'उल्टा चोर कोतवाल को डांटे," ये कहावत अकारण नहीं गढ़ी गई थी। इतिहास में इसके बीसियों उदाहरण मिलते हैं। गोस्पेल ऑफ मैथ्यू 7:3 में जीसस भी कहते हैं : 'ऐसा क्यों होता है कि तुम्हें अपने भाई की आंखों में बुरादे का एक कण तो नजर आ जाता है, लेकिन अपनी आंखों में मौजूद बड़े-बड़े तख्ते भी तुम्हें नहीं दिखते?" हाल ही में पाकिस्तान ने इस कहावत को फिर सही साबित किया है। पिछले कुछ दिनों में सीमारेखा, नियंत्रण रेखा और समुद्री क्षेत्र में जो घटनाएं घटीं, उसके बाद पाकिस्तान के रक्षा मंत्री जनाब ख्वाजा आसिफ फरमाते हैं कि 'हिंदुस्तान हमें पूर्वी सीमा पर छोटी-मोटी जंग के हालात में उलझाए रखना चाहता है। हमने हर बार हिंदुस्तान से रिश्ते सुधारने की कोशिश की, ताकि अमन-चैन कायम रह सके, लेकिन ऐसा लगता है कि हिंदुस्तान अमन-चैन की जुबान नहीं समझता। अब हम उसको उसी की जुबान में जवाब देंगे।" बहुत खूब!
इतिहास हमें यह सबक सिखाता है कि न तो लोग और न ही मुल्क इतिहास से कोई सबक सीखते हैं। एक नहीं, चार बार (1948, 1965, 1971 और 1999) जंग के मैदान में भारत से मात खाने के बावजूद पाकिस्तान को सद्बुद्धि नहीं आई है। जाहिर है, जो इतिहास से सबक सीखने को तैयार नहीं होते, वे अपनी गलतियों को दोहराने के लिए अभिशप्त होते हैं। फिर भी पाकिस्तान को यह याद दिलाया जाना चाहिए कि 1971 की जंग में भारत ने लगभग एक लाख पाकिस्तानियों को युद्धबंदी बनाया था। तब पाकिस्तान ने भारत के सामने हथियार डालते हुए समझौते के जिस करारनामे पर दस्तखत किए थे, उसकी इबारत अब भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश की सरकारों की सार्वजनिक संपत्ति है। नई दिल्ली स्थित राष्ट्रीय संग्रहालय में इस दस्तावेज को देखा जा सकता है और उसकी इबारत कुछ इस तरह है :
'पाकिस्तान की ईस्टर्न कमान इस बात के लिए राजी है कि बांग्लादेश में स्थित उसके सभी सैन्य बल पूर्वी क्षेत्र में भारतीय और बांग्लादेशी बलों के जनरल ऑफिसर कमांडिंग-इन-चीफ लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोरा के समक्ष आत्मसमर्पण करेंगे। इसमें समस्त (पूर्वी) पाकिस्तानी भूभाग, वायुसेना और नौसेना, अर्धसैनिक बलों और सिविल सशस्त्र बलों का समर्पण सम्मिलित है। सभी पाकिस्तानी फौजें जहां भी हैं, वहां हथियार डाल देंगी। इस करारनामे पर दस्तखत करते ही पाकिस्तान की ईस्टर्न कमान लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोरा के अधीन हो जाएगी। उनके आदेशों के उल्लंघन को करारनामे की शर्तों का उल्लंघन माना जाएगा और उनके द्वारा लिए जाने वाले निर्णय ही अंतिम होंगे।"
पाकिस्तान को इस अपमानजनक करारनामे पर दस्तखत करने को जब मजबूत होना पड़ा था, तब भी वहां भुट्टो एंड कंपनी सरीखे बड़बोले नेता मौजूद थे, लेकिन बाद में वे ही इंदिरा गांधी के सामने हाथ जोड़कर याचना करने लगे कि शिमला समझौते के तहत उनके बंदियों को छोड़ दिया जाए। शिमला समझौते पर 2 जुलाई 1972 को भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और पाकिस्तान के राष्ट्रपति जुल्फिकार अली भुट्टो द्वारा दस्तखत किए गए थे (19 वर्ष की बेनजीर भी अपने पिता के साथ आई थीं)। वह समझौता दोनों देशों के बीच मैत्रीपूर्ण संबंधों का ब्लू प्रिंट था। समझौते के तहत दोनों देशों ने शपथ ली थी कि वे एक-दूसरे के प्रति आक्रामकता का प्रदर्शन नहीं करेंगे और शांति, मित्रता व सहयोग की दिशा में काम करेंगे। समझौते में इस पर खासा जोर दिया गया था कि दोनों देश एक-दूसरे की क्षेत्रीय अखंडता और संप्रभुता का सम्मान करेंगे, एक-दूसरे के अंदरूनी मामलों में दखल नहीं देंगे और एक-दूसरे के खिलाफ दुष्प्रचार नहीं करेंगे। लेकिन उसके बाद पाकिस्तानी राजनेताओं ने शिमला समझौते की इन शर्तों को कई बार तोड़ा है।
