हरियाणा के यमुनानगर के मुगलावाली गांव में हजारों साल पहले लुप्त हो चुकी सरस्वती नदी के पुनर्जन्म के बाद हरियाणा के ही राखीगढ़ी में दुनिया की सबसे प्राचीन सभ्यता के अवशेष मिलने से उन वामपंथी इतिहासकारों को गहरी निराशा हो रही होगी जो दशकों से यहां की कालजयी समृद्ध संस्कृति को लांछित करने का कुप्रयास करते आए हैं। कम्युनिस्ट इतिहासकारों का मानना है कि सरस्वती नदी का कभी अस्तित्व नहीं रहा। उनके अनुसार सरस्वती नदी एक कपोल कल्पना है, मिथक है। ब्रितानी उपनिवेश काल में पाश्चात्य इतिहासकारों ने उत्तरी आर्य और दक्षिणी द्रविड़ का बखेड़ा खड़ा कर समाज को बांटने का काम किया। आजादी के बाद मैकाले-मार्क्स के मानसपुत्र इतिहासकारों ने आयरें को बाहर से आया बताया। वेदों सहित रामायण, महाभारत जैसे ग्रंथों को गल्पकथा बताकर उनसे जुड़ी सभ्यता, प्रतीकों और घटनाओं को कपोलकल्पित ठहराने की कोशिश की गई। किंतु आज नासा के उपग्रह इस बात की पुष्टि कर रहे हैं कि श्रीराम द्वारा लंका जाने के लिए बनाए गए रामसेतु का अस्तित्व है। गुजरात के पास समुद्र में जलमग्न द्वारकापुरी और राजस्थान के मरुस्थल में लुप्त सरस्वती नदी का भी अस्तित्व अब प्रमाणित हो गया है। मुगलावाली में हुई खुदाई में सरस्वती नदी का प्रमाण मिलने से पूर्व देश-विदेश के कई संस्थान सरस्वती के अस्तित्व को स्वीकारते आए हैं।
तेल एवं प्राकृतिक गैस निगम ने 2005 में ही रिमोट सेंसिंग और धरातलीय अध्ययन के बाद यह दावा किया था कि जमीन के नीचे सरस्वती का जल है। हजारों साल पहले आए भीषण भूकंप के कारण यमुना और सतलुज नदी ने अपना रास्ता बदल लिया था। यमुना पूरब में बहते हुए दिल्ली पहुंच गई और सतलुज पश्चिम में सिंधु नदी में मिलने लगी, जबकि इन दोनों नदियों का पानी पहले सरस्वती में मिलकर हरियाणा, राजस्थान और गुजरात होते हुए कच्छ में मिलता था। इन दोनों मुख्य स्नोतों के मार्ग विचलन से कालांतर में सरस्वती सूख गई। माना जाता है कि दस हजार साल पूर्व वैदिक सभ्यता के लोग सरस्वती नदी के किनारे ही रहते थे और ऋग्वेद का प्रारंभिक भाग इसके किनारे ही सृजित हुआ। सरस्वती नदी के सूख जाने के कारण ही इसके किनारे बसे लोग अन्यत्र पलायन कर गए। मोहेनजो दड़ो, हड़प्पा के बाद अब राखीगढ़ी से मिल रहे अवशेष हजारों साल पहले अति सभ्य और विकसित संस्कृति के ही दास्तान हैं, जिसे वामपंथी इतिहासकार नकारते आए हैं।
राजग सरकार के पिछले कार्यकाल में राष्ट्रीय चेतना और स्वाभिमान को बल देने वाले जितने भी प्रकल्प प्रारंभ कराए गए थे, संप्रग सरकार की पहली पारी में निर्णायक भूमिका में रहे कम्युनिस्टों ने उनमें से अधिकांश को ठप करा दिया था। राजग के कार्यकाल में ही वैदिक कालीन सरस्वती नदी की खोज का काम प्रारंभ कराया गया था। सरस्वती नदी की खोज का विषय जब पहली बार संसद में लाया गया था, तब कांग्रेस के तत्कालीन सांसद डॉ. कर्ण सिंह और इसरो के पूर्व अध्यक्ष डॉ. कस्तूरी रंगन ने इस योजना की प्रशंसा की थी, किंतु कम्युनिस्टों के दबाव में संप्रग सरकार ने इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया था। मुगलवाली में हुई खुदाई से इस प्राचीन नदी का अस्तित्व प्रमाणित होने के बाद पाश्चात्य चश्मे से भारत के इतिहास और संस्कृति को पढ़ाने वाले वामपंथी इतिहासकार क्या कहेंगे? 1872 में सीएफ ओल्डहम और आरडी ओल्डहम ने सरस्वती और उसकी सहायक नदियों के प्रवाह क्षेत्र का अध्ययन किया था। 1940-41 में पुरातत्ववेत्ता ओरियल स्टीन ने पूर्व रियासत बहावलपुर में सरस्वती के सूखे प्रवाह का एक भाग ढूंढ़ निकाला था। स्टीन ने ऐसे 90 स्थानों को चिह्नित किया था जिनकी खुदाई करने से हड़प्पा कालीन सभ्यता के अवशेष मिलने की पूरी आशा थी। 1946 में पुरातत्व विभाग के महानिदेशक बने सर मार्टीमर व्हीलर ने साजिश के तहत उन स्थानों का उत्खनन नहीं करवाया, जबकि आजाद भारत में जब उन स्थलों की खुदाई हुई तो इन स्थानों से हड़प्पा सभ्यता के अवशेष मिले।
