मेरठ जिले का मलियाना क़स्बा. साल 1987 में यहां जो सांप्रदायिक दंगे हुए, वही इस कस्बे की पहचान भी बन गए. गूगल पर ‘मलियाना’ खोजने पर इस कस्बे का नक्शा नहीं बल्कि इन दंगों का ही जिक्र सामने आता है. गूगल के परिणामों में मलियाना आज भी 28 साल पुराने दंगों से आगे नहीं बढ़ सका है. यही हाल इन दंगों से जुडी न्यायिक प्रक्रिया का भी है. यहां हुए दंगों का मामला न्यायालय में आज भी लगभग उसी स्थिति में है जिसमें 28 साल पहले था. इन दंगों के पीड़ित अब न्याय की उम्मीद तक छोड़ चुके हैं. वैसे पूरे न्याय की उम्मीद उन्हें कभी थी भी नहीं. क्योंकि 23 मई 1987 को मलियाना में जो कुछ भी हुआ था उसका पूरा सच कहीं दर्ज ही नहीं हुआ. शायद हुआ भी हो तो जांच आयोग की उन रिपोर्टों में जिन्हें आज तक सार्वजनिक ही नहीं किया गया.
23 मई 1987 को मलियाना में जो कुछ भी हुआ था उसका पूरा सच कहीं दर्ज ही नहीं हुआ. शायद हुआ भी हो तो जांच आयोग की उन रिपोर्टों में जिन्हें आज तक सार्वजनिक ही नहीं किया गया.
फरवरी 1986 में केंद्र सरकार ने बाबरी मस्जिद के ताले खोलने का आदेश दिया था. इसके बाद पश्चिमी उत्तर प्रदेश में माहौल गरमा गया. मई 1987 आते-आते मेरठ में धार्मिक उन्माद अपने चरम पर पहुंच गया. 22 मई 1987 को यहां के हाशिमपुरा में अल्पसंख्यक समुदाय के 42 लोगों का कत्ल कर दिया गया. इसके अगले ही दिन 23 मई को मलियाना में जो भीषण दंगे हुए उनमें सौ से ज्यादा घर जला दिए गए और 73 लोगों की हत्याएं हुई. मलियाना निवासी वकील अहमद मेरठ में दर्जी का काम करते हैं. 1987 में हुए सांप्रदायिक दंगों में पहले तो मेरठ स्थित उनकी दुकान लूट ली गई और फिर मलियाना में हुए दंगों में उन्हें गोलियां भी लगीं. वकील अहमद इस मामले में अभियोजन पक्ष के पहले गवाह भी हैं. आज वे कहते हैं, ‘मैं पूरे विश्वास के साथ कह सकता हूं कि इस मामले में कभी भी न्याय नहीं होगा. मेरी आधी से ज्यादा उम्र इस इन्तजार में बीत चुकी है और बाकी भी यूं ही बीत जाएगी.’
वकील अहमद की तरह ही रईस अहमद भी इन दंगों के एक पीड़ित हैं. दंगों में रईस को गोली लगी थी और उनके पिता की हत्या कर दी गई थी. वे बताते हैं, ’23 मई की सुबह मेरे अब्बू घर से निकले थे और फिर कभी नहीं लौटे. हमें उनकी लाश तक नसीब नहीं हुई. सिर्फ यह खबर मिली कि पास में ही फाटक के पास उनकी हत्या कर दी गई थी.’ न्यायालय से अपनी नाउम्मीदी जताते हुए रईस कहते हैं ‘न्यायालय के सामने यह मामला हमेशा ही अधूरा पेश हुआ था. और इस अधूरे मामले की भी सुनवाई आज तक पूरी नहीं हो सकी. अब तो हम यह मान चुके हैं कि हमें कभी इन्साफ नहीं मिलेगा.’
मलियाना के पीड़ितों की इन टूटती उम्मीदों के कई कारण हैं. इनमें से कुछ इस मामले में चली न्यायिक प्रक्रिया को मोटे तौर पर देखने पर साफ हो जाते हैं. 1987 में हुए मलियाना दंगों की जांच मेरठ पुलिस ने लगभग एक साल में पूरी की थी. 23 जुलाई 1988 को पुलिस ने इस मामले में आरोप पत्र दाखिल किया. इस आरोप पत्र में कुल 84 लोगों को आरोपित बनाया गया था. इनका दोष साबित करने के लिए पुलिस ने 61 लोगों को अभियोजन पक्ष का गवाह बनाया. लेकिन बीते 28 साल में इनमें से सिर्फ तीन लोगों की ही गवाही हो सकी है. इनमें भी आखिरी गवाही साल 2009 में हुई थी. पीड़ितों के वकील नईम अख्तर सिद्दीकी बताते हैं, ‘इस मामले की सुनवाई कर रहे न्यायाधीश ने लगभग दो साल पहले एफआईआर की मूल कॉपी की मांग की थी. लेकिन यह एफआईआर रिकार्ड्स से गायब थी. इस कारण भी पिछले दो साल से यह मामला रुका पड़ा है.’
