Thursday, 28 May 2015

मीडिया की उपज तो न था बोफोर्स @सीमा मुस्‍तफा

लगता है कि बोफोर्स का भूत इतनी जल्दी हमारा पीछा नहीं छोड़ने वाला है। जब ऐसा लगने लगा था कि केंद्र में कांग्रेसनीत सरकार के लगातार दो कार्यकालों के बाद अब जाकर बोफोर्स कांड को सफलतापूर्वक भुला दिया जा सकेगा, तभी राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी जाने-अनजाने इसे फिर से सुर्खियों में ले आए। राष्ट्रपति ने कहा कि वह घोटाला वास्तव में मीडिया की उपज था, और चूंकि किसी भी भारतीय अदालत में उस पर सुनवाई नहीं हुई, लिहाजा उसे घोटाला कहना भी ठीक नहीं।
जब बोफोर्स कांड हुआ था, तब भी मुखर्जी कांग्रेस पार्टी के वरिष्ठ नेताओं की श्रेणी में शुमार थे। अब जब वे देश के राष्ट्रपति हैं तो एक स्वीडिश अखबार से बातचीत में उन्होंने उपरोक्त बातें कहीं। उनसे भ्रष्टाचार के संबंध में एक सवाल पूछा गया था, जिसमें बोफोर्स का खास तौर पर उल्लेख था। अखबार ने बोफोर्स वाली बात को प्रमुखता से छापा, जिससे भारत सरकार और राष्ट्रपति भवन दोनों ही कुपित हो गए। भारत सरकार ने कथित तौर पर यह भी प्रस्ताव रखा कि राष्ट्रपति के इंटरव्यू से विवादास्पद कथन को निकाल दिया जाए। इस तथ्य का खुलासा खुद अखबार के संपादक ने किया। जाहिर है, भारत सरकार की बात नहीं मानी गई और दबावों को दरकिनार करते हुए इंटरव्यू को जस का तस प्रमुखता से प्रकाशित किया गया। अब विदेश मंत्रालय का कहना है कि उसने कभी भी ऐसा नहीं कहा था कि राष्ट्रपति के इंटरव्यू से बोफोर्स संबंधी कथनों को हटा दिया जाए। उसने बस इतना ही कहा था कि स्वीडन और स्विट्जरलैंड के संबंध में राष्ट्रपति द्वारा 'भूलवश" जो बातें कही गई हैं, उन्हें दुरुस्त कर लिया जाए।
बहरहाल, बोफोर्स घोटाले से जुड़े लोगों की अब या तो मृत्यु हो चुकी है या फिर वे मजे से अपनी जिंदगी बिता रहे हैं। बोफोर्स घोटाले की फाइल बंद कर दिए जाने के बाद इन पंक्तियों की लेखिका ने स्टॉकहोम में स्वीडिश जांचकर्ता श्टेन लिंडश्टोर्म से दस घंटे लंबा इंटरव्यू लिया था। लिंडश्टोर्म इस बात को लेकर बिलकुल स्पष्ट थे कि होवित्जर तोपों की खरीद-फरोख्त में घपला हुआ था, लेकिन भारतीय अधिकारी इस मामले को रफा-दफा करने में कामयाब रहे थे और भारत में बोफोर्स मामले की जांच को प्रभावित करने के लिए तब एक बड़ा षड्यंत्र रचा गया था। लिंडश्टोर्म ने लंदन स्थित ऐसे बैंक खातों का भी जिक्र किया, जिन्हें कि तत्कालीन ब्रिटिश सरकार द्वारा सील कर दिया गया था। उनका कहना है कि यदि इन खातों की छानबीन की जाती तो बोफोर्स सौदे को लेकर महत्वपूर्ण जानकारियां हाथ लग सकती थीं और घोटाले के सूत्रधारों का पता लगाया जा सकता था। लेकिन ऐसा किया नहीं गया। उलटे खातों को सील करने की प्रक्रिया ही इतनी लेतलाली से हुई कि उससे पहले ही खाताधारकों ने उसमें जमा अपना पैसा निकाल लिया। लिंडश्टोर्म का मत था कि राजीव और सोनिया गांधी के करीबी इतालवी कारोबारी ओत्तावियो क्वात्रोची होवित्जर तोपों के सौदे को बोफोर्स के लिए अधिक मुनाफेदार बनाने के खेल में शामिल नहीं थे, क्योंकि जांचकर्ता के अनुसार उन्हें ज्यादा पैसों का भुगतान नहीं किया गया था।
