Thursday, 14 May 2015

सरस्वती से है हमारा प्राचीन जुड़ाव @अरविंद मोहन

हरियाणा इन दिनों एक दिलचस्प, लेकिन अलग तरह के काम के लिए चर्चा में है। महेंद्रगढ़ जिले के कुछ इलाकों में खोदाई करके एक मृत नदी का प्रवाह मार्ग खोजने और उसे सरस्वती साबित करने की कोशिश हो रही है। यह काम शुरू तो हुआ मनरेगा के तहत, पर जल्दी ही कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के पुरातत्व विभाग की देखरेख में यह काम आगे बढ़ा। अब इसमें भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण, इसरो और तेल और प्राकृतिक गैस आयोग के शामिल होने की उम्मीद है। कुरुक्षेत्र में इस परियोजना पर छह साल से काम हो रहा है।
1886 में आर.डी. ओल्डहम सहित अनेक इतिहासकारों की भी इस परियोजना में दिलचस्पी थी। एक टीवी कार्यक्रम में इस शोध और उत्खनन से जुड़े जानकार ए.के. चौधरी यह भी बता रहे थे कि इस इलाके के चुनाव में, जहां मात्र छह से दस फुट की गहराई पर पानी का एक आंतरिक प्रवाह दिखता है और टीवी कैमरे से भी जमीन की विभिन्न सतहें दिख रही हैं। सरस्वती की खोज में अकबर कालीन दस्तावेजों का भी सहारा लिया गया है। अगर ऐसा है तो यह बिल्कुल नई चीज है। इन सबकी वैज्ञानिक जांच से विभिन्न सतहों और कंकड़-पत्थर-बजरी की उम्र का पता करना मुश्किल नहीं है।
कुछ लोगों का कहना है कि सरकार की सरस्वती के खोदाई स्थल को पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करने की योजना है। इसके लिए खोदाई वाली जगह के पास ही बहने वाली बरसाती नदी का पानी उपयोग करने तथा और कुछ नहीं तो इसी मार्ग का पानी पंप से उठाकर नदी की झलक दिखा दी जाएगी। संघ परिवार तो इसे लेकर जाने कितनी बड़ी योजनाएं बना चुका है।
सरस्वती हमारे इतिहास और सांस्कृतिक जीवन का एक अभिन्न अंग रही है-अकेले ऋग्वेद में इसका जिक्र 29 बार आया है, किसी भी अन्य नदी से ज्यादा। आज भी प्रयाग में स्नान करने वाले उसे संगम मान कर सरस्वती में भी स्नान कर लेने का 'पुण्य' बटोरते हैं। इस हिसाब से देखें तो यह प्रोजेक्ट विश्वसनीय लगता है।
स्थापित इतिहासकारों और पुरातत्ववेत्ताओं को सरस्वती की खोदाई को देखने, जांचने और गलतियों को दूर करना चाहिए था, लेकिन ऐसा कुछ होता नजर नहीं आता। अभी सरस्वती के शुरुआती संकेत ही मिले थे कि इतिहास लेखन पर काबिज लेखकों की तरफ से इसे हवा में उड़ाने के प्रयास शुरू हो गए। कोई सरस्वती थी ही नहीं- इस बुनियादी मान्यता को प्रगतिशील और सेक्युलर मानने का चलन वैसा ही है जैसे आर्यों को बाहर से आया बताना या हड़प्पा सभ्यता को आर्य सभ्यता का विरोधी सिद्ध करने का प्रयास करना। प्रसिद्ध इतिहासकार इरफान हबीब ने लेख लिखकर इस परियोजना के साथ ही सरस्वती को ही काल्पनिक और देवी सरस्वती का ही काल्पनिक नदी रूप बताने में देर नहीं की और इसे उसी श्रेणी का अनुसंधान भी बता दिया जैसा कुछ लोगों ने कंप्यूटर के कमाल से हड़प्पा की मोहरों पर मौजूद सांड के कान को लंबा बना कर उसे घोड़ा बनाने का फरेब किया था।
