भारत आम की पैदावार के मामले में दुनिया में सरताज है | इलस्ट्रेशन : मनीषा यादव
जिस आम के इश्क में ह्वेनसांग, इब्न बतूता से लेकर गालिब, जोश मलीहाबादी और गुलजार तक कुछ न कुछ लिख चुके हैं उसका उल्लेख रामायण-महाभारत जैसे पौराणिक ग्रंथों में भी मिलता है.
आम भी अब ‘आम’ नहीं रह गया. कभी वह पार्टी बन कर खास हो जाता है तो कभी नेता बन कर. लेकिन गर्मियों में चुनावों की गर्मी से दूर, यहां बात आदमी की नहीं, फलों के राजा आम की ही हो रही है. जिस तरह आम को फलों का राजा कहा जाता है उसी तरह दशहरी आम को आमों का राजा. उस पर भी किसी आम का नाम अगर ‘नमो’ हो तो फिर वह भी खास होगा ही. उसे चूसने से पहले आम के शौकीनों को सौ बार सोचना पड़ेगा कि वे वाकई आम ही चूस रहे हैं, कुछ और नहीं.+
‘नमो’ आम की एक नई प्रजाति है जिसे मलीहाबाद के आम इंजीनियर और मैंगोमैन हाजी कलीमुल्ला खान ने विकसित किया है. आम की यह नई नस्ल ज्यादा खूबसूरत और रस से भरी है. इसका नाम प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नाम के पीछे रखने के कलीमुल्लाह के अपने तर्क हैं. उनका कहना है कि ‘जिस तरह नरेंद्र मोदी दुनिया में भाईचारे की मिठास बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं, उसी तरह यह नमो आम भी जायके की दुनिया में सबका प्यारा बन सकता है.’ कलीमुल्लाह जल्द ही इस आम को पेटेंट कराने जा रहें हैं.+
80 के दशक में सऊदी अरब के एक शेख ने उन्हे वजन के बराबर सोना देने के एवज में वहीं रहकर आम के बागान लगाने का ऑफर दिया था. लेकिन कलीमुल्लाह ने अपनी मिट्टी की मोहब्बत में उसे ठुकरा दिया.
कलीमुल्लाह खान 1957 से आम की बागवानी से जुड़े हैं. आम उनका दीन है, दीवानगी है, इबादत है, सपना है, जुनून है, दिल की धड़कन हैं, दिमाग की हलचल हैं और वह हर कुछ जो वे हैं. अगर सिर्फ चार शब्दों में कहें तो आम उनकी जिन्दगी हैं. आम की इसी दीवानगी के चलते कुछ लोग उन्हें ‘आम इंसान’ कहते हैं तो कुछ आम का दीवाना. कुछ उन्हें आम का खब्ती तक कहने से नहीं चूकते. हालांकि उनकी इसी खब्त ने उन्हें ‘पद्मश्री’ बना डाला और उनकी जुबान को इतना मीठा कि गोया आम के सारे बागों का रस उसी में धुल गया हो.+
72 साल की उम्र में भी, लखनऊ के करीब के मलीहाबाद कस्बे के हाजी कलीमुल्लाह खान की आम के प्रति दीवानगी में कोई कमी नहीं आई है. अपनी नर्सरी में एक पेड़ पर कलमें बांध कर 300 से ज्यादा किस्म के आम पैदा करके बना उनका अनूठा रिकार्ड आज उनके ही दूसरे कारनामों में कहीं खो चुका है.+
उन्हीं कलीमुल्ला खान का सबसे नया कारनामा है ‘नमो’ आम! हालांकि इससे पहले वे सचिन तेंदुलकर और पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम के नामों पर भी आम की नस्लें बना चुके हैं. नमो के चर्चा में आ जाने के बाद कलीमुल्ला खुश तो बहुत हैं लेकिन इस बात पर अफसोस भी जताते हैं कि वे अब तक महात्मा गांधी के नाम से आम की नस्ल नहीं बना पाए. वे कहते हैं, ‘लेकिन हमें सबसे पहले महात्मा गांधी के नाम से एक नए आम का नाम रखना था. गांधी जी ने हमको गुलामी से आजाद करवाया था. हमसे बड़ी गलती हो गई.’ मुल्क से उनकी मोहब्बत का आलम यह है कि 80 के दशक में सऊदी अरब के एक शेख ने उन्हे वजन के बराबर सोना देने के एवज में वहीं रहकर आम के बागान लगाने का ऑफर दिया था. लेकिन कलीमुल्लाह ने अपनी मिट्टी की मोहब्बत में उसे ठुकरा दिया.+
उन दिनों अगर दशहरी आम किसी को तोहफे में भेजा भी जाता था तो उसमें छेद कर दिया जाता था ताकि कोई और उसके बीज से नया पेड़ न बना ले.