जांच की फाइल बंद कर दिए जाने से निराश लिंडश्टोर्म का मत था कि बोफोर्स मामले की लगभग तह तक पहुंचा जा चुका था और अगर भारतीय अधिकारी थोड़ा और प्रयास करते तो उसका पूरी तरह से खुलासा किया जा सकता था। वास्तव में वे हमेशा ही इस बात को लेकर चिंतित थे कि इस मामले में जरूरी कदम नहीं उठाए जाएंगे और अंतत: वैसा ही हुआ भी। केंद्र सरकार के निर्देशों के तहत भारतीय अधिकारियों ने आखिरकार इस मामले को ठंडे बस्ते में डाल दिया।
बोफोर्स हर मायने में एक घोटाला था। यह पहला ऐसा मामला था, जिसमें घूसखोरी की पुष्टि वास्तव में स्वीडिश रेडियो द्वारा की गई थी। हथियारों के सौदे में हुए इस भ्रष्टाचार ने तब भारत और स्वीडन दोनों देशों के पत्रकारों में गहरी दिलचस्पी जगा दी थी, क्योंकि इस मामले के तार शीर्ष स्तर तक जुड़े हुए जान पड़ते थे। मजे की बात यह है कि बोफोर्स तोपों की गुणवत्ता का मामला तो इस दौरान पूरी तरह से पृष्ठभूमि में चला गया था। तब हुए चुनावों के दौरान तो यह आलम था कि बोफोर्स का नाम बच्चे-बच्चे की जुबान पर था।
बोफोर्स घोटाला जब सामने आया तब वीपी सिंह तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी की कैबिनेट में वित्त मंत्री थे। इन पंक्तियों की लेखिका को उन्होंने बताया था कि उन्होंने बोफोर्स की फाइलों को मंजूरी नहीं दी थी। तब प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने उन्हें बुलाया और कुछ सप्ताह बाद फाइलों को मंजूरी दे देने को कहा, क्योंकि अनुबंध पर हस्ताक्षर करने की डेडलाइन लगभग पूरी हो चुकी थी। सिंह ने बताया था कि उन्होंने इस सौदे को लेकर अपने मंत्रालय की आपत्तियों को बाकायदा दर्ज कर उन्हें प्रधानमंत्री तक भिजवाया था, लेकिन उसके बाद उन्हें फिर वह फाइल देखने को नहीं मिली। बाद में, जैसा कि जगजाहिर है, बोफोर्स सौदा पट गया था।
लेकिन वीपी सिंह इस सौदे में हुई लेतलाली के मसले को सड़कों पर ले आए थे। उन्होंने कांग्रेस छोड़ी और जनता दल का गठन किया। 1989 का आम चुनाव बोफोर्स के मुद्दे पर लड़ा गया था और इसी के दम पर जनता दल ने कांग्रेस को हराकर सरकार बनाने में कामयाबी पाई। वीपी सिंह देश के प्रधानमंत्री बने। देश की सरकार उलट देने वाला यह घोटाला कोई छोटा-मोटा घपला नहीं था और यह मीडिया द्वारा रची गई कहानी तो कतई नहीं थी, जैसा कि राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी द्वारा कहा जा रहा है। यह घूसखोरी की एक सच्ची दास्तान थी, जिसके बारे में पुख्ता सबूत मौजूद थे। स्वीडिश अधिकारियों द्वारा की गई जांच में इस मामले से जुड़े अनेक ब्योरे उभरकर सामने आए थे।
स्वीडिश अखबार देगेन्स नेहेतर (डीएन) ने इस मामले में भारत सरकार की कथित मांग को ठुकराकर वही किया, जो कि आत्मसम्मान से भरा कोई भी मीडिया संस्थान करता। उसने राष्ट्रपति मुखर्जी का इंटरव्यू छापा और उसमें कोई भी बदलाव करने से इनकार कर दिया। ये अलग बात है कि अब सरकार इस बात से इनकार कर रही है कि उसने बदलाव करने को कहा भी था।

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