यही महीना था, पहली मई। चालीस वर्ष बीते। नन्हें से वियतनाथ्म ने दैत्यनुमा अमरीका को स्वभूमि से खदेडा था। सवा सौ सालों के विभिन्न साम्राज्यवादियों से वह लड़ता रहा। मगर अमरीका आखिरी नही था। कम्युनिस्ट वियतनाम की जनसेना ने विस्तारवादी चीन की जलसेना को भी ढकेल दिया था अमरीकी वायुसेना की ही भांति । आजादी अक्षुण्ण रखी। उसके दषकभर (1965-75) की जंगे आजादी में कई भारतीयों को क्रियाषील योगदान रहा। मुम्बई के फ्लोरा फाउन्टेन के हुतात्मा चैक पर बम्बई यूनियन आॅफ जर्नलिस्ट्स के हम युवा सदस्य हथेलियां साथ बांधकर, श्रंृखला बनाकर नारे गुंजाते थे, ”तुम्हारा नाम वियतनाम, हमारा नाम वियतनाम। हम सबका है वियतनाम।“ अमरीकी वैभव से चैंधियाये बम्बइया लोगों ने भी तब जाना कि नवउवनिवेषवाद फिर एषिया पर छा रहा है। मगर हमारा संघर्ष बिखर गया। क्योंकि वियतनाम की स्वतंत्रता की भांति हम लोग हंगरी, पोलैण्ड, चैकोस्लोवकिया की सोवियत साम्राज्यवाद तले कराहती जनता से जुड़ी रोटी और आजादी की लड़ाई को वियतनाम के मुक्ति संघर्ष से जोड़कर दासता के विरूद्ध अभियान बनाना चाहते थे। अर्थात प्रगतिषील लोग टूट गये क्योंकि उनका मानना था कि कम्युनिस्ट राष्ट्र कभी भी विस्तारवादी (सोवियत रूस) नही हो सकता है। पर उनकी मान्यता झुठला दी गई। बस नव स्वतंत्र वियतनाम के तीन ही वर्ष (1979) हुये थे। जनता पार्टी के विदेष मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी चीन के दौरे पर (फरवरी 1979) थे। बीच में छोड़ कर भारत लौट आये क्योंकि भीमकाय चीनी ड्रेगन ने तिब्बत की भांति वियतनाम को निगलने का प्रयास किया था। आक्रमण कर दिया था। कांग्रेसी हो, चाहे जनसंघी हर भारतीय को संघर्षषील, बौद्ध वियतनाम से यारी रही है। प्यार रहा है।
लेकिन कहीं दुनिया के दादा के सामने वियतनाम 1975 में टूट जाता तो ? तब अधूरी हसरतों की कब्र देखने से जनित स्मृतियां हम सबको टीसतीं। मगर उसके विलोम में यह भी है कि अभीष्ट यदि हासिल हो जाये तो आस्था खिल उठती है। इसीलिए स्वाधीनता संघर्ष करते वियतनामी जन हर्षित है। उनके साथ रहा समूचा एषिया, भारत खासकर। फिर भी पड़ोसी चीन सितम ढाता रहता है।
वियतनाम-अमरीका की जंग की स्मृतियां, चार दषक बाद भी सजीव हो जाती है मानों इसी मई दिवस के आस पास घटी हो। वे दृष्य ताजा हो जाते है। रावण रथी, विरथ रघुवीरा के अन्दाज में नवीनतम बम वर्षकों और विध्वसंक नेपाम बम के बूते, संहारक बने अमरीका के मुकाबले में वियतनाम के किसानों ने साइकिल, बैल गाड़ी और ठेलों का सामरिक उद्योग किया। वे विरथ थे ढाई लाख वियतनामी मारे गये थें। साठ हजार अमरीकी भी। गांव-गांव मंे बमबारी की गई। वाह रे वियतनामी किसान। जब भी अमरीकी बम से गड्डा हो जाता वे उसको तलैय्या बना देते। फिर उनसे धान के खेतों की सिंचाई करते। उनके नेता थे, डा. हो ची सिन्हा। गांधी और लेनिन के विचार और रणनीति का समन्वय थे। अंकल हो ची सिन्हा दिल्ली आये थे बालगृहों में ज्यादा प्रिय हो गये। सत्ता के गलियारों में वे अजूबा