लखनऊ के आस-पास की मिट्टी और आबोहवा आम के लिए खास है. उत्तर भारत का सबसे प्रसिद्ध दशहरी आम काकोरी के पास दशहरी गांव से ही सारी दुनिया में मशहूर हुआ था. इस गांव में दशहरी आम का सबसे पुराना, पहला पेड़ अब भी फल दे रहा है. इस पेड़ पर कभी अवध में नवाबों के खानदान का मालिकाना हक था. तब फलों के मौसम में इस पेड़ पर जाल डाल दिया जाता था. पेड़ से फल कोई चुरा न ले इसके लिए उस पर पहरा बैठा दिया जाता था. उन दिनों अगर दशहरी आम किसी को तोहफे में भेजा भी जाता था तो उसमें छेद कर दिया जाता था ताकि कोई और उसके बीज से नया पेड़ न बना ले. मलीहाबाद के एक पठान जमींदार ईसा खान ने लगभग डेढ़ सौ साल पहले नवाबों के एक पासी गुडै़ते (बाग में गुड़ाई और कटाई-छटाई करने वाला) की मदद से इसका एक पेड़ हासिल किया और फिर दशहरी गांव से फैलकर इस आम ने सारी दुनिया में अपना सिक्का जमा दिया. आज भी मलीहाबाद के गांवों मे बड़े-बूढ़ों की जुबान से दशहरी को लेकर तरह-तरह के किस्से सुनने को मिल जाते हैं.+
मलीहाबाद के इलाके में ही आम की एक और लाजवाब नस्ल चौसा विकसित हुई. संडीला के पास एक गांव है चौसा. वहां एक बार एक जिलेदार ने अपने दौरे के दौरान गांव के एक पेड़ का आम खाया. खास स्वाद और खुशबू के कारण उसे यह आम बहुत पसन्द आया. उसने गांव वालों से उसका एक पेड़ हासिल कर लिया और बाद में नवाब संडीला को इसकी खबर दी. फिर नवाब संडीला के जरिए चौसा की नस्ल कई जगह फैल गई.+
आम की कई और किस्मों के नामकरण के भी अलग-अलग किस्से हैं. इसकी जिस जायकेदार नस्ल को लंगड़ा कहा जाता है वह बनारस के एक लंगड़े फकीर के घर के पिछवाड़े में सबसे पहले उगी था. आम की इस नस्ल का स्वाद सबसे अलग था और फकीर के पास आने वालों के जरिए इसकी शोहरत दूर-दूर तक पहुंच गई. इसी तरह बिहार में भागलपुर के एक गांव में फजली नाम की एक औरत के घर पैदा हुए एक और खास आम का नाम फजली पड़ गया.+
आम की कई और किस्मों के नामकरण के भी अलग-अलग किस्से हैं. इसकी जिस जायकेदार नस्ल को लंगड़ा कहा जाता है वह बनारस के एक लंगड़े फकीर के घर के पिछवाड़े में सबसे पहले उगी था.