इस मामले के 84 आरोपितों का दोष साबित करने के लिए पुलिस ने 61 लोगों को अभियोजन पक्ष का गवाह बनाया. लेकिन बीते 28 साल में इनमें से सिर्फ तीन लोगों की ही गवाही हो सकी है. इनमें भी आखिरी गवाही साल 2009 में हुई थी.
मलियाना दंगों की सुनवाई आज पहले से भी ज्यादा विकट हो चुकी है. मेरठ के ‘अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश-15′ की कोर्ट में चल रहे इस मामले की अगली तारीख 30 मई तय की गई है. लेकिन इन न्यायाधीश का ट्रांसफर होने के कारण यह कोर्ट लगभग दो महीनों से खाली है. ऐसे में इस मामले की अगली तारीख पर भी एक ‘अगली तारीख’ देने की औपचारिकता ही निभाई जाएगी. इसकी असल कार्रवाई अब तभी आगे बढ़ेगी जब कोई नया न्यायाधीश इस कोर्ट में आएगा, आकर 28 साल पुराने मामले को शुरुआत से समझेगा, गायब हो चुकी एफआईआर के बिना मामले को आगे बढाने की रणनीति बनाएगा और अब तक हुई कार्रवाई के आधार पर आगे की कार्रवाई के आदेश देगा. यदि यह सब संभव हुआ तब भी मलियाना के पीड़ितों को कुछ हद तक ही न्याय मिल सकता है. इन पीड़ितों के साथ पूरा न्याय इसलिए नहीं हो सकता क्योंकि आज तक कोर्ट के सामने मलियाना की पूरी हकीकत कभी रखी ही नहीं गई.
मलियाना दंगों का जो मामला मेरठ न्यायालय में चल रहा है उसमें मुख्य शिकायतकर्ता याकूब अली हैं. याकूब बताते हैं, ’23 मई 1987 के दिन जो नरसंहार मलियाना में हुआ था उसमें मुख्य भूमिका पीएसी की थी. शुरुआत पीएसी की गोलियों से ही हुई थी और दंगाइयों ने पीएसी की शरण में ही इस नरसंहार को अंजाम दिया था.’ पेशे से ड्राइवर याकूब अली इन दंगों के वक्त 25-26 साल के थे. उन्होंने ही इस मामले में प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कराई थी. इसी रिपोर्ट के आधार पर पुलिस ने दंगों की जांच की और कुल 84 लोगों के खिलाफ आरोपपत्र दाखिल किया. इस रिपोर्ट के अनुसार 23 मई 1987 के दिन स्थानीय हिंदू दंगाइयों ने मलियाना कस्बे में रहने वाले मुस्लिम समुदाय के लोगों की हत्या की और उनके घर जला दिए थे.
लेकिन याकूब का कहना है कि उन्होंने यह रिपोर्ट कभी लिखवाई ही नहीं थी. वे बताते हैं, ‘घटना वाले दिन मुझे और मोहल्ले के कुछ अन्य लोगों को पीएसी ने लाठियों से बहुत पीटा. मेरे दोनों पैरों की हड्डियाँ और छाती की पसलियां तक टूट गई थी. इसके बाद सिविल पुलिस के लोग हमें थाने ले गए. अगले दिन सुबह पुलिस ने मुझसे कई कागजों पर दस्तखत करवाए. मुझे बाद में पता चला कि यह एफआईआर थी जो मेरे नाम से दर्ज की गई.’ इस एफआईआर में कुल 93 लोगों के नाम आरोपित के तौर पर दर्ज किये गए थे. याकूब कहते हैं, ‘ये सभी नाम पुलिस ने खुद ही दर्ज किये थे.’ याकूब की इस बात पर इसलिए भी यकीन किया जा सकता है क्योंकि इस रिपोर्ट में कुछ ऐसे लोगों के नाम भी आरोपित के रूप में लिखे गए थे जिनकी मौत इस घटना से कई साल पहले ही हो चुकी थी. हालांकि याकूब यह भी मानते हैं कि इस रिपोर्ट में अधिकतर उन्हीं लोगों के नाम हैं जो सच में दंगों में शामिल थे. लेकिन एफआईआर में किसी भी पीएसी वाले के नाम को शामिल न करने को वे पुलिस की चाल बताते हैं.
