Saturday, 18 April 2015

महात्मा गांधी अब दक्षिण अफ्रीका में अश्वेतों के निशाने पर क्यों हैं? @पवन वर्मा



महात्मा गांधी जब पहली बार दक्षिण अफ्रीका पहुंचे तो श्वेत लोगों के निशाने पर आए और आज वे यहां अश्वेत समुदाय के गुस्से का शिकार बन रहे हैं.
इस हफ्ते दक्षिण अफ्रीका में सोशल नेटवर्किंग साइट ट्विटर पर GhandiMustFall हैशटेग अचानक ट्रैंडिंग टॉपिक बन गया. इसकी वजह यह रही कि बीते इतवार को जोहानेसबर्ग के गांधी चौराहे पर स्थित महात्मा गांधी की प्रतिमा पर सफेद रंग फेंका गया था. इस घटना ने भारत के राष्ट्रपिता को पूरे दक्षिण अफ्रीका में चर्चा का विषय बना दिया. जहां तक सोशल मीडिया की बात है तो उसपर अश्वेत आबादी का एक बड़ा तबका इस चौराहे से गांधी प्रतिमा हटाने की मांग कर रहा था. इन लोगों का कहना है कि गांधी उनके नायक नहीं हैं क्योंकि वे नस्लवादी थे. इस घटना ने सौ साल के बाद दक्षिण अफ्रीका में महात्मा गांधी को फिर बहस का विषय बना दिया.+
गांधी जी का विरोध यहां सबसे पहले 2003 में दिखा था जब जोहानेसबर्ग में गांधी चौराहे पर उनकी प्रतिमा का अनावरण हुआ था. उस समय गांधी विरोधियों का कहना था कि वे नस्लवादी थे और उन्होंने अश्वेतों को कभी बराबरी का दर्जा नहीं दिया
महात्मा गांधी 1893 में दक्षिण अफ्रीका पहुंचे थे और अगले 21 साल यहां रहे. एक ट्रेन के प्रथम श्रेणी के कंपार्टमेंट से निकाले जाने की घटना के बाद इस देश में भारतीयों के कानूनी और राजनीतिक अधिकारों की लड़ाई का नेतृत्व करने की वजह से वे उस वक्त यहां रंगभेदी सरकार के बड़े दुश्मन बन गए थे. कहा जाता है कि गांधी जी के सत्याग्रह और सविनय अवज्ञा आंदोलन की नीति ने अश्वेत लोगों को इसी तरह के विरोध प्रदर्शन करने व एकजुट होने के लिए प्रेरित किया. इतिहासकार मानते हैं कि अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस (एएनसी) की स्थापना की मूल प्रेरणा गांधी ही थे. इसी पार्टी ने ही अफ्रीका में रंगभेद नीति के विरोध में राजनीतिक आंदोलन खड़ा किया. एएनसी ने नेलसन मंडेला के नेतृत्व में 1994 का चुनाव जीता था और इसके साथ ही देश से रंगभेद औपचारिक रूप से खत्म हो गया.+
गांधी जी को प्रेरणा मानने वाले नेलसन मंडेला ने दक्षिण अफ्रीका में महात्मा गांधी की पहली प्रतिमा का अनावरण किया था. पीटरमारित्जबर्ग में इस अवसर पर उनका कहना था, ‘गांधी के कामों से ही इस देश की अश्वेत जनता को उम्मीद मिली कि उन्हें भी बराबरी का दर्जा मिल सकता है.’ मंडेला ताउम्र गांधी को अपनी प्रेरणा मानते रहे हैं. लेकिन इन सालों में महात्मा गांधी के प्रति विरोध भी इस देश में पनपता रहा. हैरानी की बात है कि यह विरोध उसी अश्वेत समुदाय में है जिसका सर्वोच्च नेता महात्मा गांधी को अपना प्रेरणा स्रोत मानता था.+
दक्षिण अफ्रीका में 1994 के बाद की पीढ़ी उस समय बनी राष्ट्रीय सरकार के बारे में मानती है कि तब अश्वेत आबादी को दमनकारियों से समझौता करना पड़ा था. आज अश्वेत युवाओं में यह खीज कट्टरता की हद तक बढ़ चुकी है
जोहानेसबर्ग में महात्मा गांधी की प्रतिमा
जोहानेसबर्ग में महात्मा गांधी की प्रतिमा
अश्वेत आबादी के बीच गांधी का विरोध सबसे पहले 2003 में तब दिखा था जब जोहानेसबर्ग में गांधी चौराहे पर इस प्रतिमा का अनावरण हुआ था. उस समय दक्षिण अफ्रीका में गांधी विरोधियों का कहना था कि वे नस्लवादी थे और उन्होंने अश्वेत आबादी को कभी बराबरी का दर्जा नहीं दिया. यह तबका दावा करता है कि वे अफ्रीका के नायक नहीं हैं क्योंकि इस देश में उनकी लड़ाई भारतीयों के हक की लड़ाई थी, न कि अश्वेतों के.+
2003 में गांधी जी की कथित तौर पर की गईं वे टिप्पणियां भी अखबारों छपीं जिनमें उनका अश्वेत लोगों के प्रति कथित दुराग्रह दिखता है. इनमें से एक में गांधी जी का कहना है कि कई स्थानीय कैदी पशुओं से सिर्फ एक स्तर ऊपर हैं और आपस में लड़ाई-झगड़ा करते रहते हैं. कहा जाता है कि यह टिप्पणी उस समय की है जब महात्मा गांधी दक्षिण अफ्रीका की एक जेल में थे. मीडिया में महात्मा गांधी का वह बयान भी चर्चित हुआ जिसमें उनका कहना था कि यूरोपियन भारतीयों को उन अश्वेतों के स्तर पर रखना चाहते हैं जिनके जीवन का एक ही उद्देश्य होता है कि वे ज्यादा से ज्यादा मवेशी इकट्ठा कर सकें, उनको बेचकर एक औरत खरीदें और पूरी जिंदगी काहिली व नग्नता के बीच बिताएं.+