थे। क्योंकि राष्ट्रपति लिण्डन बेइंस जाॅनसन से मुकाबिल थे। कुछ दिया तूफान के अंदाज में। चन्द अमरीकापरस्त भारतीय राजनयिक को पक्का विष्वास था कि पशुबल के समक्ष वियतनाम दम तोड़ देगा। तभी इन्दिरा गांधी अमरीका के दौरें पर गईं। उनसे मिलने राष्ट्रपति जाॅनसन भारतीय दूतावास पहुँचे। समय तय था शाम की चाय का पर वार्ता करते-करते रात्रि भोज का समय हो गया। जाॅनसन रूके रहे। इन्दिरा से मनुहार करते रहे कि वियतनाम पर अमरीका का साथ दे। भारतीय प्रधानमंत्री ने केवल इतना कहा कि वे अमरीकी पीड़ा का आभास कर सकती हैं पर संवेदना नहीं। इस पर जाॅनसन ने बता दिया कि पब्लिक लाॅ 480 के तहत अमरीकी गेहूँ की अगली खेप अन्नसंकट से ग्रसित भारतीयों को नहीं मिलेगी। अकाल का खतरा पड़ सकता था। अमरीकी जनता का साथ भारतीयों को मिला। उसी दौर में वहां स्कूली बच्चे, गृहणियां, श्रमिक और पत्रकार एक सूत्र को वषिंगटन में गुंजा रहे थे। ”हेई हेई एलबीजे, हाऊमेनी किड्स हेव यू किल्ड टुडे ?“ (ओ, ओ, लिण्डन जाॅनसन, कितने बच्चे आज मार डाले ?)“ युद्ध विरोधी अमरीकी जनता को एक लाभ मिल गया। तभी पहली बार टी.वी. से युद्ध की टेलिकास्टिंग शुरू हुई थी। विभिषिका को विस्तार में सचित्र संचार माध्यम दिखा रहे थंे। और फिर वही हुआ जो हर उपनिवेषी शक्ति का होता आया है। अमरीकी सैनिक नैराष्य से ग्रसित हो गये। उत्तरी वियतनाम के स्वाधीनता सेनानियों ने दक्षिण की राजधानी साईगान को मुक्त करा लिया। उत्तर व दक्षिण का एकीकृत वियतनाम सार्वभौम राष्ट्र के रूप में आया। भारत ने तुरंत मान्यता दे दी।
एषियाई अफ्रीकी उपनिवेषों के मुक्ति संग्रह का इतिहास देखें तो स्पष्ट है कि भारतीय राष्ट्रीय कांगे्रस की भूमिका महत्वपूर्ण थी। विषेषकर महात्मा गांधी की इस पूरे परिवेष में वियतनाम की एषिया में तथा अलजीरिया की अफ्रीका में चले संघर्ष अनुकरणीय थे, यादगार थे, और जनहितकारी रहे। मसलन अलजीरिया में अहमद बेनबेल्ला और युसुफ बेनखेड्डा ने फ्रांसीसी शासकों को याद दिलाया कि समानता, स्वतंत्रता और भ्रातृत्व का नारा बुलंद करनेवाले राष्ट्र का साम्राज्वादी बनना समस्त मानवता को शर्मसार करता है। तुलना करे भारतीय और अलजीरियाई मुक्ति संघर्ष की। अलजीरिया में हर घर से एक व्यक्ति फ्रांसीसी गोली से मरा था। कुर्बानी राष्ट्रव्यापी थी। इधर भारत की बीस करोड़ की आबादी में केवल सवा लाख लोग जेल गये, यातना सही। बड़ी संख्या में भारतीय जन ब्रिटिष सरकारी कारकूनी करते थे। सेना तथा पुलिस में भर्ती होकर अपने ही देषवासियों का दमन करते रहे। कई षिक्षित लोग, नेताजी सुभाष बोस को छोड़कर, लन्दन जाकर भारतीय सिविल सर्विस (आईसीएस) की परीक्षा पास कर गुलाम भारत में नये नवाब और सामंत बन जाते थे। आईसीएस के शपथपत्र में एक वाक्य है कि ”हम मानते हैं कि अंग्रेज ही भारत पर शासन करने में सक्षम हैं।