जिंदगी के तौर-तरीके अजीब हैं। मिसाल के तौर पर किसने सोचा था कि अपनी भाषण शैली से श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर देने वाले अटल बिहारी वाजपेयी अपने जीवन के संध्याकाल में मानो मूक होकर रह जाएंगे। लगभग ग्यारह साल पहले अटलजी को लोकसभा चुनाव में भाजपा की हार के बाद प्रधानमंत्री पद छोड़ना पड़ा था। उसके बाद से एक अरसे से वे सार्वजनिक दृश्य से दूर हैं। इसके बावजूद यह आश्चर्य की बात है कि देश के सामूहिक अवचेतन से वे कभी दूर नहीं हुए। आज भी उनका नाम सम्मान के साथ लिया जाता है, केवल भाजपा नेताओं द्वारा ही नहीं, बल्कि विपक्ष के नेताओं द्वारा भी। उनके द्वारा गढ़े गए 'गठबंधन-धर्म" और 'राजधर्म" जैसे शब्द हमारे राजनीतिक शब्दकोश का हिस्सा बन चुके हैं। जम्मू-कश्मीर के बारे में 'कश्मीरियत, जम्हूरियत और इंसानियत" के सिद्धांत को अपनाने की उनकी बात को हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी दोहराया था।
आखिर क्या कारण है कि राजनेताओं की भीड़ के बीच अटलजी देश के लिए एक खास मुकाम रखते हैं? क्या कारण है कि स्वतंत्रता के बाद के अग्रणी राजनेताओं में उनकी गणना की जाती है? और क्या कारण है कि जब उन्हें भारत रत्न प्रदान किया गया तो विभिन्न विचारधाराओं के राजनीतिक दलों द्वारा इसका स्वागत किया गया? पूछा तो यह भी गया कि अटलजी को यह पुरस्कार देने में इतनी देरी क्यों हो गई। इसमें कोई शक नहीं कि दस साल तक देश पर राज करने वाली कांग्रेसनीत यूपीए सरकार ने अटलजी को भारत रत्न देकर देश की सद्भावना अर्जित करने का एक बहुमूल्य अवसर गंवा दिया। जनवरी 2008 में लालकृष्ण आडवाणी ने तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को पत्र लिखकर उनके समक्ष प्रस्ताव रखा था कि अटलजी को भारत रत्न दिया जाए। यहां मैं यह भी उल्लेख करना चाहूंगा कि पिछले साल जब मेरी डॉ. सिंह से रेसकोर्स रोड स्थित उनके कार्यालय पर भेंट हुई तो मैंने भी उनके समक्ष यह सुझाव रखा था। डॉ. सिंह ने मुझसे कहा था कि अटलजी निश्चित ही भारत रत्न का सम्मान पाने के योग्य हैं, लेकिन...। जाहिर है, वे यह निर्णय खुद नहीं ले सकते थे!
