Wednesday, 1 April 2015

क्या मोदी बनेंगे भारत के ली कुआन? @ महेंद्र वेद

आधुनिक सिंगापुर के संस्थापक ली कुआन यिवू के अंतिम संस्कार में शामिल होकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वास्तव में बहुत सूझबूझ का परिचय दिया है। इससे निश्चित ही सिंगापुर से हमारे रिश्ते और मधुर होंगे। अलबत्ता, यह तो अभी पता नहीं चल पाया है कि मोदी की कभी ली कुआन से भेंट हुई थी या नहीं, लेकिन इतना जरूर है कि मोदी इससे पहले भी सिंगापुर की यात्रा कर चुके हैं और अनेक भारतीयों की तरह वे इस सिटी-स्टेट की सफलता की दास्तान से रोमांचित होते रहे हैं। ली भी कई बार भारत की यात्रा कर चुके थे। आखिरी बार वे वर्ष 2011 में भारत आए थे, जिसके बाद उनका स्वास्थ्य खराब रहने लगा, वरना मोदी से उनकी मुलाकात अवश्य होती।
जब एशिया में औपनिवेशिकता से मुक्ति की प्रक्रिया चल रही थी, तब वियतनाम के हो ची मिन्ह और श्रीलंका के जेआर जयवर्धने और भंडारनायके के साथ ही ली कुआन ने भी भारत की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाया था। पं. जवाहरलाल नेहरू से तो उनकी मित्रता भी थी, हालांकि नेहरू की गुटनिरपेक्ष नीति को वे अव्यावहारिक मानते थे। लेकिन इसके बावजूद ली कुआन के लिए भारत इसलिए हमेशा खास बना रहा, क्योंकि सिंगापुर का नामकरण मूलत: संस्कृत शब्द 'सिंहपुरा" के आधार पर हुआ है। जब तक सिंगापुर मलय-संघ से पृथक होता और ली उसके प्रथम प्रधानमंत्री बनते, तब तक नेहरू की मृत्यु हो चुकी थी और ब्रितानी सिंगापुर ही नहीं, इस पूरे क्षेत्र से अपनी सेनाओं को वापस बुला रहे थे। तब ली ने प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री को पत्र लिखकर सुरक्षा की मांग की थी और शास्त्री ने भी तुरंत सेंट्रल रिजर्व पुलिस का एक दल सिंगापुर रवाना कर दिया। दल में शामिल किरपा राम आगे चलकर सिंगापुर के सैन्यप्रमुख बने।
लेकिन भारत की अपनी कूटनीतिक सीमाएं भी थी। वह एक ऐसे क्षेत्र में एक सैन्य गठबंधन का हिस्सा नहीं बनना चाहता था, जहां चीन और पश्चिमी ताकतें अपना प्रभाव बढ़ाने की कोशिश कर रही हों। वह इस क्षेत्र में कम्युनिज्म से संघर्ष कर रही ताकतों से दूरी बनाए रखना चाहता था। खुद ली कुआन में तानाशाही प्रवृत्तियां थीं और उन्होंने राजनीतिक विपक्ष को हाशिये पर कर दिया था। अपनी कठोर कार्यशैली को उन्होंने सिंगापुर की सुरक्षा के लिए जरूरी बताया था। शायद यही कारण रहा होगा कि जब इंदिरा गांधी ने आपातकाल लगाया तो ली कुआन ने उसका समर्थन किया था, जबकि दुनियाभर की लोकतांत्रिक शक्तियां तब इसका विरोध कर रही थीं। उन्होंने वर्ष 1971 में बांग्लादेश युद्ध में भारत द्वारा निर्णायक हस्तक्षेप किए जाने की भी सराहना की थी।
