Thursday, 28 May 2015

सच के इंतजार में देश @सुधांशु रंजन

नेताजी सुभाष चंद्र बोस के परिवार की तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू एवं उनके बाद की सरकारों द्वारा जासूसी कराए जाने की खबर आने के बाद सुभाष एवं नेहरू के पक्ष एवं विरोध में कई तरह की टिप्पणियां आई हैं। यह अच्छा है कि केंद्र सरकार ने उनकी मौत से जुड़े गुप्त दस्तावेजों को सार्वजनिक किए जाने के मुद्दे पर एक समिति का गठन किया है। इन दस्तावेजों के सार्वजनिक होने से कई तथ्य उजागर होंगे और दोनों व्यक्तित्वों के आकलन में भी मदद मिलेगी। नेताजी की मौत का रहस्य रूस के जार निकोलस द्वितीय की कनिष्ठ पुत्री अनेस्तासिया निकोलेवना की मौत से जुड़े विवादों की याद दिलाता है। रूसी क्त्रांति के बाद 17 जुलाई 1918 को बॉल्शेविक खुफिया पुलिस चेका ने जार, जारीना एलेक्सांद्रा फियोडोरोवना एवं उनके बच्चों की हत्या कर दी, किंतु यह अफवाह बड़ी तेजी से फैली कि अनेस्तासिया भागने में सफल हो गई। इस अफवाह को इससे भी बल मिला कि कम्युनिस्ट शासन के लंबे दौर में यह पता नहीं चला कि उसे दफनाया कहां गया। इसका सबसे दिलचस्प पहलू यह है कि कई महिलाओं ने यह दावा भी कर दिया कि वे ही अनस्तेसिया हैं। इनमें सबसे चर्चित धोखेबाज थी अन्ना एंडरसन, जिसका निधन 1984 में हुआ। किंतु 1994 में उसकी उपलब्ध कोशिकाओं की डीएनए जांच हुई तो उसका दावा पूरी तरह झूठा पाया गया। लेकिन प्रख्यात रूसी इतिहासकार वीनियामिन एलेक्सेयेव ने अपनी नई पुस्तक में यह लिखकर पुराने विवाद को फिर से गहरा दिया है कि अनस्तेसिया भाग कर पश्चिम चली गई।

नेताजी की मौत एवं पलायन के बारे में भी ऐसी कई कहानियां प्रचलित हैं। एक धारणा यह है कि अयोध्या के गुमनामी बाबा ही सुभाष चंद्र बोस थे। किंतु सुभाषिनी अली ने मुझे बताया कि उनके माता-पिता , जो सुभाष के करीबी थे, ने इसे पूरी तरह गलत बताया। उत्तार प्रदेश में 1980 के दशक के प्रारंभ में एक स्वयंभू साधु जय गुरुदेव ने भी अपने को नेताजी घोषित करने का असफल प्रयास किया। एक बार प्रचारित किया गया कि कानपुर में एक सार्वजनिक सभा में अमुक दिन नेताजी गुमनामी खत्म कर बाहर आएंगे। बड़ी संख्या में लोग नेताजी के प्रकट होने की प्रतीक्षा कर रहे थे। अचानक मंच पर जय गुरुदेव ने आकर खुद को सुभाष चंद्र बोस बता दिया। भीड़ में कई लोगों ने उसे पहचान लिया और उसे मारने के लिए टूट पड़े। यदि पुलिस ने उसे बचाया न होता तो भीड़ उसकी हत्या कर देती। यह लगभग पक्का हो चुका है कि नेताजी 18 अगस्त 1945 को फॉरमोसा में हवाई दुर्घटना में नहीं मरे थे। फॉरमोसा की नगरपालिका के रेकार्ड में उस दिन के मृतकों में उनका नाम नहीं है। बात तो यहां तक कही जा रही है कि उस दिन हवाई दुर्घटना हुई ही नहीं। यदि दुर्घटना में मौत होती तो उनका शव तो भारत लाया जाता। यदि शरीर इतना जल गया कि पहचान पाना संभव नहीं था तो भी पहचान के कई तरीके होते हैं। 1957 में फिलीपींस के राष्ट्रपति रेमॉन मैगसायसाय का एक हवाई दुर्घटना में निधन हुआ। शरीर इस कदर जल गया कि पहचान पाना संभव नहीं था, किंतु उनकी घड़ी से उनकी पहचान हुई। कैप्टेन अब्बास अली ने एक साक्षात्कार में मुझे बताया कि सितंबर 1945 में नेताजी ने सिंगापुर के आफीसर्स मेस में आजाद हिंद फौज के सैनिकों को संबोधित किया जिसमें वह मौजूद थे।

