कश्मीर समस्या के समाधान के कई पहलू हैं और सभी से एकसाथ निपटना संभव नहीं है. कुछ हमारे हाथ में हैं भी नहीं. मगर जो हैं उन पर तो शुरुआत की ही जा सकती है. हो सकता है उस दिशा में बढ़ने पर आगे और रास्ते खुलने लगें.
किसी भी देश के लिए, जो लोकतंत्र भी हो, दो बातें महत्वपूर्ण हैं. पहली, वह अपनी अखंडता के साथ समझौता नहीं कर सकता. दूसरी, वह अपने लोगों की आकांक्षाओं, पीड़ा और नाराजगी को अनदेखा नहीं कर सकता. एक लंबे समय तक तो बिलकुल भी नहीं. अब जम्मू-कश्मीर की आज की और आज तक की सभी समस्यायों को इन्हीं दो सिद्धांतों के दायरे में देखने की जरूरत है. अगर स्पष्ट शब्दों में कहा जाए तो उन कश्मीरियों को जो आज भारत से अलग होने की मांग पर अड़े हैं, यह समझना है कि भारत से खुद को अलग करने की मांग का कोई नतीजा हो ही नहीं सकता. दूसरी ओर व्यवस्था और धारा 370 खत्म करने की जिद पर अड़े लोगों को इन कश्मीरी लोगों की पीड़ा और नाराजगी को दूर करने के लिए ईमानदारी से संविधान के दायरे में हर सामान्य-असामान्य तरीके से जो संभव हो करना होगा.+
जिस तरह से हिंदी के पैरोकारों की राजभाषा बनाने की उतावली और बेसिरपैर कोशिशों ने उसे हमेशा के लिए देश में अंग्रेजी की पुछल्ली भाषा बनाकर छोड़ दिया है कुछ-कुछ वही कश्मीर के मामले में भी हुआ.
1947 में जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय का अनुरोध न केवल वहां के राजा ने बल्कि कश्मीर में लोकतंत्र की स्थापना के लिए आंदोलन चला रहे वहां के सबसे बड़े और प्रभावशाली संगठन के मुखिया शेख अब्दुल्ला ने भी किया था. पाकिस्तान ने भी कश्मीर पर हमला इसीलिए बोला था. उसे पता था कि जो एक साल का ‘स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट’ उसने किया है उसके खत्म हो जाने के बाद भी कश्मीर उसके हाथ नहीं आने वाला क्योंकि वहां का ज्यादातर जनमानस भारत के साथ विलय का पक्षधर था. इसीलिए नेहरू जी ने भी अपनी तरफ से ही पाकिस्तानी सेना के कश्मीर से खदेड़े जाने के बाद जनमत संग्रह की बात कही थी. उनका कहना था कि वे कश्मीर की मजबूरी का फायदा उठाकर नहीं बल्कि उसकी जनता की रजामंदी से ही उसे अपने साथ रखने के पक्षधर हैं. वे संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव के मुताबिक 1956 तक भी जनमत संग्रह कराने के लिए तैयार थे बशर्ते पाकिस्तान पहले अपने कब्जे वाले कश्मीर से हट जाए. 1956 में जम्मू और कश्मीर की संविधान सभा ने भारत के साथ विलय का अनुमोदन कर दिया. इसके बाद मामले को अब और उलझने से बचाने के लिए भारत ने इसे ही पूरे जम्मू-कश्मीर की भावनाओं का प्रतिबिंब मान लिया.+
तो फिर कभी इस कदर भारत के पक्ष में होने वाला कश्मीर की जनता का मानस आज इस तरह भारत विरोधी क्यों दिखाई दे़ रहा है? दरअसल, ऐसा होने के पीछे भी ‘बाहरी ताकतों’ से ज्यादा हम खुद जिम्मेदार हैं. जिस तरह से हिंदी के पैरोकारों की राजभाषा बनाने की उतावली और बेसिरपैर कोशिशों ने हिंदी को हमेशा के लिए देश में अंग्रेजी की पुछल्ली भाषा बनाकर छोड़ दिया है कुछ-कुछ वैसा ही कश्मीर के मामले में भी हुआ. धारा 370 हटाने और कश्मीर के भारत में संपूर्ण विलय के लिए जम्मू प्रजा परिषद और जनसंघ द्वारा चलाए आंदोलनों और जल्दबाजी में सरकारों की कश्मीर के प्रशासनिक ढांचे में बदलाव लाने की कोशिशों ने सारे मसले को बिगाड़कर रख दिया. इससे घाटी में अलगाववादी और संप्रदायवादी ताकतों को सर उठाने में मदद मिली.+
देना-करना पहले बड़े को चाहिए, छोटे का भरोसा बढ़ता है. और इस भरोसे से ही स्थायी हल की तरफ जाने का रास्ता निकल सकता है.
इन ताकतों की ताकत को ज्यादा और भारत की धर्मनिरपेक्षता की ताकत को कम आंककर शेख अब्दुल्ला के सुर भी बदलने लगे. 1953 में अब्दुल्ला की गिरफ्तारी के बाद से कश्मीर भ्रष्टाचार, प्रशासनिक अकर्मण्यता और सरकारों और राष्ट्रपति शासनों के आने-जाने के भीषण दुश्चक्र में फंसा रहा. चूंकि पाकिस्तान भी कश्मीर की मूल समस्या का एक स्थायी हिस्सा रहा है, इसलिए सेना की लगातार उपस्थिति ने भी मानवाधिकारों के हनन आदि की समस्याओं को जन्म देकर इसमें नए आयाम जोड़ दिए.+
तो अब क्या किया जा सकता है? कश्मीर समस्या के समाधान के लिए कोई एक बटन तो है नहीं. इसके कई पहलू हैं और सभी से एकसाथ निपटना संभव नहीं है. कुछ हमारे हाथ में हैं भी नहीं. मगर जो हैं उन पर तो शुरुआत की ही जा सकती है. हो सकता है उस दिशा में बढ़ने पर आगे और रास्ते खुलने लगें. तो जो किया जाना चाहिए वह है स्वायत्तता की दबी फाइल को झाड़-फूंककर बाहर निकालना और वादी में सेना की उपस्थिति स्थायी है इस भावना को खत्म करना.+
हालांकि एक ऐसी पार्टी के लिए जो हमेशा धारा 370 खत्म करने की वकालत करती रही हो और राष्ट्वाद जिसके लिए हवा पानी जैसा रहा हो ऐसा करना आसान नहीं है. लेकिन इसके सिवा कोई और चारा भी तो नहीं है. इसके बाद वहां आम कानून-व्यवस्था के लिए साधारण पुलिस बल को सक्षम बनाने की जरूरत है. जिस तरह की कोशिशें कई बार चोट खाने के बाद भी एनडीए की ही पिछली सरकार ने पाकिस्तान से संबंध सुधारने के लिए की थीं. उतने ही साहसी और मानवीय कुछ प्रयास कश्मीर के लिए वर्तमान नरेंद्र मोदी सरकार को भी करने की जरूरत है. देना-करना पहले बड़े को चाहिए, छोटे का भरोसा बढ़ता है. और इस भरोसे से ही स्थायी हल की तरफ जाने का रास्ता निकल सकता है.
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