Monday, 18 May 2015

नए हालात में बदलता ईरान @महेंद्र राजा जैन

पश्चिम एशिया के कई देशों में इस्लामिक स्टेट के निरंतर बढ़ते प्रभाव से पश्चिम के देश ही परेशान हों, ऐसा नहीं है। इस आतंकवादी संगठन की सक्रियता की वजह से ईरान जैसे देश परेशान भी हैं और भविष्य को लेकर भयाक्रांत भी। आईएसआईएस की आक्रामक सक्रियता ने ईरान और पश्चिमी देशों को एक साथ ला खड़ा किया है। सोच के स्तर पर ईरान और पश्चिमी देशों में दूरी हो सकती है,  लेकिन अब इनके बीच में मित्रता का भाव पनपने लगा है। इतिहास के इस मोड़ पर दोनों का दुश्मन एक है,  इसलिए वे साथ आ गए हैं। इसी का नतीजा है कि ईरान व अमेरिका परमाणु हथियारों के मसले पर अपने तनाव को खत्म करने की ओर बढ़ रहे हैं। दूसरी तरफ,  ब्रिटेन के विदेश मंत्रालय ने घोषणा की है कि ईरान की राजधानी तेहरान में जल्दी ही ब्रिटेन अपना दूतावास फिर से खोलेगा। हालांकि,  इसकी प्रक्रिया पिछले काफी समय से चल रही थी। यह कोई साधारण बात नहीं है। नवंबर 2011 में,  जब ब्रिटेन ने अपने यहां के बैंकों में जमा ईरान की अरबों की संपत्ति को फ्रीज कर दिया था,  तब उसके परिणामस्वरूप तेहरान स्थित ब्रिटिश दूतावास के अधिकारियों व उनके परिवार को बहुत ही भयावह स्थिति से गुजरना पड़ा था। ईरान की संपत्ति को फ्रीज करने का वह फैसला अमेरिका, ब्रिटेन और कनाडा ने संयुक्त रूप से लिया था। तेहरान स्थित ब्रिटिश दूतावास और राजनयिक के गोलहाक गार्डेन स्थित आवास को छात्रों के गुटों द्वारा घेर लिया गया और ईरान की पुलिस तमाशबीन बनी देखती रही। उपद्रवियों ने दूतावास के कंप्यूटर लूट लिए और पूरे दूतावास की संपत्ति को बर्बर तरीके से नष्ट कर दिया। इतना ही नहीं,  उन्होंने दूतावास से ब्रिटिश झंडा हटाकर उसकी जगह ईरान का झंडा लहरा दिया था। हालात इस कदर बिगड़ गए थे कि ब्रिटिश सरकार ने वहां अपना दूतावास बंद कर दिया और पूरे स्टाफ को वापस बुला लिया था। उसके बाद तेहरान फिर से लौटना आसान नहीं रह गया था। ब्रिटेन का तेहरान स्थित दूतावास पिछली पूरी सदी में किसी न किसी कारण से उस दुकान के समान खुलता और बंद होता रहा है,  जिसका सही उपयोग कोई नहीं समझ पाया। ईरान शुरू से ही ब्रिटेन को अपने आंतरिक मामलों में बेवजह टांग अड़ाने वाला मानता रहा है और ब्रिटेन भी वास्तव में ईरान के मामलों में किसी न किसी प्रकार दखल देता रहा है। यह सब 19वीं सदी से ही चला आ रहा है। हालांकि, 1943 में तेहरान कांफ्रेंस के समय तेहरान स्थित दूतावास की यह इमारत विंस्टन चर्चिल की वर्षगांठ मनाने के लिए सर्वाधिक सुरक्षित एवं उपयुक्त जगह मानी गई थी। उस कांफ्रेंस में भाग लेने के लिए रूस से जोजफ स्टालिन और अमेरिका के राष्ट्रपति फ्रेंकलिन डी रूजवेल्ट भी आए थे। हालांकि,  इस मुलाकात का मकसद दूसरे विश्व युद्ध के दौरान चल रहे राजनयिक प्रयासों को दिशा देना था। 