इसके बावजूद भारत से उन्हें जो उम्मीदें थीं, वे बहुत हद तक पूरी नहीं हो सकीं। उन्होंने भारत को 'अनर्जित महानता" का देश भी कहा था। उन्हें इस बात को स्वीकार करने में बहुत समय लगा कि भारत सिंगापुर से कहीं विस्तृत, व्यापक और विविधतापूर्ण देश है और उसे विकास के किसी खांचे में आसानी से फिट नहीं किया जा सकता। वे इस बात को देर से समझे कि भारत में 20 से अधिक भाषाएं बोली जाती हैं, जबकि चीन की 90 फीसदी आबादी एक ही भाषा बोलती है। उन्होंने कहा था कि 'भारत अपनी नस्लीय विविधताओं और गठबंधन सरकारों को जन्म देने वाले बहुदलीय लोकतंत्र के अनुरूप ही आगे बढ़ सकेगा, जिसमें निर्णय लेना बहुत कठिन हो जाता है, लेकिन इसके बावजूद भारत दौड़ में पिछड़ रहा है और उसे थोड़ी फुर्ती दिखानी होगी।"
ली कुआन ने सुझाव दिया था कि भारत आसियान (एसोसिएशन ऑफ साउथईस्ट एशियन नेशंस) देशों का संस्थापक सदस्य बने, लेकिन शीतयुद्ध के उस दौर में भारत ने जितनी कूटनीतिक भूलें कीं, उनमें से एक यह भी थी कि उसने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया। बाद में यह क्षेत्र 'टाइगर इकोनॉमीज" के नाम से जाना गया, लेकिन इसमें अपना दबदबा बनाने का अवसर भारत ने गंवा दिया।
नरसिंह राव ने जो 'लुक ईस्ट" पॉलिसी बनाई थी, उसी को अब नरेंद्र मोदी अधिक गर्मजोशी के साथ 'एक्ट ईस्ट" पॉलिसी कहकर पुकार रहे हैं। नरसिंह राव और मनमोहन सिंह दोनों ही खुद को ली कुआन का शिष्य मानते थे और हालांकि वे यह बात जानते थे कि भारत सिंगापुर नहीं है, इसके बावजूद सिंगापुर-मॉडल की अहमियत से वे इनकार नहीं करते थे। हमें भूलना नहीं चाहिए कि चीन जैसे विशाल देश ने भी ली के सिंगापुर-मॉडल से काफी प्रेरणा ली है।
क्या नरेंद्र मोदी भारत के ली कुआन बन सकते हैं और क्या वे सिंगापुर की सफलता से कुछ जरूरी सबक सीख सकते हैं? वास्तव में मोदी और ली में अनेक समानताएं हैं। ली की तरह मोदी भी तत्पर प्रशासक, कुशल वक्ता और व्यावहारिक हैं। दोनों ही विकास के मॉडल को तरक्की का मूल मानते हैं। अपने आलोचकों से बहस करने का मोदी का अपना ही तरीका है। वे उन्हें अपने साथ लाने की कोशिश करने से भी नहीं कतराते। जिस तरह से उनकी पार्टी जम्मू-कश्मीर में सत्ता में साझेदार है, उसको देखकर पता चलता है कि मोदी दूर की सोचने वाले राजनेता हैं। और जिस तरह से उन्होंने ओबामा, शी जिनपिंग और शिंजो एबे के साथ व्यवहार किया, उससे पता चलता है कि उन्हें विदेशी दोस्तों के साथ बराबरी का सलूक करना आता है। लेकिन मोदी के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि उन्हें विकास की डगर पर अडिग बने रहना होगा। इसके लिए सबसे पहले तो उन्हें अपनी ही पार्टी में मौजूद उन पुरातनपंथियों से निपटना होगा, जिनका दृष्टिकोण मध्यकालीन है।
मोदी के पास इतनी मानसिक दृढ़ता है कि वे भारत के ली कुआन बन सकें। वे भारत को एक मध्यमार्गी गुटनिरपेक्ष देश के बजाय एक वैश्विक महाशक्ति बनाना चाहते हैं। लेकिन वे महज प्रधान शिल्पकार हैं और उनके पास प्रोजेक्ट इंडिया के लिए एक बहुत अच्छी डिजाइन है, लेकिन उन्हें अन्य कुशल शिल्पकारों की भी जरूरत है। उनके आसपास जो लोग मौजूद हैं, उन्हें उठकर मोदी के विजन के स्तर तक पहुंचना होगा

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