कुछ लोग इसके पीछे यहां रह रहे भारतीय समुदाय के रवैए को भी जिम्मेदार मानते हैं. कहा जाता है दक्षिण अफ्रीका का संपन्न भारतीय समुदाय अश्वेतों के प्रति नस्ली भेदभाव बरतता है
तकरीबन एक दशक पुरानी इस घटना ने दक्षिण अफ्रीका की नई पीढ़ी के मन में महात्मा गांधी के प्रति एक संदेह पैदा किया था. लेकिन अब देश का बदलता राजनीतिक माहौल इसे भड़का रहा है. दक्षिण अफ्रीका की पत्रकार विराषणी पिल्लई अपने एक कॉलम में लिखती हैं कि 1994 के बाद की पीढ़ी रंगभेद नीति के समाप्त होने और नई सरकार के गठन पर यह सोचती है कि उसे समझौता करना पड़ा था. इस पीढ़ी को लगता है कि राष्ट्रीय सरकार का गठन करके उनके नेताओं को अपने दमनकर्ताओं से समझौता करना पड़ा था. आज 20-22 साल के अश्वेत युवाओं में यह खीज कट्टरता की हद तक बढ़ चुकी है.+
पिल्लई की बात काफी हद तक सही है क्योंकि दक्षिण अफ्रीका में पिछले कुछ समय से उपनिवेशवादी सरकार और रंगभेद नीति को बढ़ावा देने वाले ऐतिहासिक व्यक्तियों की प्रतिमाओं को निशाना बनाने का एक अभियान चल रहा है. इसी हफ्ते दक्षिण अफ्रीका के पांचवें राष्ट्रपति पॉल क्रूगर की प्रिटोरिया स्थित प्रतिमा पर रंग फेंका गया था. इसके अलावा नौ तारीख को ही एक अंग्रेज व्यापारी और राजनेता सेसिल रोड्स की प्रतिमा को यूनिवर्सिटी ऑफ केपटाउन से हटाया गया.  मार्च के अंतिम सप्ताह में डरबन स्थित किंग जॉर्ज की प्रतिमा पर सफेद रंग फेंका गया था. इसके बाद पोर्ट एलिजाबेथ में क्वीन विक्टोरिया की प्रतिमा को निशाना बनाया गया. केपटाऊन के काउंसिलर याह्या एडम एक मीडिया वेबसाइट से बात करते हुए इन घटनाओं को अश्वेत राष्ट्रवाद से जोड़ते हैं.+
‘गांधी जी जब दक्षिण अफ्रीका गए थे तो उनका उद्देश्य गिरमिटियाओं के साथ हो रहे अत्याचार के खिलाफ लड़ना था. उन्होंने हिंदुस्तान आकर जो किया उसे देखें तो यदि अफ्रीका में किसी को उनसे जो शिकायतें बताई जा रही हैं, वे हैं, तो वे सही नहीं हैं’
महात्मा गांधी बेशक श्वेत दमनकारी की श्रेणी में नहीं आते लेकिन उनकी पुरानी कथित टिप्पणियों की वजह से वे इस तबके का निशाना बन रहे हैं. कुछ लोग इसके पीछे यहां रह रहे भारतीय समुदाय के रवैए को भी जिम्मेदार मानते हैं. कहा जाता है दक्षिण अफ्रीका का संपन्न भारतीय समुदाय अश्वेतों के प्रति नस्ली भेदभाव बरतता है. यूनिवर्सिटी ऑफ कंसास में प्रोफेसर सुरेंद्र भाना एक रिपोर्ट में कहते हैं कि महात्मा गांधी की प्रतिमा पर रंग फेंकना प्रतीकात्मक हरकत है जो अफ्रीकियों और भारतीयों के तनावपूर्ण संबंध से जुड़ी है, खासकर उस समय के संबंध जब गांधी दक्षिण अफ्रीका प्रवास पर थे.+
प्रख्यात गांधीवादी और पर्यावरणविद अनुुपम मिश्र कहते हैॆ, ‘एक तो यह विरोध इतना नहीं होगा जितना यहां से, वहां या यहां के मीडिया को देखकर लग रहा है. किसी एक या दो का किया भी आज समाज के एक बड़े हिस्से का किया लग सकता है. दूसरा, गांधी जी जब दक्षिण अफ्रीका गए थे तो उनका मुख्य उद्देश्य गिरमिटियाओं के साथ हो रहे अत्याचार के खिलाफ लड़ना था. बाद में जो उन्होंने हिंदुस्तान आकर किया उसे देखें तो यदि अफ्रीका में किसी को उनसे जो शिकायतें बताई जा रही हैं, वे हैं, तो वे सही नहीं हो सकतीं.’+
कुछ लोग गांधी चौराहे की घटना को अश्वेत राष्ट्रवादी आंदोलन की उस कड़ी के रूप में भी देख रहे हैं जहां दक्षिण अफ्रीकी समाज का एक तबका सभी श्वेत दमनकारी व्यक्तियों से जुड़े इतिहास को कूड़ेदान में डाल देना चाहता है. इस मामले में गांधी बड़े प्रतीक नहीं हैं. लेकिन पिल्लई अपने कॉलम में कहती हैं कि इसके बाद भी दक्षिण अफ्रीका की युवा पीढ़ी आने वाले समय में महात्मा गांधी के विचारों और कामों पर और सवाल खड़े करेगी.

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