‘मलियाना में जो हुआ उसमें किसी हिन्दू को एक खरोंच तक नहीं आई. वह एक सोची-समझी रणनीति के तहत किया गया नरसंहार था. इसमें मुख्य साजिशकर्ता पीएसी के लोग थे और वे आरोपित तक नहीं बनाए गए.’
मलियाना दंगों में पीएसी की भूमिका पर हमेशा से सवाल उठते रहे हैं. साल 1988 में जब इस मामले में पुलिस द्वारा आरोपपत्र दाखिल किया गया, उससे पहले भी स्थानीय अख़बारों में यह बात उठने लगी थी कि पीएसी की मदद से ही दंगाइयों ने मलियाना में यह खूनी खेल खेला है. इसकी जांच के लिए अस्सी के दशक में ही एक जांच आयोग भी बनाया गया था. जस्टिस श्रीवास्तव की अध्यक्षता में बने इस आयोग की रिपोर्ट को आज तक सार्वजानिक नहीं किया गया. मलियाना के ही रहने वाले पत्रकार सलीम अख्तर सिद्दकी बताते हैं, ‘पुलिस ने जो जांच की उसमें किसी भी पीएसी वाले को आरोपित नहीं बनाया गया है. जबकि इस घटना में पीएसी ने ही मुख्य भूमिका निभाई थी. तत्कालीन गृहमंत्री ने तो पीएसी के कमांडर को इसी कारण निलंबित भी किया था. लेकिन कुछ समय बाद ही यह निलंबन वापस ले लिया गया. हमें पूरा यकीन है कि श्रीवास्तव आयोग ने पीएसी को दोषी भी पाया था.’
मलियाना में परचून की दुकान चलाने वाले मेहराज अली बताते हैं, ‘मेरे पिता की भी उस दंगे में मौत हुई थी. उस दिन वे पड़ोस के एक घर की छत पर थे. उनके गले में गोली लगी थी. यह गोली पीएसी वालों ने ही चलाई थी. स्थानीय लोगों के पास ऐसे हथियार नहीं थे जिनसे इतनी दूर गोली मारी जा सके.’ पीड़ितों के वकील नईम अख्तर बताते हैं, ‘उस दौर में पूरे मलियाना में सिर्फ खान मास्टर जी के पास ही बंदूक का लाइसेंस हुआ करता था. वह भी दुनाली बन्दूक का. ऐसे में इतनी गोलियां स्थानीय लोग कैसे चला सकते हैं? साफ़ है कि पीएसी ने ही गोलियां चलाई थी.’ नईम अख्तर आगे बताते हैं, ‘मैं इस मामले में सिर्फ एक वकील ही नहीं, एक पीड़ित भी हूं. मैं हमेशा से मलियाना में ही रहा हूँ और मैंने उस दंगे में कई अपनों को खोया है. बल्कि उसे दंगा कहना भी सही नहीं है. दंगा वहां होता है जहां दो गुट आपस में लड़ते हों. मलियाना में जो हुआ उसमें किसी हिन्दू को एक खरोंच तक नहीं आई. वह एक सोची-समझी रणनीति के तहत किया गया नरसंहार था. इसमें मुख्य साजिशकर्ता पीएसी के लोग थे और वे आरोपित तक नहीं बनाए गए.’
वकील नईम अख्तर की यह आखिरी बात ही मलियाना के पीड़ितों की नाउम्मीदी का मुख्य कारण भी है. न्यायालय में जो मामला चल रहा है उसमें यदि दोषियों को सजा हो भी जाए तो भी पीएसी के वे लोग कभी दंडित नहीं हो पाएंगे जो इन पीड़ितों के असली गुनहगार होते हुए भी आरोपित नहीं हैं. वैसे जिस धीमी गति से यह मामला न्यायालय में चल रहा है उस गति से तो आरोपितों का दंडित होना भी लगभग असंभव ही है. याकूब बताते हैं कि कई गवाह तो मेरठ से बाहर रहते हैं और पैसे की कमी के चलते सुनवाई के लिए कोर्ट भी नहीं आ पाते हैं. उनको यह भी लगता है कि अब इस केस का कुछ नहीं होना है. ‘बीते 28 साल में कई दोषी और कई गवाह तो मर भी चुके हैं. बाकी मेरी तरह ही इन्तजार में हैं कि मौत पहले आती है या गवाही की बारी. न्याय का तो अब कोई इन्तजार भी नहीं करता’ रईस अहमद कहते हैं
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