इसकी तुलना अगर हम अटलजी के जीवन से करें तो पाएंगे कि व्यापक राष्ट्रीय महत्व के मामलों में उन्होंने हमेशा पार्टीहित पर राष्ट्रहित को तरजीह दी थी। इसकी पुष्टि के लिए अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं, लेकिन यहां केवल तीन ही काफी होंगे। पहला यह कि वर्ष 1964 में पं. नेहरू की मृत्यु होने पर अटलजी ने राजनीतिक मतभेद होने के बावजूद जिन शब्दों में राज्यसभा में उन्हें शोकांजलि अर्पित की थी, उसकी कोई मिसाल नहीं है। दूसरा अवसर तब आया, जब वर्ष 1971 की लड़ाई में भारत द्वारा जीत हासिल करने के बाद अटलजी ने इंदिरा गांधी की मुक्तकंठ से सराहना की थी। अटलजी की राजनीतिक परिपक्वता का तीसरा उदाहरण यह है कि वर्ष 1991 में जब देश आर्थिक रूप से लगभग दिवालिया होने की कगार पर था और प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंहराव ने अपने वित्त मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को आर्थिक सुधारों की तैयारी करने को कहा था, तब अटलजी ने विपक्ष के नेता होने के बावजूद इस निर्णय का समर्थन किया था, क्योंकि वे जानते थे कि यह फैसला वक्त की मांग है और देशहित में है।
अटलजी से बातें करते हुए मुझे उनके व्यक्तित्व की यह खूबी नजर आई कि उनमें किसी भी परिस्थिति में सच को अनेक आयामों से देखने की अद्भुत क्षमता है। उनकी विचार-प्रणाली में जड़ता नहीं थी और वे चीजों को पार्टी के चश्मे से नहीं देखते थे। उनके इसी गुण के कारण राजनीति में उन्हें 'अजातशत्रु" माना जाता था यानी वह व्यक्ति, जिसका कोई शत्रु न हो। जब वे संसद में बोलने के लिए खड़े होते थे, तो पूरा सदन दम साधे उनकी बात सुनता था। इसका कारण केवल यही नहीं था कि वे एक अद्भुत वक्ता थे, बल्कि यह भी कि उन्हें समूचे राजनीतिक वर्ग का सम्मान प्राप्त था।
अटलजी इस बात को समझते थे कि भारत विविधताओं का देश है और यहां पर एक संकीर्ण दृष्टिकोण के साथ आगे नहीं बढ़ा जा सकता। वर्ष 1998 से 2004 तक राजग सरकार उन्होंने विकास और सुशासन के मंत्र के आधार पर ही चलाई थी। उनके प्रधानमंत्रित्वकाल के वे छह साल आज भी राष्ट्रीय सुरक्षा और आर्थिक विकास की दृष्टि से एक महत्वपूर्ण कालखंड माने जाते हैं। अटलजी के कार्यकाल की सबसे बड़ी उपलब्धि यह थी कि उन्होंने देश को आत्मगौरव और आत्मविश्वास प्रदान किया। जब मैं पीएमओ में काम कर रहा था, तब एक शीर्ष व्यवसायी ने मुझसे कहा था कि पहले जब वे अमेरिका या यूरोप जाते थे तो उन देशों के लोग ऐसा जताते थे, मानो हमसे मिलकर वे हम पर अहसान कर रहे हों। लेकिन अब वे स्वयं हमसे मिलने का अनुरोध करते हैं। अब हम उनकी आंखों में आंखें डालकर बात कर सकते हैं।
अगर भाजपा को नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में सफलता व स्थायित्व के साथ सरकार चलाना है तो उसे अटलजी की उदारता और समावेश की नीति का ही पालन करना होगा। मोदी को भले ही 1996, 1998 और 1999 में अटलजी को मिले जनादेश की तुलना में अधिक प्रभावी व निर्णायक जनादेश मिला हो, लेकिन उन्हें अटलजी को ही अपना रोल मॉडल बनाना चाहिए। और अटलजी की तरह उन्हें सर्वसम्मति के आधार पर अपनी सरकार चलानी चाहिए।
अटलजी अब भले ही बोल नहीं पाते हों, लेकिन देशवासियों पर उनका प्रभाव पहले की तरह कायम है। कारण है उनकी दूरदृष्टिपूर्ण बुद्धिमत्ता, उनके अनुभवों की अपार संपदा, उनकी विनम्रता, उदारता और अद्भुत वक्तृता। यहां मुझे उनकी ये पंक्तियां याद आ रही हैं : 'हे प्रभो, मुझे इतनी ऊंचाई कभी ना देना। अपनों से दूर हो जाऊं, इतनी रुखाई कभी ना देना।" ऐसे राजनेता विरले ही होते हैं, जिनमें इतनी विनम्रता हो। मुझे छह साल तक उनके साथ काम करने का सौभाग्य मिला है और अपने अनुभव से मैं जानता हूं कि अटलजी के यही वे गुण हैं, जिनके कारण वे आज भी देश के जनमानस में बसे हैं।
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