Thursday, 14 May 2015

क्या भुला दिया जाएगा 1857 को? @सईद नकवी

गत वर्ष 10 मार्च को राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने वर्ष 1857 के विप्लव की स्मृति को संजोए रखने के लिए सक्रिय एक नागरिक समूह से वादा किया था कि वे सरकार से इस संबंध में ब्योरे आमंत्रित करेंगे कि आजादी की पहली लड़ाई को कैसे समारोहपूर्वक याद रखा जाए। दो माह बाद ही केंद्र में सरकार बदल गई। इसी के साथ इस दिशा में होने वाली प्रगति भी अवरुद्ध हो गई। बहुत संभव है कि राष्ट्रपति भवन को इस संबंध में सरकार से बात करने का अवसर ही न मिला हो।
इसी दौरान आजादी की पहली लड़ाई की एक और वर्षगांठ आई और चली गई, और किसी का उस पर ध्यान ही नहीं गया।
वह 11 मई का दिन था, जब ब्रिटिश भारतीय फौज के बागी सैनिक दिल्ली पहुंचे थे। इससे एक दिन पहले 10 मई को वे मेरठ कैंटोनमेंट पर कब्जा कर चुके थे। इस विप्लव को देश के ग्रामीणों-किसानों का भरपूर समर्थन प्राप्त था। आंदोलन में शामिल अनेक सैनिक हिंदू थे, लेकिन उन्होंने अंतिम मुगल शासक बहादुरशाह जफर को अपनी लड़ाई के प्रतीक के रूप में चुना था। उन्होंने जफर को हिंदुस्तान का वास्तविक शासक घोषित किया था, अंग्रेजों को नहीं। यह साझा उम्मीदों और संघर्षों का सेकुलरिज्म था।
लेकिन बात केवल 10 या 11 मई की ही नहीं है, देश में बगावत की सुगबुगाहट एक लंबे समय से थी। एक मायने में वर्ष 1856 में अवध पर अंग्रेजों के कब्जे और अवध के लोकप्रिय नवाब वाजिद अली शाह की गिरफ्तारी के बाद से ही अवाम में असंतोष की लहर भड़की हुई थी। नवाब को कलकत्ते के समीप स्थित मटिया बुर्ज में निर्वासित किया गया था।
यह सच है कि वर्ष 1757 की प्लासी की लड़ाई में अंग्रेजों द्वारा जीत दर्ज किए जाने तक भारतीय शासकों और नवाबों की ताकत बहुत क्षीण हो गई थी। लगभग यही वह समय था, जब अहमदशाह अब्दाली का साया भी दिल्ली पर खतरे की तरह मंडरा रहा था, जिसकी परिणति वर्ष 1761 में पानीपत की तीसरी लड़ाई के रूप में हुई।
आश्चर्यजनक ही है कि इन ब्रिटिश और अफगान खतरों के बावजूद तब दिल्ली और लखनऊ के दरबार में कमाल की सांस्कृतिक गतिविधियां हो रही थीं। हाउस ऑफ कॉमन्स के तत्कालीन नेता विपक्ष बेंजामिन डिजराइली ने अचरज जताया था कि इन राजाओं और नवाबों को उनकी प्रजा कितना चाहती थी! उन्हें इस बात की भी चिंता थी कि अंग्रेजों की फूट डालो और राज करो की नीति विफल होती जा रही थी और 1857 का विप्लव भारतीयों की एकता का सबसे बड़ा सबूत था। नेता विपक्ष के तौर पर तत्कालीन ब्रिटिश हुकूमत की निंदा करते हुए उन्होंने कहा था कि हिंदुओं और मुस्लिमों ने अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई में एक-दूसरे का साथ दिया, इससे बड़ी विफलता ब्रिटिश राज की और क्या हो सकती थी!
हिंदुओं और मुस्लिमों के एक साझा मकसद से एकजुट होने को तब औपनिवेशिक अधिकारियों ने अपने लिए एक बड़ा खतरा माना था। निश्चित ही, आजादी की वह पहली लड़ाई इस बात की हकदार है कि उसकी याद को संजोकर रखने के समारोहपूर्वक राष्ट्रव्यापी प्रयास किए जाएं। और अगर एक बार 1857 के विप्लव को याद रखने के प्रयास शुरू हो गए तो उससे संबंधित अनेक अन्य यादगारों को संजोने के प्रयासों की भी शुरुआत हो जाएगी।