भारतीय जनमानस में अनेक किस्से कहानियों से जुड़े आम की जन्मभूमि भी मूलतः पूर्वी भारत में असम, बांग्लादेश व म्यांमार मानी जाती है. भारत से ही आम पूरी दुनिया में फैला. चौथी-पांचवी सदी में बौद्ध धर्म प्रचारकों के साथ आम मलेशिया और पूर्वी एशिया के देशों तक पहुंचा. पारसी लोग 10वीं सदी में इसे पूर्वी अफ्रीका ले गए. पुर्तगाली 16वीं सदी में इसे ब्राजील ले गए. वहीं से यह वेस्टइंडीज और मैक्सिको पहुंचा. अमेरिका में यह सन् 1861 में पहली बार उगाया गया.+
भारत में रामायण-महाभारत जैसे पौराणिक ग्रंथों में आम का उल्लेख मिलता है. इस बात का भी जिक्र मिलता है कि सन् 327 ईसा पूर्व में सिकंदर के सैनिकों ने सिधु घाटी में आम के पेड़ देखे थे. ह्वेनसांग ने भी आम का जिक्र किया है और इब्न बतूता के विवरणों में तो कच्चे आम का अचार बनाने और पके आम को चूस कर अथवा काट कर खाने का भी उल्लेख मिलता है. मुगल बादशाहों को भी आम बहुत प्रिय था. कहा जाता है कि सम्राट अकबर ने दरभंगा में एक लाख आम के पेड़ लगवाए थे. मुगलवंश के संस्थापक जलालुद्दीन बाबर को भी आम पंसद थे. बाबरनामा में जिक्र है कि ‘आम अच्छे हों तो बहुत ही बढि़या होते हैं पर बहुत खाओ तो थोडे़ से ही बढि़या वाले मिलेंगे. अक्सर कच्ची केरियां तोड़ लेते हैं और पाल डाल कर पकाते हैं. गदरी केरियों का कातीक (मुरब्बा) लाजवाब बनता है. शीरे में भी अच्छा रहता है. कुल मिलाकर यहां का सबसे बढि़या फल यही है. कुछ लोग तो सरदे के सिवा किसी और फल को इसके आगे कुछ मानते ही नहीं.’+
भारत आज भी आम की पैदावार के मामले में दुनिया में सरताज है. पूरी दुनिया में हर साल लगभग साढ़े तीन करोड़ टन आम पैदा होता है. इसमें से करीब डेढ़ करोड़ टन अकेले भारत में होता है. भारत के बाद क्रमशः चीन, मैक्सिको, थाइलैंड और पाकिस्तान का स्थान आता है. यूरोप में स्पेन में सबसे अधिक आम होता है और वहां का आम अपनी खास तीखी महक के कारण अलग पहचाना जाता है. अफ्रीकी देशो के आमों के रंग बेहद आकर्षक होते हैं.+
आमों को फलों का राजा यों ही नहीं कहा जाता. ‘आम के आम गुठलियों के दाम’ की तर्ज पर इसकी हर एक चीज काम में आती है. इसकी पत्तियां शुभ अवसरों पर वन्दनवार बनाने में काम आती हैं तो सूखी लकडि़यां फर्नीचर के अलावा हवन-यज्ञ आदि में काम आती हैं.
आमों को फलों का राजा यों ही नहीं कहा जाता. ‘आम के आम गुठलियों के दाम’ की तर्ज पर इसकी हर एक चीज काम में आ जाती है. इसकी पत्तियां शुभ अवसरों पर वन्दनवार बनाने में काम आती हैं तो इसकी सूखी लकडि़यां फर्नीचर के अलावा हवन-यज्ञ आदि में काम आती हैं. आम की घनी छांव की तो बात ही कुछ और है. कच्चे आम अमचूर, अचार और गर्मियों में लू से बचने के लिए पना (एक विशेष नमकीन पेय) बनाने में काम आते हैं तो पका फल खाने के अलावा मैंगो शेक, मैंगोड्रिंक्स, आम पापड़, स्कवैश, जैम, जैली मुरब्बा और आम की खीर जैसे व्यंजन बनाने में. आम में विटामिन ए, बी, सी के अलावा कैल्सियम, मैग्नीशियम, फॉस्फोरस, पोटेशियम, जिंक और आयरन जैसे खनिज तत्व भी खासी मात्रा में पाए जाते हैं और अनेक आयुर्वेदिक तथा यूनानी दवाओं में भी इसका उपयोग होता है.+