दोनों ही देश 17 दिसंबर 1971 को घोषित संघर्षविराम के बाद अस्तित्व में आई नियंत्रण रेखा का उल्लंघन नहीं करने के लिए राजी हुए थे। पर बाद में पाकिस्तानी इससे मुकरने लगे। पहले भुट्टो, और फिर जनरल जिया-उल-हक (जिन्होंने 1977 में भुट्टो का तख्तापलट करने के बाद 1979 में उन्हें सजा-ए-मौत दे दी थी) यही कहते रहे कि भारत जिन वादों का दावा कर रहा है, वो तो पाकिस्तान ने कभी किए ही नहीं।
इंदिरा गांधी के विश्वस्त सलाहकार रहे पी.एन. धर ने वर्ष 2005 में लिखे लेखों की एक श्रृंखला में शिमला समझौते की कहानी ब्योरेवार बयां की थी। उन्होंने बताया कि भुट्टो ने इंदिरा गांधी से इस आशय की बातें कही थीं, 'आप मुझ पर भरोसा तो कीजिए।" इसके तुरंत बाद सीमापार से धर के दावों को झुठलाने की कोशिशें शुरू हो गईं। भुट्टो की कूटनीतिक कुशलता के गुण गाने वाले एक पाकिस्तानी लेखक ने लिखा, 'मिस्टर धर, आपको यह बात तो माननी ही पड़ेगी कि जैसा आप बता रहे हैं, अगर वह सच है, तो भी मिस्टर भुट्टो आपकी प्रधानमंत्री को बेवकूफ बनाने में तो कामयाब हो ही गए!" एक राजनीतिक टिप्पणीकार और अस्सी के दशक के मशहूर स्तंभकार जब इस मामले को इंदिरा गांधी के सबसे विश्वस्त सलाहकार रह चुके आर.एन.काव के पास ले गए तो उन्होंने कहा, 'ये बातें सुनकर मुझे हैरत हो रही है। लेकिन यह सच है कि शिमला जाने से पहले इंदिराजी ने मुझसे पूछा था, 'क्या मैं भुट्टो पर भरोसा कर सकती हूं? मुझे तो हिदायत दी गई है कि अगर मैं भुट्टो से हाथ मिलाऊं तो उसके फौरन बाद मुझे देख लेना चाहिए कि मेरी अंगुलियां सही-सलामत हैं या नहीं!""
जब मैं सीबीआई का निदेशक था, तब मुझे एक भारतीय प्रतिनिधिमंडल के साथ पाकिस्तान जाने का मौका मिला था। हमने लाहौर, इस्लामाबाद और रावलपिंडी की यात्रा की। जिस पांच सितारा होटल में हम ठहरे थे, उसमें अपने रूम में जाने से पहले हमने उनकी बाकायदा जांच-पड़ताल की थी, क्योंकि हम अपनी सुरक्षा को लेकर सचेत थे। लेकिन जब मैं बाजार में खरीदारी करने लगा तो पंजाबी होने के नाते मुझे कोई दिक्कत नहीं हुई। मेरे साथ बहुत अच्छा सलूक किया गया और कुछ दुकानदारों ने मुझसे पैसे लेने से इनकार कर दिया। उनका कहना था कि मैं इसे सरहद पार के अपने पंजाबी भाइयों द्वारा दी गई भेंट मानूं। उनकी बातों ने मेरे दिल को छू लिया। मैंने उनसे पूछा तो फिर दोनों देशों के बीच इतनी नफरत क्यों है। उन्होंने कहा, हमें नहीं पता, आप हमारी हुकूमत से पूछिए। लेकिन मैंने पाया कि पाकिस्तान के हुक्मरान भी हमारे साथ बहुत शराफत से पेश आए थे।
बाद में मुझे समझ आया कि पाकिस्तान की हुकूमत की तमाम नीतियों के पीछे उसकी फौज है। अगर पाकिस्तान की फौज साथ न दे तो उसकी कोई भी हुकूमत एक दिन के लिए भी नहीं टिक सकती। हुकूमत में बैठे लोग फौज के नुमाइंदे भर हैं। और जैसा कि जाहिर है, यह पाकिस्तान की फौज ही है, जो भारत के साथ हुए करारनामों की शर्तों को मानने के लिए राजी नहीं होती। लिहाजा, घूम-फिरकर बात वही ढाक के तीन पात वाली हो जाती है। ऐसे में भारत के सामने यही विकल्प शेष रहता है कि शांतिवार्ता की पेशकश को स्वीकार तो करे, लेकिन सीमारेखा पर पाकिस्तान की कार्रवाइयों या आतंकी वारदातों का मजबूती से जवाब भी दे। एक अन्य कहावत है कि 'अमन की बातें जारी रखो, लेकिन अपनी बंदूक में जंग मत लगने दो।" इससे भी बेहतर यह होगा कि हम अपने देश में ही अपनी बंदूकें तैयार करें। यदि हम ताकतवर होंगे तो पाकिस्तान ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया हमसे इज्जत से पेश आएगी।
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