बहादुरशाह जफर को रंगून में एक जूनियर ब्रिटिश अफसर के गैरेज में कैद करके रखा गया था। वहीं पर उनकी मौत हुई। काफी समय तक यही पता नहीं चल सका था कि जफर की कब्र कहां है। अरसे बाद इसका पता चल सका था।
जैसा कि इतिहास में दर्ज है, अंग्रेज आखिरकार विप्लव को कुचलने में कामयाब रहे थे। विलियम डेलरिम्पल की किताब 'द लास्ट मुगल" में इसका लाजवाब वर्णन किया गया है। मौलाना बकर नामक एक वरिष्ठ कलमनवीस को तब चांदनी चौक के करीब तोप से उड़ा दिया गया था। इन मायनों में वे आजादी की जंग में शहीद होने वाले पहले भारतीय पत्रकार थे। हो सकता है, दिल्ली के पत्रकार और संपादकगण इस घटना को याद रखने के कुछ प्रयास करें।
अपने पहले कार्यकाल के दौरान यूपीए सरकार ने वर्ष 2007 में आजादी की पहली लड़ाई की 150वीं वर्षगांठ को समारोहपूर्वक मनाने का मन बनाया था। इसी सिलसिले में वर्ष 2006 के अंत में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपने घर पर वरिष्ठ राजनेताओं, कलाकारों, समाजसेवियों, पत्रकारों आदि की एक बैठक बुलाई थी, ताकि इस महत्वाकांक्षी आयोजन की एक रूपरेखा तैयार की जा सके। उस बैठक में सोनिया गांधी, लालकृष्ण आडवाणी, एबी वर्धन, प्रकाश करात, मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार, गांधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता निर्मला देशपांडे, गीतकार जावेद अख्तर सहित कई अन्य गणमान्यजन उपस्थित थे। इन पंक्तियों का लेखक भी उसमें मौजूद था।
बैठक में कई विचार प्रस्तुत किए गए, जिनमें से अनेक को स्वीकार भी कर लिया गया था। मसलन यह कि मेरठ से दिल्ली तक के पूरे रास्ते को सजाया जाए और उसमें बीच-बीच में मेमोरियल बने हों। निर्मला देशपांडे के इस सुझाव को बैठक में सर्वसम्मति से स्वीकार किया गया था कि बहादुरशाह जफर के अवशेषों को भारत लाया जाए। यह एक बहुत अच्छा विचार था, क्योंकि जफर की दिली ख्वाहिश थी कि उन्हें 'कू-ए-यार" यानी अपनी मातृभूमि में ही दफनाया जाए। उन्होंने तो अपनी कब्र के लिए मेहरौली में सूफी संत ख्वाजा बख्तियार काकी के आस्ताने के करीब एक जगह भी पसंद कर रखी थी। जब ऐसा होने की कोई सूरत नजर नहीं आ रही थी, तभी शायर-बादशाह ने मायूस होकर लिखा था कि 'है कितना बदनसीब जफर कि दफ्न के लिए, दो गज जमीन भी न मिली कू-ए-यार में।"
यदि जफर के अवशेषों को भारत ले आया जाता तो यह उस बदनसीब बादशाह के प्रति एक उपयुक्त आदरांजलि होती। म्यांमार की सरकार भी इसमें सहयोग करने को तैयार थी। जब जफर को रंगून में नजरबंद किया गया था, ठीक उसी समय मांडले के शासक को महाराष्ट्र के रत्नागिरी में कैद कर दिया गया था। तब अखबारों में खबरे आई थीं कि म्यांमार सरकार जफर के अवशेषों के बदले मांडले के शासक के अवशेषों की अदला-बदली करना चाहती थी। लेकिन इनमें से कुछ भी नहीं हो सका।
1857 में लड़ी गई आजादी की उस पहली लड़ाई की यादें हमें आज भी कई तरीकों से प्रेरित कर सकती हैं। क्या इंडिया गेट के चंदोवे के नीचे झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की संगेमरमर की प्रतिमा नहीं होनी चाहिए? वास्तव में हम तो झांसी की रानी की यादगार के प्रति एक मायने में कर्जदार हैं, क्योंकि उनका कढ़ाई किया गया शाही निशान, जिस पर हनुमान जी की आकृति अंकित थी, राजपूताना रायफल्स के रेजीमेंटल सेंटर से चोरी हो गया था, जबकि वहां उसे सहेजे जाने के लिए रखा गया था |

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