नेताजी के बारे में एक चर्चित कहानी यह है कि सोवियत संघ में स्टालिन ने उन्हें कैद कर रखा था। आजादी के बाद नेहरू ने अपनी बहन विजयलक्ष्मी पंडित को रूस में राजदूत नियुक्त किया। कहा जाता है कि स्टालिन ने विजयलक्ष्मी को सुभाष से मिलवाया और चेतावनी दी कि यदि नेहरू अमेरिका की तरफ झुकेंगे तो वह सुभाष को भारत वापस भेज देंगे और नेहरू की गद्दी खिसक जाएगी। 1950 में विजयलक्ष्मी का स्थानांतरण अमेरिका हो गया और उनकी जगह सर्वपल्ली राधाकृष्णन राजदूत बनाए गए। स्टालिन ने उन्हें भी सुभाष चंद्र बोस से मिलवाया। चर्चा तो यहां तक है कि राधाकृष्णन ने नेहरू को ब्लैकमेल किया कि यदि उन्हें राष्ट्रपति नहीं बनाया जाता तो वह सारी बातों का खुलासा कर देंगे। उन्हें 1952 में उपराष्ट्रपति बनाया गया और 1957 में नेहरू उन्हें राष्ट्रपति बनाना चाहते थे। लेकिन मौलाना अबुल कलाम आजाद ने सख्त विरोध किया कि वह कोई स्वतंत्रता सेनानी नहीं थे, जबकि राजेंद्र बाबू कंधे से कंधा मिलाकर आजादी के लिए संघर्षरत रहे। इसलिए राजेंद्र प्रसाद को दोबारा राष्ट्रपति बनाया गया।

एक बात बहुत साफ है कि हालांकि नेहरू उच्च कोटि के देशभक्त और ईमानदार थे, किंतु उनमें सत्ता के लिए बड़ी कमजोरी थी। उन्होंने आत्मकथा में कई स्थानों पर लिखा है कि कैसे उन्हें पार्टी में अलग-अलग समय पर पद दिए गए जबकि वह इसके लिए तैयार नहीं थे। फिर भी उन्होंने कभी पद लेने से इन्कार नहीं किया। 1929 में कांग्रेस के लाहौर सत्र में उन्हें अध्यक्ष चुना गया। प्रांतीय कांग्रेस कमेटियों ने महात्मा गांधी के नाम का प्रस्ताव किया था, किंतु वह तैयार नहीं हुए। उन्होंने खुद लिखा है कि महात्मा गांधी ने अंतिम वक्त पर उनका नाम आगे बढ़ा दिया। उन्हें बहुत अपमान बोध हुआ, क्योंकि वह सामान्य रूप से निर्वाचित नहीं हुए थे, वह बगल के दरवाजे से भी नहीं आए, बल्कि चोर दरवाजे से अध्यक्ष पद पर पहुंचे।

उन्होंने 2 सितंबर 1946 को अंतरिम सरकार का कार्यभार वायसराय की कार्यकारी परिषद के उपाध्यक्ष के रूप में संभाला। 15 अगस्त 1947 को प्रधानमंत्री बने ओर ताउम्र उस पद पर बने रहे। उन्होंने परिवारवाद को भी बढ़ावा दिया। सत्ता प्रेम एवं परिवारवाद उनकी दो बड़ी कमजोरियां थीं। ऐसे में यह अस्वाभाविक नहीं है कि सुभाष चंद्र बोस के वापस लौटने का खौफ उनके ऊपर हो। अंतरिम सरकार बनने के कुछ ही दिनों बाद आजाद हिंद फौज के चार जवानों को फांसी दी गई और नेहरू खामोश रहे। जब अभी तक की सभी सरकारें यह कह रही हैं कि दस्तावेजों के खुलासे से राष्ट्रीय हित को आंच आएगी तो साफ है कि हवाई दुर्घटना में उनकी मौत नहीं हुई। यदि मौत हो गई होती तो किसी राष्ट्र से संबंध पर असर क्यों पड़ता।

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