन समय से आज तक निरंतर होता रहा है। इंडोनेशिया में जावा और बाली के हिंदुओं में भी शक सम्वत इस समय प्रचलित हैं। यद्यपि यह कैलेंडर शकों से जुड़ा माना जाता है, पर इसका प्रारंभ कुषाण शासक कनिष्क के राज्यारोहण के समय से हुआ था।
हिंदू राष्ट्रवादियों ने शक सम्वत को नकारकर विक्रम सम्वत को ही क्यों मान्यता दी? दरअसल राष्ट्रवादियों की दृष्टि में शक विदेशी म्लेच्छ आक्रमणकारी थे, जिन्हें हिंदुओं के प्रतिनिधि सम्राट विक्रमादित्य ने परास्त किया था। इस दृष्टि से तो यूनानी, कुषाण, हूण, आभीर आदि को भी विदेशी आक्रमणकारी माना जाएगा, यद्यपि इन सबका पूर्णतः विलय भारतीय समाज में हो गया था।
भारतीय संस्कृति के विकास में उज्जियनी के राजा विक्रमादित्य का क्या योगदान था, इसकी जानकारी नहीं है। उनकी ऐतिहासिकता तक संदेहास्पद है। दूसरी ओर शक-कुषाण शासकों का हिंदू संस्कृति के विकास में महान योगदान रहा है। पहला संस्कृत अभिलेख शक शासक रुद्रदामन द्वारा उत्कीर्ण करवाया गया था। नासिक की गुफाओं में शक दानदाताओं के जो अभिलेख मिलते हैं, वे अत्यधिक विकसित संस्कृत भाषा में है। पहला संस्कृत काव्य कुषाण शासक कनिष्क-प्रथम के संरक्षण में अश्वघोष द्वारा लिखा गया था। पहला संस्कृत नाटक भी अश्वघोष ने लिखा था।
पुराणों और महाकाव्य ग्रंधों में चौथी-पांचवीं शताब्दी से अकस्मात अनेक देवी देवताओं के नाम तथा उनकी पूजा विधियों के विषय में उल्लेख मिलने लगता है। इन देवी देवताओं के रूप तथा पूजा विधि निर्धारित करने में शक-कुषाणों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। शिव की आकृति का जो रूप आज हमें दिखाई� पड़ता है, उसके विकास में शक, कुषाण पार्थियन आदि विदेशी जातियों का योगदान रहा है। शिव की पत्नी के रूप में उमा और दुर्गा तथा लक्ष्मी का हिंदू देवमंडल में समावेश शक-कुषाणों के समय हुआ। हमारे यहां की अनेक जातियां शक-कुषाण और प्राचीन ईरानियों से संबद्ध मानी जाती है। इसके बावजूद हम अगर शकों को विदेशी आक्रमणकारी और म्लेच्छ मानते रहे, तो यह हमारा दृष्टिभ्रम ही होगा।
स्वदेशी से किसको इन्कार होगा? विक्रम सम्वत को राष्ट्रीय कैलेंडर घोषित किया जाए, इसमें भी आपत्ति नहीं। पर अनगिनत स्वदेशी कैलेंडरों में से विक्रम सम्वत को ही राष्ट्रीय सम्वत क्यों माना जाए? विक्रम सम्वत यहां सर्वाधिक मान्य हो, ऐसा भी नहीं है। सृष्टि सम्वत, कृष्ण सम्वत, युधिष्ठिर सम्वत, कालयवन सम्वत, कलि सम्वत, बुद्ध निर्वाण सम्वत, महावीर निर्वाण सम्वत, शक सम्वत, कलचुरि चेदि सम्वत, गुप्त सम्वत, हर्ष सम्वत, चालुक्य सम्वत, तारीख इलाही सम्वत, फसली सम्वत जैसे अनेक सम्वतों का यहां प्रयोग होता रहा है। भारतीय कैलेंडरों पर अध्ययन के लिए केंद्र सरकार ने प्रो. मेघनाथ साहा की अध्यक्षता में एक कैलेंडर समिति 1954 में बनाई थी। व्यापक अध्ययन के बाद कमेटी ने कुल 55 कैलेंडर चिह्नित किए। इनमें 78 ई. से प्रारंभ शक सम्वत को सबसे वैज्ञानिक माना गया। कमेटी की संस्तुति पर 1957 में शक सम्वत को राष्ट्रीय सम्वत का दर्जा दिया गया। सूर्य पर आधारित शक सम्वत का प्रयोग विभिन्न धार्मिक, सामाजिक और खगोलशास्त्रीय कार्यों के लिए प्राचीन समय से आज तक निरंतर होता रहा है। इंडोनेशिया में जावा और बाली के हिंदुओं में भी शक सम्वत इस समय प्रचलित हैं। यद्यपि यह कैलेंडर शकों से जुड़ा माना जाता है, पर इसका प्रारंभ कुषाण शासक कनिष्क के राज्यारोहण के समय से हुआ था।
हिंदू राष्ट्रवादियों ने शक सम्वत को नकारकर विक्रम सम्वत को ही क्यों मान्यता दी? दरअसल राष्ट्रवादियों की दृष्टि में शक विदेशी म्लेच्छ आक्रमणकारी थे, जिन्हें हिंदुओं के प्रतिनिधि सम्राट विक्रमादित्य ने परास्त किया था। इस दृष्टि से तो यूनानी, कुषाण, हूण, आभीर आदि को भी विदेशी आक्रमणकारी माना जाएगा, यद्यपि इन सबका पूर्णतः विलय भारतीय समाज में हो गया था।
भारतीय संस्कृति के विकास में उज्जियनी के राजा विक्रमादित्य का क्या योगदान था, इसकी जानकारी नहीं है। उनकी ऐतिहासिकता तक संदेहास्पद है। दूसरी ओर शक-कुषाण शासकों का हिंदू संस्कृति के विकास में महान योगदान रहा है। पहला संस्कृत अभिलेख शक शासक रुद्रदामन द्वारा उत्कीर्ण करवाया गया था। नासिक की गुफाओं में शक दानदाताओं के जो अभिलेख मिलते हैं, वे अत्यधिक विकसित संस्कृत भाषा में है। पहला संस्कृत काव्य कुषाण शासक कनिष्क-प्रथम के संरक्षण में अश्वघोष द्वारा लिखा गया था। पहला संस्कृत नाटक भी अश्वघोष ने लिखा था।
पुराणों और महाकाव्य ग्रंधों में चौथी-पांचवीं शताब्दी से अकस्मात अनेक देवी देवताओं के नाम तथा उनकी पूजा विधियों के विषय में उल्लेख मिलने लगता है। इन देवी देवताओं के रूप तथा पूजा विधि निर्धारित करने में शक-कुषाणों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। शिव की आकृति का जो रूप आज हमें दिखाई� पड़ता है, उसके विकास में शक, कुषाण पार्थियन आदि विदेशी जातियों का योगदान रहा है। शिव की पत्नी के रूप में उमा और दुर्गा तथा लक्ष्मी का हिंदू देवमंडल में समावेश शक-कुषाणों के समय हुआ। हमारे यहां की अनेक जातियां शक-कुषाण और प्राचीन ईरानियों से संबद्ध मानी जाती है। इसके बावजूद हम अगर शकों को विदेशी आक्रमणकारी और म्लेच्छ मानते रहे, तो यह हमारा दृष्टिभ्रम ही होगा।
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