यह सही है कि संघ परिवार और केंद्र में भाजपा की ताकत बढऩे वाले दौर में ऐसे दावे करने वाले बढ़ जाते हैं, पर इन दावों से भी ज्यादा नाटकीयता तो मार्क्‍सवादी इतिहासकारों के खंडन में है। हबीब मानते हैं कि हड़प्पा और मोहनजोदड़ो के पाकिस्तान में चले जाने से परेशान संघ परिवार के लोग इस उद्देश्य से सरस्वती को तलाशने पर ज्यादा जोर दे रहे हैं कि वे पूरी प्राचीन भारतीय सभ्यता को सरस्वती सभ्यता कह सकें।
एक तो सरस्वती की खोज आज शुरू नहीं हुई है। इस संबंध में व्यापक स्तर पर अध्ययन 1885 के आसपास शुरू हुआ। इस क्रम में पचासों अध्ययन हुए हैं और अब उपग्रह से नदी का मार्ग भी तलाशा जा रहा है। जो वैज्ञानिक यह काम कर रहे हैं उनमें प्रो. यशपाल और राजेश कोचर शामिल हैं।
अब जब हजारों साल पहले बहने वाली नदी विलुप्त हो गई है और ऐसा अकेले सरस्वती के साथ नहीं हुआ है, तो उसके मार्ग को लेकर भटकाव होगा ही, खासकर ऐसे समाज में जहां इतिहास लेखन की परंपरा ही नहीं रही है। ऋग्वेद इसे समुद्र तक जाता बताता है तो महाभारत और पंचविंश ब्राह्मण इसे राजस्थान के रेगिस्तान में समा जाने वाला बताते हैं। सो अगर हड़प्पा सभ्यता के नए ठिकानों की खोदाई हो तो उसे दकियानूसी मानने का कोई मतलब नहीं है। प्रो. हबीब इस मसले पर पहले भी लिखाई-पढ़ाई करते रहे हैं-हालांकि यह उनकी विशेषज्ञता का क्षेत्र नहीं है। उनका मानना है कि यह कोई नदी ही नहीं थी। उनकी स्थापना की बुनियादी गड़बड़ यह है कि वह ऋग्वेद के दसवें मंडल की एक ऋचा (10.75.5) के ग्रिफिथ के गलत अनुवाद का उद्धरण देते हैं जिसमें सिंधु, सरस्वती और सरयु का पूरब से पश्चिम का क्रम गलत हो गया है। बाद के अनुवाद में यह क्रम सही है। एक फुटनोट में भी सरस्वती के सिंधु या हेलमंड (जो अफगानिस्तान में बहती है) होने का सुझाव भी है।
पर ऋग्वेद में या अन्य वेदों में ऐसा कोई भ्रम नहीं है। हर नदी का वर्णन, उसका महात्म्य, उसकी स्थिति का वर्णन है और इसमें सरस्वती बिल्कुल अलग और शायद सबसे प्रमुख नदी है। उसे बाजाप्ता नदीतिमा कहा गया है। कुछ ऋचाओं में सरस्वती और सिंधु दोनों का नाम साथ है। सरस्वती कहां से निकलती है, कहां जाकर समुद्र में मिलती है यह सब लिखा है। कई विद्वान समुद्र को संगम या जल की अथाह राशि मानते हैं पर ज्यादातर लोग मानते हैं कि वह कच्‍छ के रन में जाकर समुद्र में मिल जाती थी। हरियाणा वाले अभी के काम की दिशा भी राजस्थान के घग्गर की तरफ जा रही है जो सही हो सकती है। विनसन अर्थात आधुनिक सिरसा से इसके विलुप्त होने का जिक्र मिलता है और संभव है कि सिरसा ने भी सुरसति से अपना नाम ग्रहण किया हो। टैसीटोरी(1918) ने खोज को बीकानेर के आसपास केंद्रित किया था और कई स्थलों की पहचान की थी, पर उनकी असमय मृत्यु से काम आगे न बढ़ सका। पाकिस्तान के चेलिस्तान (बहावलपुर) के पास बहने वाली हकरा नदी भी अध्ययन का केंद्र रही है-घग्गर के साथ। फिर रिमोट सेंसिंग और उपग्रह प्रणाली की सहायता से भी काफी काम हुआ जिनमें से एक में हमारे शीर्षस्थ वैज्ञानिक प्रो. यशपाल भी

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