1952 में जब ईरान ने ब्रिटिश ऑयल कंपनी का राष्ट्रीयकरण कर लिया,  तो ईरान के तत्कालीन प्रधानमंत्री मोहम्मद मोसद्दिकको शक हुआ कि ब्रिटेन उनके तख्तापलट की योजना बना रहा है। इसके बाद ब्रिटेन का तेहरान स्थित दूतावास बंद कराकर उसके कर्मचारियों को वापस ब्रिटेन भेज दिया गया। फिर भी जब उनकी सरकार का तख्तापलट हुआ,  तो यही कहा गया कि इसमें ब्रिटेन के साथ अमेरिका भी शामिल था। सत्ता बदलने पर तेहरान में ब्रिटेन का दूतावास फिर से खुला,  लेकिन जल्द ही उसके फिर से बंद होने की नौबत आ गई। ईरान में 1979  की इस्लामी क्रांति के समय जब आंदोलनकारियों ने मुहम्मद रजा शाह पहलवी को ईरान की गद्दी से हटा दिया,  तब अमेरिकी दूतावास की तरह ब्रिटिश दूतावास पर उस वक्त हमला नहीं किया गया,  बावजूद इसके कि वहां छह अमेरिकी राजनयिक एक रात छिपे रहे थे। ईरान ने इसका बदला दूसरी तरह से लिया। कट्टरपंथियों ने ब्रिटेन को चिढ़ाने के लिए उस सड़क का नाम बदल दिया,  जहां ब्रिटिश दूतावास था। इस सड़क का नया नाम था, ‘बॉबी सेंड्स स्ट्रीट।’  बॉबी सेंड्स आयरलैंड में ब्रिटेन के खिलाफ लड़ रहे आतंकवादी संगठन आयरिश रिपब्लिकन आर्मी का नेता था। उसके बाद तो तेहरान का ब्रिटिश दूतावास किसी न किसी कारण से निरंतर ब्रिटेन-विरोधी ईरानी गुटों के निशाने पर रहा और उसके आगे धरने-प्रदर्शन होते रहे,  इसलिए इसे आंशिक तौर पर बंद कर दिया गया। इस बीच दोनों के रिश्तों में एक और मोड़ आया,  जब इस्लामी क्रांति के विरोधियों ने लंदन के ईरानी दूतावास पर कब्जा करके वहां काम करने वालों को बंधक बना लिया। ब्रिटिश सुरक्षाकर्मियों ने इन लोगों को मार गिराया और बंधकों को छुड़ा लिया। 1987 में तेहरान में वरिष्ठ ब्रिटिश राजनयिक एडवर्ड चैपलिन का ईरानी क्रांतिकारियों ने अपहरण करके पीटा,  तो दूतावास पूरी तरह से बंद कर दिया गया। लेकिन एक साल बाद ही यह फिर से खोल दिया गया। हालांकि,  दोनों के रिश्ते फिर बिगड़ गए,  जब भारतीय मूल के ब्रिटिश लेखक सलमान रुश्दी के खिलाफ ईरान ने फतवा जारी कर दिया। एक दशक बाद,  ये रिश्ते फिर सुधरे और दोनों देशों ने एक-दूसरे के लिए अपने राजदूत नियुक्त कर दिए। हालांकि,  रिश्तों के बनने-बिगड़ने का यह क्रम जारी रहा। रिश्तों की इस उथल-पुथल में दिलचस्प बात यह है कि ईरान में ब्रिटेन के खिलाफ इस प्रकार का जनाक्रोश सामान्यत: शांतिपूर्ण ही रहा है। एक बार तो दूतावास के बाहर धरना दे रहे विद्रोहियों के एक नेता ने दूतावास का दरवाजा खटखटा कर वहां के स्टाफ से कहा कि उसके एम्प्लीफायर का प्लग वे दूतावास के सॉकिट से जोड़ लेने दें। दूतावास के अधिकारी ने जब उत्तर में कहा कि दूतावास में जो सॉकिट लगे हुए हैं, वे सब यूरोपियन स्टैंडर्ड के हैं, इस कारण उसके एम्प्लीफायर का प्लग वहां नहीं लग पाएगा,  तो वह शांति से वापस चला गया। मगर कुछ ही देर बाद वह फिर लौटा और कहा कि यदि दूतावास में कोई अतिरिक्त ‘यूनियन जैक’ (ब्रिटेन का राष्ट्रीय ध्वज) हो तो दे दें, ताकि प्रदर्शनकारी उसे जला सकें। अब जब फिर तेहरान में ब्रिटिश दूतावास खुल रहा है, तो यह कामना ही की जा सकती है कि ब्रिटिश राजदूत और दूतावास के कर्मचारी वहां शांतिपूर्वक रह पाएंगे,  क्योंकि इस दोस्ती की बहाली में पुरानी गलतियों का एहसास नहीं है, सिर्फ दुश्मन समान होने की मजबूरी छिपी हुई है। इसलिए अब बहुत कुछ हालात और नेतृत्व पर निर्भर करेगा कि यह दोस्ती कहां तक जाती है। यह देखना दुनिया के सभी देशों और खासकर पश्चिम के देशों के लिए महत्वपूर्ण होगा।

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