मलीहाबाद के आस-पास के इलाके के लिए तो दशहरी आम ऊपर वाले की सबसे बड़ी नियामत है. इस पूरे इलाके की अर्थव्यवस्था, शादी-ब्याह, उत्सव, खरीदादारी और तमाम खुशियां, सब कुछ दशहरी की फसल के अच्छे- बुरे होने से जुड़ी हैं.+
गालिब से लेकर, मलीहाबाद में जन्मे क्रान्तिकारी शायर जोश मलीहाबादी और आज के शायर गुलजार तक आम के इश्क में कुछ न कुछ लिख चुके हैं.+
लेकिन आम के बागों की सेहत दुरूस्त रखने के लिए बूढ़े पेड़ों का विछोह भी जरूरी है. आम के ‘एनसाइक्लोपीडिया’ कलीमुल्लाह मानते हैं कि आज आम की सबसे बड़ी बीमारी, सबसे बड़ी समस्या इनका घनाव है
जोश मलीहाबादी ने हिन्दुस्तान छोड़ते समय जो लिखा वह न जाने कितनी बार किस-किस ने दोहराया है –+
आम के बागों में जब बरसात होगी पुरखरोश
मेरी फुरकत में लहू रोएगी, चश्मे मय फरामोश
रस की बूदें जब उड़ा देंगी गुलिस्तानों के होश
कुंज-ए-रंगी में पुकारेंगी हवांए ‘जोश जोश’
सुन के मेरा नाम मौसम गमज़दा हो जाएगा
एक महशर सा महफिल में गुलिस्तांये बयां हो जाएगा
ए मलीहाबाद के रंगीं गुलिस्तां अलविदा.+
मेरी फुरकत में लहू रोएगी, चश्मे मय फरामोश
रस की बूदें जब उड़ा देंगी गुलिस्तानों के होश
कुंज-ए-रंगी में पुकारेंगी हवांए ‘जोश जोश’
सुन के मेरा नाम मौसम गमज़दा हो जाएगा
एक महशर सा महफिल में गुलिस्तांये बयां हो जाएगा
ए मलीहाबाद के रंगीं गुलिस्तां अलविदा.+
गुलजार ने तो एक कविता में आम के दरख्त के बहाने जिन्दगी का पूरा फलसफा ही कह डाला है+
मोड़ पर देखा है वो बूढ़ा इक आम का पेड़ कभी
मेरा वाकिफ है, बहुत सालों से मैं जानता हूं.+
मेरा वाकिफ है, बहुत सालों से मैं जानता हूं.+
लेकिन आम के बागों की सेहत दुरूस्त रखने के लिए बूढ़े पेड़ों का विछोह भी जरूरी है. आम के ‘एनसाइक्लोपीडिया’ कलीमुल्लाह मानते हैं कि आज आम की सबसे बड़ी बीमारी, सबसे बड़ी समस्या इनका घनाव है, वे कहते हैं, ‘आज बागों में आम के पेडों के बीच दूरी बढ़ा दी जाए, बीच के पेड़ काट दिए जाएं तो हर पेड़ का दायरा फैलेगा और पेड़ चौड़ाई में जितना फैलेगा उतना ही उसमें ज्यादा जान होगी, उतनी ही ज्यादा पैदावार होगी. इसलिए कटाई और छंटाई जरूरी है.’+
कभी मलीहाबाद के आम के बागों में आम की दावतें हुआ करती थीं, शेरोशायरी की महफिलें सजा करती थी, डालों पे झूले पड़ते थे, परिंदे चहका करते थे और जिन्दगी में सचमुच बहार आ जाती थी. बदलते जमाने की रफ्तार में बाग तो बरकरार हैं मगर बहार नदारत हो गई है. फिर भी जिस किसी को आम की प्यास बुझाने का कोई उपाय ढूंढ़ना हो और आम की असली लज्जत का मजा लेना हो, उसे आम के दिनों में मलीहाबाद का एक चक्कर जरूर लगाना चाहिए. जिस तरह मलीहाबाद के इलाके में बागों को काट कर प्लॉटिंग होने लगी है उसके चलते हो सकता है कि कुछ सालों में मलीहाबाद में बहार के बाद आम के पेड़ भी देखने को न मिल पाएं.
No comments:
Post a Comment