हड़प्पा सभ्यता के अब तक के 2600 स्थलों में से 2000 स्थान सरस्वती नदी घाटी में ही स्थित हैं। भाभा आणविक अनुसंधान केंद्र के वैज्ञानिक एसएल राव ने 800 गहरे कुओं की खुदाई के बाद यह साबित किया है कि इस क्षेत्र में भूतल से नीचे पानी का प्रवाह 8 से 14 हजार साल पुराना है। बाद में भूमि जल आयोग ने 24 कुएं खोदे, जिनमें से 23 कुओं का पानी मीठा निकला। मरुस्थल में मिला पानी हजारों साल पुराना होने के कारण ही मीठा है। केंद्रीय भू-जलनिगम और भारतीय भूगर्भ सर्वेक्षण के पूर्व निदेशक के. श्रीनिवासन का विश्वास है कि सरस्वती के प्राचीन प्रवाह क्षेत्र में अकेले राजस्थान में दस लाख नलकूप बनाकर जल संकट दूर किया जा सकता है। बेंगलुरु के जवाहर लाल नेहरू उच्च अध्ययन केंद्र के प्रोफेसर केएस वैद्य ने भी वैज्ञानिक आधार पर सरस्वती नदी के अस्तित्व की पुष्टि की है। लैंड सेट इमेजरी का प्रयोग कर सरस्वती नदी प्रवाह क्षेत्र के नीचे जल प्रवाह होने की पुष्टि भी हो चुकी है। कम्युनिस्ट इतिहासकारों को यह ज्ञात है कि सरस्वती नदी का अस्तित्व प्रमाणित होते ही उनके कई सफेद झूठ सामने आ जाएंगे। आर्य-अनार्य, रामायण-महाभारत के मिथक और कपोल कल्पित होने का जो झूठ उन्होंने दशकों से परोसा है उसकी कलई खुल जाएगी। भारतीय जनमानस अपने गौरवमय अतीत पर अभिमान करेगा। इस स्वाभिमान की जागृति इस धरा की संस्कृति से कटे कम्युनिस्टों को कतई गवारा नहीं है।
वैदिक सभ्यता की साक्षी सरस्वती नदी के बाद त्रेता युग का रामसेतु भी कम्युनिस्टों के निशाने पर रहा है और संप्रग सरकार के कार्यकाल में इसे ध्वस्त करने की पूरी कोशिश की गई। वाल्मीकि रामायण में लिखा है, बड़े पर्वतों-पत्थरों को यंत्रों के द्वारा समुद्र तट पर लाया गया। किंतु संप्रग सरकार ने अदालत में हलफनामा दाखिल कर कहा कि राम भगवान थे, इसका कोई प्रामाणिक आधार नहीं है। जब राम ही नहीं रहे तो स्वाभाविक तौर पर रामसेतु का प्रश्न ही नहीं उठता। यह सन 2008 की बात है। हिंदुओं के मुखर विरोध के कारण सरकार ने बाद में अपनी गलती स्वीकारी। तब से मामला अदालत में लंबित है, किंतु जो मानसिकता इसे ध्वस्त करने पर आमादा थी, वह सनातन हिंदू सभ्यता के प्रति विरक्ति भाव से प्रेरित है। वामपंथी इतिहासकार और सेक्युलरिस्ट हिंदुओं की आस्था से जुड़े मुद्दों पर प्रमाण मांगते हैं। हजारों सालों से आस्था के केंद्र-बिंदु रहे विषयों को क्या प्रमाण की आवश्यकता है? कश्मीर में हजरतबल दरगाह में रखे पैगंबर साहब के बाल की प्रामाणिकता पूछने की हिमाकत क्या कोई करेगा? ईसा मसीह को सलीब पर लटकाया गया था। उस प्रतीक सलीब को ईसाई अपने गले में लटकाए रखते हैं। क्या कोई उस पर प्रश्न खड़ा कर सकता है? ऋग्वेद में अनेक बार उल्लिखित सरस्वती नदी और उसके किनारे विकसित सरस्वती घाटी सभ्यता के च्वलंत प्रमाण मिलने के बाद वामपंथी इतिहासकार क्या हिंदू समाज से क्षमायाचना करेंगे
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