“ स्वाधीन भारत में भी यही अंग्रेज समर्थक लोग नये प्रषासन में छाये रहे। स्वयं जवाहरलाल नेहरू ने माना कि उपनिवेषी प्रषासन को राष्ट्रसेवान्मुखी वे नहीं बना पाये। वियतनाम फ्रांसीसी उपनिवेष था जब दृढ़तम फ्रेंच सैन्य किले डियान बियानफू पर 1954 में वियतनामी खेतिहर श्रमिकों ने फतह पाई। विष्वभर के युद्ध निष्णात दातों तले अंगूठा चबाने लगे थे। वियतनामी सेनाध्यक्ष जनरल वोएनगुआन गियाप की रणनीति को विष्व का हर सेनापति याद रखता है। युद्ध की संरचना देखिये। अचंभा तो यह था कि राजधानी साईगाॅन में अमरीकी फौजी रसोई की वेटर महिला और अमरीकी राजदूत का ड्राइवर वियतनामी मुक्ति संघर्ष की गुप्तचर संस्था में कार्यरत थे। अमरीकी समर्थित कठपुतली सरकार के विरूद्ध वियनामी कम्युनिस्टों का प्रचारतंत्र भी काफी दृढ़ था। स्वयं राष्ट्रपति होची मिन्ह का सूत्र था कि इस कठपुतली सरकार ने अस्पताल कम, मगर जेलें अधिक बनाई है। शराब और अफीम विक्रय केन्द्र बहुतायत में है, पर गल्ले की दुकाने नहीं हैं। त्रसित प्रजा भी संघर्ष से जुड़ गई। वियतनाम गृहयुद्ध के बाद संयुक्त राष्ट्र सेना ने शान्ति स्थापित कर दी थी और उत्तर-दक्षिण वियतनाम की सीमा भी निर्धारित कर दी थी। फिर भी उत्तर वियतनाम की राजधानी हनोई पर अमरीकी बम निर्ममता से बरसते रहे। तभी की एक जघन्य घटना कुछ वर्षों बाद उजागर हुई। माई लाई नामक गांव को समूचा मिटा दिया गया था। इसे गोपनीय रखा गया था। बाद में अमेरीका के कई खोजी पत्रकारों ने अपनी ही सेना के इस क्रूरतम वारदात का पर्दाफाष किया तो अमरीकी फौजी कमाण्डर का जवाब था, ”साम्यवाद से बचाने के लिए इस पूरे माई लाई गांव को नेस्तनाबूद करना अनिवार्य था।“
इतना सब होते हुये भी आज एकीकृत मुक्त वियतनाम और संयुक्त राज्य अमरीका के परस्चारिक संबंध अत्यंत मधुर हैं। अमरीकी उद्योगपतियों ने वियतनाम में अरबों डालर का निवेष किया है। अमरीका की कोषिष है कि दक्षिण चीन समुद्र में वियतनाम को सषक्त सागरतटीय रक्षाकेन्द्र बनायें ताकि चीन की बढ़ती सैन्य शक्ति से तटवर्ती जापान, दक्षिण कोरिया, ताइवान आदि राष्ट्रों, को सुरक्षित रखा जा सके। भारत भी इस संदर्भ में अमरीका की रणनीति से सहमत हैं। चीन और पाकिस्तान के गठजोड़ से भारत के सामरिक हित खतरे में पड़ गये है। अतः वियतनाम का सैनिक रूप से ताकतवर होना हमारे हित में ही हैं। कूटनीति में कहा भी जाता है कि मित्र और शत्रु शाष्वत नहीं होते। शत्रु का शत्रु हमारा मित्र है। कभी हिन्दी-चीनी भाई भाई का नारा लगता था। स्वयं नेहरू के सामने चीन ने अरूणाचल तथा लद्दाख की जमीन हड़प ली। नरेंद्र मोदी जितना भी भारत-चीन व्यापार बढ़ाये, चीन का हिमालय पर ध्येय साफ है - बौद्ध तिब्बत चीन की हथेली है जो जुड़ गई है। अब उसकी पांच कटी हुई उंगलियां भी जुड़नी चाहिए। इसमें अंगूठा हिन्दू नेपाल है, तर्जनी बौद्ध भूटान, मध्यमा सिक्किम, अनामिका लद्दाख और कनिष्ठा अरूणाचल है। अर्थात भारत को मानना होगा कि वियतनाम की रक्षा भारत के पूर्वोत्तर सीमा की सुरक्षा से जुड़ा हैं। इसीलिए यह सूत्र सामायिक है: ”हमारा नाम वियतनाम, तुम्हारा नाम वियतनाम।“
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